वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 359
From जैनकोष
नि:संगत्वं समासाद्य ज्ञानराज्यं समीप्सितम् ।जगत्त्रयचमत्कारि चित्रभूतं विचेष्टितम् ॥359॥
नि:संग ज्ञानयोगियों का ध्यातृत्व --जिन्होंने निष्परिग्रहता को अंगीकार करके जगत्रय में चमत्कार करने वाले विलक्षण अद्भुत चेष्टायुक्त ज्ञानसाम्राज्य की वांछा की है वे ध्याता योगीश्वर प्रशंसा के योग्य हैं । जिसके केवल एक यही अभिलाषा है – मेरा स्वरूप सहजज्ञान है और इस सहजज्ञान का मैं उपयोगी ही रहा करूँ व्यर्थ की परवस्तुवों में जो मेरे तेरे की कल्पनाएँ हो जाती हैं, जिनमें सार का नाम नहीं है, सभी अत्यंताभाव वाले पदार्थ हैं उनमें जो व्यर्थ कल्पनाएँ जगती हैं वे विपदा है, और उस विपदा से हमारा छुटकारा हो, ज्ञानसुधा रस का हमारा पान रहा करे ऐसी जिनके अभिलाषा जगती है और केवल अपने आपके ज्ञानसाम्राज्य को ही, ज्ञानविकास को ही चाहते हैं, अपने से बाहर किसी भी जगह अन्य कुछ भी वांछा नहीं रखते हैं ऐसे योगीश्वर ध्याता प्रशंसा के योग्य हैं ।तत्त्वरुचि तत्त्वसंबंधित अर्थ का अनुराग –जिसे जिस तत्त्व की रुचि होती है उस तत्त्व से संबंध रखने वाले अन्य-अन्य भी पदार्थों की प्रशंसास्तुति किया करते हैं ऐसे भी लोग जिनसे कुछ समानता भी नहीं उनका भी आदर अभिलषित वस्तु की वजह से लोग किया करते हैं । जैसे आपका किसी ग्राम में कोई अतीत इष्टमित्र रहता हो, मानो किसी की स्वसुराल ही हो, उस गाँव से, कोई अन्य जाति का भी पुरुष निकले तो उसे स्त्री की प्रीति के कारण उन गाँव वालों की भी बड़ी सेवा करके घर में रखते हैं, और बात करते हैं तो बीच बीच में उस घर की कुशल क्षेममंगल की बात भी पूछा करते हैं, रुचि में ऐसा हुआ ही करता है । ऐसे ही समझिये कि जिन योगीश्वरों को, सम्यग्दृष्टिजनों को ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्त्व की रुचि जगी है वे पुरुष इस अंतस्तत्त्व का संबंध रखने वाले सम्यग्दृष्टिजन हों, साधुजन हों, प्रभु हों उन सबमें आस्था करते हैं और अपनी शक्तिभर उनकी सेवा में, उपासना में समय बिताते हैं । यों ही इस न्याय से अधिकार में ध्याता योगीश्वरों की प्रशंसा की जा रही है धन्य हैं वे ध्याता । जैसे जिनको ईष्या नहीं है ज्ञान से, विद्वेष नहीं है, आत्महित के अभिलाषी हैं ऐसे पुरुष किसी ज्ञानी आदर्श पुरुष को निहारकर उसके गुणानुवाद में ही अपने उपयोग को सफल करते हैं, उनके हिचक नहीं होती है क्योंकि उनका ध्यान, उनकी रुचि उस तत्त्वपर है जिस तत्त्व की प्राप्ति किसी अन्य ज्ञानी संत ने की हो, तो उससे गुणानुवाद बिना वह रह नहीं सकता और ऐसा गुणानुवाद अपने आपके गुणरुचि का द्योतक है ऐसे ही ये आचार्यदेव इस प्रकरण में ध्यान की विधियों को बताने से ही पहिले ध्याता योगीश्वरों की प्रशंसा कर रहे हैं, धन्य हैं वे योगीश्वर, धन्य है वे ध्याता कि एक सहजज्ञानस्वभावी आत्मतत्त्व की सिद्धि के लिए नि:संगता को निष्परिग्रहता को अंगीकार किया और केवल एक ज्ञानसाम्राज्य की ही वांछा रखें, अन्य समस्त वांछाओं और विकल्पों का परिहार कर दें वे योगीश्वर ध्याता प्रशंसनीय है, ध्यान की सिद्धि के पात्र हैं ।