वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2150
From जैनकोष
दृग्बोधरोधकद्वंद्वं मोहविघ्नस्य वा परम् ।
स क्षिणोति क्षणादेव शुक्लधूमध्वजार्चिषा: ।।2150।।
एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान के द्वारा शेष घातित्रय का विनाश―एकत्ववितर्कअवीचार नामक शुक्लध्यान की अग्नि की ज्वाला से दर्शनावरण और ज्ञानावरण एवं अंतरायकर्म को क्षणमात्र में वह नष्ट कर देता है और मोहनीय कर्म का तो 10वें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के बल से ही विनाश कर देते हैं । यों 12वें गुणस्थान के अंत में चारघातिया कर्मों का अभाव होता है । जीव के साथ 8 प्रकार के कर्म लगे हैं जिन में चार घातियाकर्म हैं और चार अघातिया । घातिया उन्हें कहते हैं जो आत्मा के गुणों को घातै । और अघातिया उन्हें कहते हैं जो घातिया को किसी प्रकार सहयोग पहुंचाये, किंतु गुण को साक्षात् नहीं घात सके । इन आठ कर्मों में से ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अंतराय कर्म का तो निषेधरूप से क्षय हो चुका और शेष नामकर्म की प्रकृतियों का भी क्षय हो गया । यों 63 प्रकृतियों का नाश होते ही ये अरहंत भगवान हो जाते हैं । जब 13वां गुणस्थान सयोगकेवली हो जाता है वहाँ क्या स्थिति होती है? अब उसके संबंध में वर्णन चलेगा ।