वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 445
From जैनकोष
त्रिकालगोचरानंतगुणपर्यायसंयुता: ।यत्र भावा: स्फुरंत्युच्चैस्तज्ज्ञानं ज्ञानिनां मतम् ॥445॥ ज्ञानियों का ज्ञान ― जिसमें तीनकाल के विषयभूत अन्य गुण पर्यायों सहित पदार्थ अतिशयता के साथ स्पष्ट रूप से प्रतिभास हो रहे हैं उसको ज्ञानी पुरुषों का ज्ञान माना गया है । ज्ञान ने यह शुद्ध विकास का वर्णन किया है । ज्ञान तो निर्दोष परिपूर्ण यथार्थ वही है जिस ज्ञान में समस्त सत् एक साथ प्रतिभास होता हो । ज्ञान का काम जानना है । सामने रहने वाली चीज को जानना यह प्रकृति नहीं है, किंतु जो सत् है उसको जानना यह जानन सबका स्वभाव है । वर्तमान में कोई सत् है उसे जानना यह जानने का स्वभाव नहीं, किंतु सत् का किसी भी काल में संबंध हो उस समस्त सत् को जानने का ज्ञान में स्वभाव है और इसी कारण ज्ञान में सीमा नहीं होती । किंतु, सीमा तो बन रही है सब की । कोई वर्तमान को ही जान पाता है और वह भी सम्मुख रहने वाले पदार्थों को ही जान पाता है । इतनी कैद इतनी सीमा जो ज्ञान में बन रही है, वह ज्ञान अथवा ज्ञान के आधारभूत आत्मा की ओर से नहीं बन रही है किंतु उस प्रकार के आवरण का उदय है इस कारण ज्ञान में अपूर्णता है । ज्ञान की अपूर्णता दिखाना ज्ञान का स्वभाव नहीं है । ज्ञान के स्वरूप में सीमा दिखाई जाये तो ज्ञान का स्वरूप सही नहीं उतरता है, समस्त पदार्थ अनंतानंत हैं । अनंत जीव हैं, अनंत पुद्गलद्रव्य हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अर्धमद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और अंसख्यात कालद्रव्य । जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु ठहरे हुए हैं । इन समस्त अनंतानंत द्रव्यों के अनंतानंत ही पर्याय भेद हो गए । अनंत पर्यायें भविष्य में होंगी और प्रतिसमय वर्तमान एक-एक पर्याय होती ही है । उन समस्त द्रव्य गुण पर्यायों को एक साथ जानने वाला पूर्णज्ञान आत्मा का निश्चयस्वभाव है । ज्ञान में जो भेद पड़ गए हैं वे कर्म के निमित्त से भेद पड़े हुए हैं । आत्मा के स्वभाव की ओर से ज्ञान में भेद नहीं पड़े हैं ।