वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 360
From जैनकोष
अत्युग्रतपसात्मानं पीड्यंतोऽपि निर्दयम् ।
जगद्विध्यापयंत्युच्चैर्ये मोहदहनक्षतम् ॥360॥
तपश्चरण में शांति का लाभ –जो मुनि अपने को अति तीव्र तप से निर्दयी के समान पीड़ा किया करते हैं अर्थात् शरीर से रंच भी राग नहीं है, मोह नहीं है इसलिए कितना ही शरीर से कायक्लेश उठाते हो उन सब तपश्चरणों में जो रुचिपूर्वक रहा करते हैं, तो देखने में तो यों लगता है कि ये साधुजन अपनी आत्मा को बहुत पीड़ितकर रहे हैं लेकिन वे अपने आपमें भी शांति का अनुभव करते और इस मोहरूपी अग्नि से जलते हुए जगत को भी शांति प्रदान करते हैं । सब कुछ बात एक दृष्टि पर निर्भर है । जिनकी दृष्टि विशुद्ध हो गयी, समस्त जगत से निर्लेप, निर्मल अपने आपका निर्णय करके अपने को केवल ज्ञातादृष्टा रहने देने के ही पक्षपाती बनते हैं, अन्य और कुछ धुन नहीं है ऐसे पुरुष अपने आपमें भी शांति का विस्तार करते हैं और दूसरे जीव भी उन संतों के प्रसंग संग में बसकर शांति का अनुभव किया करते हैं । तपश्चरण से इस आत्मा को कुछ हानि नहीं है, लाभ ही लाभ है, किंतु जो शरीर के व्यामोही पुरुष हैं वे तो इस शरीर के पुष्ट करने वाले विषयों में ही अनुराग रखते हैं, उन्हें तपश्चरण से प्रीति नहीं जगती, किंतु प्रसन्नता तो एक सच्चाई और शुद्धाशय के साथ रहने में हुआ करती है ।