वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 358
From जैनकोष
तपस्तरलतीब्रार्चि:प्रचये पातित: स्मर: ।यै रागरिपुभि: सार्द्धं पतंगप्रतिमीकृत: ॥358॥
निष्काम योगियों की ध्यातृता का आदर्श –जिन साधुवों ने तपश्चरण रूपी तीव्र अग्नि की ज्वाला में रागादिक शत्रुवों के साथ काम को भी भस्म कर दिया ऐसे योगीश्वर ही प्रशंसनीय ध्याता होते हैं । जैसे अग्नि की ज्वालावों में पतंगें भस्म हो जाते हैं, एक यह लौकिक दृष्टांत दिया । ऐसे ही साधुवों के तपश्चरणरूपी अग्नि की ज्वाला में रागादिक विकार और काम ये सब भस्म हो जाया करते हैं । शांति और आनंद ज्ञान की उज्वलता के साथी हैं । मलिन ज्ञान के साथ आनंद नहीं निभता । जहाँ आत्मसमृद्धि उत्पन्न हुई हो वहाँ ही आनंद टिकना रह सकता है । आत्मसमृद्धि मौज और सांसारिक पद्धतियों से नहीं मिलती । किंतु, अपने इस ज्ञायकस्वरूप की प्राप्ति के उपाय में बड़े-बड़े परिषह उपसर्ग उपद्रव आयें और उन्हें सहन कर सकें, जिसकी अर्ंतध्वनि यह उठती है कि विपदावों तुम प्रिय हो, हितकारिणी हो, आत्मविशुद्धि तुम्हारे प्रसाद से प्रकटहो सकती है, ऐसी जिसके विपदावों के प्रति संपदावों से अधिक आस्था है ऐसे ज्ञानी योगीश्वर ही इन समस्त क्लेशों को दूर कर सकते हैं । एक बात अपने जीवन में यह सीख लेनी चाहिए कि इन सांसारिक सुखों से मेरा हित नहीं है । जितना यह शिक्षण ध्यान में रहेगा उतनी ही विशुद्धि बढ़ेगी ।यथा तथा जीवन बिताने का अंतिम परिणाम –भैया ! जीवन है चलेगा, चाहे संपदावों में मौज में रखकर चलावो तो चलेगा और विपदा संकटों का सामना खुशी खुशी कर करके चलावो तो चलेगा । अब जो अपनी सच्चाई के लिए अपनी भाव भासनासहित विपदावों को समता से सहन कर अपना जीवन चलायें उन्हें विशुद्ध आनंद प्रकट हो सकता है और जो कुछ काल के लिए मौज-मौज के ही साथी बने हैं, मौज का ही मन में आह्वान किया करते हैं ऐसे कायर व्यामोही पुरुषों को आत्मोपलब्धि की साधना नहीं बन सकती है । जैसे यह मनुष्यजीवन व्यतीत हो रहा है, चाहे कोई खुदगर्ज रहकर अपनी जिंदगी बिताले और चाहे कोई परोपकार करके अपनी जिंदगी बिता ले, जीवन बीतने के बाद अर्थात् बड़ी उम्र में, वृद्धावस्था में कहीं यह अंतर न आ जायगा कि परोपकार में जीवन बिताने वाले तो निर्बल हो गए, अधिक बूढ़े हो गए, और आराम में, खुदगर्जी में, प्रमाद में रह रहकर जीवन बिताने वालों के शरीर में कुछ खासियत पैदा हो गयी । लेकिन मन की प्रसन्नता में अवश्य अंतर है । परोपकार करके, मोह छल, कपट से दूर रहकर जिसका जीवन व्यतीत हुआ है उसके अंतर में बड़ा बल है और प्रसन्नता है ।
ससदाचार जीवन का महत्त्व –कोई पुरुष बड़े हृष्ट पुष्ट भी देखे जाते हैं और उनके शरीर में कांति चमक-दमक भी है, बड़ी अच्छी सुकुमारता से बड़े भोगों से जिनका जीवन व्यतीत हो रहा है ऐसे भी बड़े धनिक पुरुषों के जो शरीर से बलिष्ट दिखते हैं उनके दिल में कमजोरी ऐसी विशेष भी पायी जा सकती है कि जिससे एक स्थूलकाय बलिष्ट से होकर भी अंतर में कायरता और अति दुर्बलता का अनुभव करते हैं और निरंतर मरने का संदेह भी बनाये रहते हैं । वह किस बात का अंतर है ? जिसका मन परसेवा, दया, दान, तपश्चरण, परमार्थ, प्रीति आदिक उपायों से बलिष्ट नहीं बन सका वह मन नाना खुदगर्जियों में स्वार्थ भरे विषय संबंधी कल्पनाओं के भार से शीर्ण हो रहा है और ऐसे शीर्ण गले मन में वह बल उत्पन्न नहीं हो पाता, यह सब अंतर किसी बात का है ? सदाचार का, सच ज्ञान का, सम्यक्त्व का जिनके पालन है ऐसे पुरुष शरीर से वृद्ध निर्बल क्षीणकाय होकर भी उनके मनोबल, वचनबल और कायबल भी सही रहा करता है । अत: सुख में फूलें नहीं, समागम में विश्वास करें नहीं, वर्तमान पुण्य की परिस्थिति में मौज मानें नहीं इन सबको मायारूप जानकर इनसे उपेक्षाभाव करके अपने आपके अंदर ज्ञान और आनंद के लिए उत्सुक रहना चाहिए ।