वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 361
From जैनकोष
स्वभावजनिरातंकनिर्भरानंदनंदिता: ।
तृष्णार्चि:शांतये धन्या येऽकालजलदोद्ग मा: ॥361॥
तृष्णाग्नि की शांति में समर्थ ज्ञानमेघमाला के उद्गम ध्यान –मुनीश्वर धन्य हैं जो रत्नत्रयरूप अग्नि की ज्वाला को शांत करने के लिए मेघ के उदय के समान हैं । जैसे कहीं बड़ी तेज अग्नि जल रही हो तो उसे शांत करने के लिए मेघ बरष जायें, इससे बढ़ियाऔर कोई उपाय नहीं है, ऐसे ही यह ज्ञानरूपी मेघमाला अग्नि को शांत करने में पूर्ण समर्थ है । सम्यग्ज्ञान ही एक ऐसा विलक्षण मेघ है कि तृष्णा की महिती ज्वालावों को भी बुझा देता है । जैसे जो आग घर में छिपी हुई जल रही है उसका बुझना तो दूर रहा, मेघों का सामना भी नहीं हो सकता ऐसे ही मायाचार के घर में छिपाकर रखी हुई कषाय हो तो उसे सम्यग्ज्ञान का सामना ही नहीं मिल सकता, बुझाने की तो चर्चा ही क्या हो । वे मुनीश्वर धन्य हैं, उनका आनंद अकेले में भी उत्पन्न हो रहा । जैसे कि बैसाख जेठ की तीव्र गर्मी हो और कहीं लग जाय आग और तेजी से मेघ बरष जायें तो इसे लोग कहने लगते कि सब कुछ भगवान ने ही भेजा है, अवसर तो कुछ था ही नहीं, असंभव बात बन गयी । उसे लोग एक भगवान का भेजा हुआ, भगवती शक्ति का चमत्कार कहने लगते हैं यों ही समझिये कि अकाल में ही जहाँ चाहे जैसे प्रसंग में किसी भी घटना में यह स्वानुभव विवेकी जल का उदय हो जाया करता है ज्ञानीसंतों के और उससे कषायों की दाह शांत हो जाती है, स्वयं की भी और उनके निकट रहने वाले अन्य पुरुषों की भी । बात असल यह है कि जिनको सांसारिक मायारूप विभूति से प्रीति नहीं है किंतु एक अपनी सहज ज्ञानकला में ही प्रीति है जिसमें न कोई दिखावट, न बनावट न सजावट है, गुप्त ही गुप्त अपने ही आपमें भीतर ही भीतर सरककर मग्न होने की ही जहाँ धुन है ऐसे शुद्ध आशय वाले योगीश्वरों के आनंदमेघ का उदय चलता ही है जिससे उनके कषायों की दाह उत्पन्न नहीं होती, ऐसे योगीश्वर प्रशंसनीय ध्याता हैं ।