वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 368
From जैनकोष
तवारोढुं प्रवृत्तस्य मुक्तेर्भवनमुन्नतम् ।सोपानराजिकाऽमीषां पादच्छाया भविष्यति ॥368॥
संतों की पादच्छाया में उन्नति में सोपानरूपता –हे आत्मन् ! मुक्तिरूपी मंदिर पर चढ़ने की प्रवृत्ति करते हुए तुझे सही सोपान बताया गया है । ऐसे साधुसंतों के चरणों की छाया ही तेरे उन्नतिरूप महल में पहुंचाने की सीढ़ियाँ हैं । जिन्हें ध्यान की सिद्धि करना हो उन्हें ऐसे निर्दोष योगीश्वरों की, मुनियों की सेवा करनी चाहिए । ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषों का रास्ता अलग-अलग है । अज्ञानी जनों को मोह ममता, विषय कषाय ये सब सूझते रहते हैं और ज्ञानीजनों को केवल निजचैतन्यस्वभाव ही सूझता रहता है, मैं तो यह हूँ । ज्ञानियों का पंथ जुदा है और अज्ञानियों का पंथ जुदा है । जिन्हें ज्ञान ध्यान की सिद्धि करना है उनका यही तो कर्तव्य है कि ज्ञानी ध्यानी महापुरुषों के संग में रहें । कितनी ही बातें सज्जन पुरुषों के संग में रहकर प्रेक्टिकल सीख ली जाती हैं जिन बातों को अनेक ग्रंथों का स्वाध्याय करनें से और बहुत-बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेने से भी वह बात नहीं बनती । तो सज्जन पुरुषों के संग की जो छाया है यह संसार संताप को बुझाने में समर्थ है, इस कारण जो ध्यान की सिद्धि चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि ध्यानमार्ग में सफल हो रहे साधुजनों को सत्संग करें । अपने जीवन में कुछ अंदाज तो लगावो कि मोही पुरुषों की संगति में हमारा कितना समय गुजरता है और ज्ञानी, साधु, व्रती संत पुरुषों के समागम में कितना समय गुजरता है । ज्ञानी संत पुरुषों के संग में अनेक बातें प्रयोगरूप से सीखली जाती हैं । अत: जिनको ध्यान की अभिलाषा है उनका कर्तव्य है कि संसार शरीर भोगों से विरक्त केवल ज्ञानस्वभाव के विकास के लिए ही सहज विश्राम करने वाले पुरुषों की संगति से ध्यान की सिद्धि का उपाय प्राप्त होता है ।