वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 453
From जैनकोष
कल्पनातीतमभ्रांतं स्परार्थावभासकम् ।
जगज्ज्योतिरसंदिग्धमनंतं सर्वदोदितम् ॥453॥
केवलज्ञान की परमज्योतिरूपता ― केवलज्ञान कल्पनातीत है, अर्थात् न तो केवलज्ञान को कोई अपनी कल्पना में माप सकता है, न स्पष्ट जान सकता है, हाँ उसका अंदाज युक्ति अनुमान कर सकता है, पर जैसे किसी बात के लिए पूछा जाता कि साफ स्पष्ट बतावो ― इस प्रकार केवलज्ञान किस तरह से जानता है, यह कल्पना में स्पष्ट नहीं आता, क्योंकि छद्मस्त अवस्था में और जिज्ञासु अथवा इच्छावान पुरुषों के लिए केवलज्ञान का विषयज्ञान में परोक्षरूप से ही तो आयेगा । और, यह केवलज्ञान कल्पनातीत है । केवलज्ञान किसी भी पदार्थ को जानने में किसी प्रकार की कल्पना नहीं उठाता है । अपने ज्ञानस्वभाव से समस्त सत् एक साथ ज्ञान में प्रतिबिंबित होते हैं ऐसा ज्ञान का स्वभाव और प्रताप है । केवल स्व और पर दोनों अवभासक हैं । केवलज्ञान के द्वारा यह केवलज्ञानी परमात्मा स्वयं विदित ज्ञानानुभूत होता रहता है और समस्त बाह्य सत् भी ज्ञेयाकाररूप परिणमते रहते हैं अर्थात् उन सबका भी जानना चलता रहता है । यह केवलज्ञान संदेहरहित स्पष्ट जानता है । ज्ञानस्वभाव के कारण ज्ञानी आत्मा जानता है इसे विषय सन्मुख चाहिए इसकी अपेक्षा नहीं है । आवरण होने पर ही अनेक अधीनताएँ होती हैं, निरावरण ज्ञान में अभिमुखता की अपेक्षा नहीं है और इंद्रिय न होने के कारण कोई नियंत्रण नियमितता भी नहीं है । स्वच्छंद होकर एकदम समस्त सत् को जानने वाला केवलज्ञान होता है । केवलज्ञान निर्विकल्प है, और मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान भी निर्विकल्पज्ञान है । केवल श्रुतज्ञान सविकल्पज्ञान है । कल्पनाएँ उठाना यह सब श्रुतज्ञान की देन है, मतिज्ञान में कल्पनाएँ नहीं उठतीं, किंतु जो है उसे जान भर लेता है । जैसे आँखें खोलने के बाद कोई रूप दिखा तो रूप का ज्ञान हो जाना यह कितनी जल्दी होता है और तुरंत बाद कितनी जल्दी श्रुतज्ञान आ जाता है । इसे आप यों समझिये कि जैसे ही जाना रूप को तो मतिज्ञान हुआ और जैसे ही समझ में यह बैठा कि यह सफेद है बस श्रुतज्ञान हो गया । अब किसी चीज को देखकर सफेद हरी आदिक रंग की कल्पना होती है उससे पहिले इस कल्पना के बिना जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है, हमारा निर्विकल्प ज्ञान है । मतिज्ञान में जैसा जो रूप है वही जानने में आता है किंतु यह हरा है, पीला है इस प्रकार की कल्पना मतिज्ञान में नहीं बसी हुई है । ऐसे ही अवधिज्ञान जान लेता है अपने विषय को पर कल्पना नहीं करता । जो पुरुष किसी अवधिज्ञानी से अपना भव पूछे तो वह अवधिज्ञान जोड़कर, अवधिज्ञान से जानकर बताता तो है किंतु बताने का काम अवधिज्ञान नहीं करता । मतिज्ञान की तरह अवधिज्ञान से भी निर्विकल्परूप अपने विषय को जान लिया । अब उस जानते हुए पदार्थ में स्मरण करके, कल्पनाएँ करके श्रुतज्ञान से जानकर फिर प्रतिपादन किया जाता है, यही बात मन:पर्ययज्ञान केवलज्ञान में निर्विकल्पता तो है ही । प्रतिपादन की भी बात नहीं होती । केवल संयोग केवली गुणस्थान में भव्य जीवों के भाग और योग के संयोग से दिव्यध्वनि खिरती है, पर कल्पनायुक्त क्रम पूर्वक प्रतिपादन करने की शैली से भगवान का उपदेश नहीं होता । यों केवलज्ञान संदेह रहित है और सदैव उदयरूप है । किसी भी समय में इसका किसी भी प्रकार से अभाव न होगा ।