वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2173
From जैनकोष
द्वासप्ततिर्विलीयंते कर्मप्रकृतयो द्रुतम् ।
उपांत्ये देवदेवस्य मुक्तिश्रीप्रतिबंधका: ।।2173।।
आत्मशोधन के अतिरिक्त अन्य कार्य की अकार्यता―लोक में सार मात्र इतना है कि यह जीव अपने आपके आत्मा की शुद्धि प्राप्त कर ले । ये बाहरी उपाधि, पर बंधन आदि जो कुछ हैं वे सारे दूर हो जायें तब आत्मा का शुद्ध विकास हो, आत्मा में निराकुलता जगे । इससे बढ़कर लोक में कोई और कार्य भी कहा जा सकता है क्या? एक का भाई गुजर गया तो लोग उसके पास आये सहानुभूति प्रकट करने के लिए और कोई यह भी पूछ बैठा कि तुम्हारा भाई अपने जीवन में क्या कर गया? तो वह उत्तर देता है―क्या बतायें यार क्या कारोनुमाया कर गए । बी. ए. किया, नौकर हुए, पेन्शन किया और मर गए । सबकी हालत यही है―व्यापार करने वाले भी क्या कर जाते हैं? कुछ सीखा, कुछ उसमें प्रवेश किया, व्यापार किया, धनी बने और मर गए । यों सबकी यही हालत है, चाहे धनी हो, चाहे विद्यावान हो । ये धनिक लोग, ये विद्वान् लोग कल्पना करते हैं कि इस देश में हम नाम कमायेंगे, इतिहास में हमारा नाम चलेगा । अरे यहाँ के मरे इस 343 घनराजू लोक प्रमाण में न जाने कहाँ के कहाँ पैदा होंगे? और इतने बड़े लोक के आगे यह थोड़ीसी परिचित दुनिया कुछ गिनती भी रखती है क्या? तो इस लोक में सारभूत काम मात्र यही है कि जिस प्रकार भी बने आत्मशुद्धि प्राप्त कर लें । मिथ्यात्व में सारे संकट हैं । कषायों में किसी को चैन नहीं मिलती ।ऐसी वांछा को ही तो निदान कहते हैं और निदान आर्तध्यान में शामिल हैं । लोक में सार अन्य कुछ कार्य नहीं है । केवल आत्मशुद्धि प्राप्त हो, यही एक उत्कृष्ट कार्य है।
शुक्लध्यानों का प्रताप―जो पुरुष वस्तुस्वरूप जानकर यथार्थ तत्त्ववेदी बने, संसार शरीर भोगों से विरक्त हुए, आत्मशुद्धि के मार्ग में जिन्होंने कदम बढ़ाया? अंतस्तत्व की धुनि बनी ऐसे पुरुष सर्व का परिहार करके, मूर्छा दूर कर के निर्ग्रंथ आत्मसाधन किया, और उस साधना के फल में श्रेणी पर चढ़े, क्षपकश्रेणी से चढ़कर प्रथम शुक्लध्यान के प्रताप से चारित्र मोहनीय की शेष 21 प्रकृतियों का क्षय किया और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती बनकर शेष तीन घातिया कर्मों का विनाश किया और अब चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर वे अरहंत प्रभु हुए, सयोगकेवली बने, तब उनके योग भी समाप्त हो जाते हैं, सूक्ष्मकाययोग भी नष्ट हो जाता है सूक्ष्मक्रियाप्रपाति ध्यान के प्रताप से, तब वे अयोगकेवली होते हैं । अयोगकेवली भगवान के उपात्य समय में 72 प्रकृतियों का विलय हो जाता है । कर्मों की कुल 148 प्रकृतियां होती हैं, जिन में से 63 प्रकृतियों का अभाव होने पर अरहंत अवस्था बनती है । शेष रहती हैं 85 प्रकृतियां, जिन में 72 प्रकृतियों का कर्मों के प्रकारों का उपांत्य समय में विनाश होता है । जिस आत्मा के यह बात हो रही है आदर्श तो वही है, संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जाने वाला आत्मा है ।इतना दृढ निर्णय बनायें कि मनुष्यजीवन पाया है तो सम्यक्त्व प्राप्त करें और चारित्र में अपना कदम बढ़ायें, जिससे स्वानुभूति में हमारी स्थिरता रहे । संसार संकटों को नष्ट करने का अमोघ उपाय रच डालें, यही जगत में सारभूत काम हैं ।