वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2147
From जैनकोष
द्रव्यं चैकमणुं चैकं पर्यायं चैकमश्रम: ।
चिंतयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते ।।2147।।
द्वितीय शुक्लध्यान के एकत्व का विवरण―इस ध्यान में श्रम तो कोई करना नहीं पड़ता । जैसे किसी चीज को समझने के लिए लौकिक जनों को दिमाग लगाना होता है, किसी चीज में ध्यान जमाने के लिए कुछ अंतर में परिवर्तन करना होता है, वैसे कुछ इस ध्यान में कोई श्रम नहीं करना होता । स्वत: ही इतनी सामर्थ्य है कि बिना श्रम किए, बिना उपयोग लगाये स्वयं ही किसी एक द्रव्य का ध्यान चल रहा है, एक परमाणु का ध्यान चल रहा है ।एक पर्याय को जान रहा है बस उसी को ही जानता रहता है और जिस योग से वह जान रहा है उस ही योग से जानता रहता है । इस कारण इस शुक्लध्यान में ऐसा एकत्व बसा हुआ है, श्रुतज्ञान का तो आलंबन है, इसमें एकत्व का वितर्क है और एक ही योग से एक पदार्थ को जान रहे हैं अतएव एकत्व है और उसमें परिवर्तन नहीं है इस कारण अविचार है, ऐसी यहाँ द्वितीय शुक्लध्यानी योगियों की प्रकृति होती है । अव इसके बाद एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान के प्रताप से योगियों के कैसा वैभव प्रकट होता है, इसका वर्णन चलेगा ।