वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 374
From जैनकोष
दु:प्रज्ञा बललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया:,विद्यंते प्रतिमंदिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिन: ।आनंदामृतसिंधुसीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरन्,ये मुक्तेर्वदनेंदुवीक्षणपरास्ते संति द्वित्रा यदि ॥374॥
मोक्षोन्मुख ज्ञानियों की विरलता –ऐसे दुष्प्रज्ञ लोग जिनके कुमति जगी है वे तो घर घर में मिलेंगे । किंतु जो एक मुक्ति के, केवल्य के आनंद का अनुभव करने की ही धुन बनाये हों ऐसे पुरुष दो तीन ही मिलेंगे अर्थात् बिरले ही मिलेंगे । मूढ़जनों में अपनी बुद्धि का प्रयोग करके कुछ भी लाभ न मिल पायगा । ये जो कुछ भी दिखने वाले पदार्थ हैं इनके जोड़ने से जो एक चित्तभ्रांति उत्पन्न हुई हैं, तुम भोगने की इच्छा जगी है इनमें कुछ भी सार नहीं है । जो केवल दृश्यमान पदार्थों को ही सारभूत मानते हैं वे नास्तिक हैं, अंतस्तत्त्व का लोप करने वाले हैं, ऐसे मनुष्य तो घर-घर मिलेंगे । कोई धर्म की बातें भी करता हो, वैराग्य की बातें भी बोलता हो तो भी उसके आशय में क्या है इसका क्या पता । क्या सचमुच ज्ञानज्योति प्रकट है अथवा विरक्ति का परिणाम बन गया है । तो अनेक ऐसे मिलेंगे जो धर्म के नाम पर कुछ अपनी शान बनायें, पोजीशन बनायें, लोगों में अपने को भला जचवा लें ऐसे भी बहुत से लोग मिल सकते हैं । किंतु, यथार्थ परिणाम से यथार्थ प्रवृत्ति से अपने आपके अंतस्तत्त्व की रुचि रखने वाले लोक में बिरले हैं । जिनके सत्यार्थ का कुछ ज्ञान नहीं है, विषयों के प्रयोजन में जो अपना उद्यम रखते हैं ऐसे प्राणी तो घर-घर में विद्यमान हैं, परंतु ऐसे ज्ञानी संत जो शाश्वत सहज आत्मीय परम आनंदरूपी अमृत के समुद्र की किरणों से संसार की दाह को जला सकते हैं और कैवल्य अवस्था का आनंद प्राप्त कर सकते हैं ऐसे पुरुष इस लोक में अति बिरले हैं ।
ज्ञानियों की विरलता की बात पर शिवपथ में अनुत्साह न लाने का अनुरोध –इस बिरलेपन को सुनकर कहीं चित्त में यह हिम्मत न हारना चाहिए कि ऐसे पुरुष बिरले ही हैं तो हमारा नंबर क्या आयेगा । मनुष्यों की संख्या को निहारकर यदि यह कह दिया जाय कि 10-5 हजार पुरुष तो सम्यग्दृष्टि होंगे, यथार्थ वैराग्य भावना वाले होंगे तो यह झूठ भी नहीं है । अरबों खरबों मनुष्यों की तुलना में 10-5 हजार बिरले ही कहलाते हैं । जैसे आज यह कहा जाय कि हिंदुस्तान में ऐसे पुरुष बिरले ही मिलेंगे जो मांस नहीं खाते हैं । शायद 1 प्रतिशत ही लोग ऐसे होंगे । तो जरा जल्दी सुनकर कुछ विश्वास नहीं होता कि 100 में दो चार ही लोग खाते हैं । लेकिन जरा अपने देश के ही सभी जिलों में दृष्टि डाल कर देखोगे तो यह समझ में आ जायगा कि 1 प्रतिशत तो बहुत कहा, पाव प्रतिशत भी न बैठेगा । हजार में एक ऐसा मिलेगा जो माँसभक्षी न हो । तो एक व्यापक दृष्टि को देखकर यदि कुछ जन यथार्थ पथ पर चलने वाले होंवें, तो वे भी बिरले ही तो हैं ।सकल जनों की सम्मति से हित निर्णय की अशक्यता –लोगों को तो बहु सम्मति पसंद होती है जो अधिक राय हो उस पर चलना चाहते हैं ! तो अब बतलावो अधिक राय ज्ञानियों की मिलेगी या अज्ञानियों की ? वोट लेकर देखलो । आप कोई काम करना चाहते हों, भाई हमारा तेरा प्रोग्राम है कि साधु दीक्षा लें और आत्मध्यान में रत रहें । जरा वोट ले लो अपने रिश्तेदारों की । दूसरों को तो पड़ी क्या है, वोट दें या न दें। वे तो मजाक करके यही कहेंगे बस जावो साधु । उनकी कोई वोट नहीं है । वोट तो हृदय को कहते हैं । पहिले रिश्तेदारों से पूछ लो – कितने लोग इसके लिए राजी होते हैं । अपने घर वालों से पूछ लो । तो कुछ अपने उद्धार के लिए दुनिया के लोगों की प्रवृत्ति को निरखकर हम sअपना निर्णय कुछ बनायें, क्योंकि खोटी सम्मति देने वाले प्राय: सब हैं, पर आत्महित की सम्मति देने वाले बिरले ही हैं । हम ज्ञानियों के संपर्क से और ज्ञानी संतों के इन वचनों से अपने आपका अपने विचार से निर्णय बनायें और जो आत्महितकारी विशुद्ध पंथ है, ज्ञान और वैराग्य का उत्पादक है उस पथ पर चलें और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परीग्रह इन मोटे पापों से दूर रहने का तो जीवन बनायें, इसमें ही हम आत्मध्यान के पात्र हो सकते हैं ।