वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 444
From जैनकोष
अतुलसुखनिदानं सर्वकल्याणबीजं
जननजलधिपोतं भव्यसत्तवैकपात्रम् ।दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं
पिबत जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधांबुं ॥444॥
सम्यक्त्वसुधा रसपान का आदेश ― हे भव्य जीव ! एक इस सम्यग्दर्शन नामक अमृत का पान करो । यह सम्यक्त्व ही अतुल आनंद का निधान है । आनंद के लाभ के लिए जगह-जगह दृष्टियाँ लगाते हो, पर बाह्य में कहीं भी आनंद का लाभ न मिलेगा । अतुल आनंद का निधान तो यह सम्यग्दर्शन है । अपने आपके सहजस्वरूप का सम्यक्रूप से अनुभवन कर लेना यही अनुपम आनंद का बीजभूत है । सर्वकल्याण का यह सम्यग्दर्शन बीज है । जैसे बीज से अंकुर उत्पन्न होता है और वह अनेक फलों को प्रदान करता है इसी प्रकार यह सम्यग्दर्शन आनंदअंकुर को उत्पन्न करता है और इसमें ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति समस्त आत्मसमृद्धि के फल फला करते हैं । यह सम्यग्दर्शन संसाररूपी समुद्र से तिरने के लिए जहाज की तरह है । जैसे नाव में बैठकर सागर से तिर लिया जाता है इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भाव में स्थित होकर इस संसार-सागर को पार कर लिया जाता है । इस सम्यग्दर्शन के पात्र एकमात्र भव्य जीव ही हैं । जिनका निकट कल्याण स्वरूप होनहार है वे ही इस सम्यग्दर्शन के अधिकारी होते हैं । सम्यग्दर्शन का परिणाम पापरूपी वृक्ष को मूल से उखाड़ फेंकने में कुठार की तरह है, जैसे लोग देवी के दो रूप माना करते हैं एक चंद्ररूप और एक शांतिरूप, ज्ञानरूप एक लौकिक कहावत सी है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के दो रूप देखिये । एक तो प्रचंड प्रतापरूप समस्त पाप बैरियों को ध्वस्त कर देने में बहुत समर्थ है और एक शांतिरूप सहज आनंद को देने वाला है, सर्वकल्याण का बीज है और शांति को ही सरसाने वाला है । यह सम्यग्दर्शन समस्त पवित्र तीर्थों में प्रधान है । सम्यग्दर्शन एक प्रधान तीर्थ है । तीर्थ कहते हैं उस तट को जिस तट पर पहुँचने से पार हुआ समझ लिया जाता है । यह सम्यग्दर्शन निर्भयता भरपूर है, क्योंकि इसने मिथ्यात्वरूपी समस्त विपक्षों को जीत लिया है । ऐसे सम्यग्दर्शन को हे भव्य जीव ! ग्रहण करो । इस सम्यक्त्व की दृष्टिरूप अमृतजल का पान करो । यहाँ के व्यर्थ मोह रागद्वेष भावों में बसकर अपने आपको मलिन मत करो । ज्ञान सम्यक्त्व का सहारा लो । अपने आपकी महिमा का ध्यान करो । सम्यग्दर्शन ध्यान और कल्याण का एक मुख्य अंग है ।
सप्तम सर्ग – सम्यग्ज्ञान