वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 454
From जैनकोष
अनंतानंतभागेऽपि यस्य लोकाश्र्चराचर: ।
अलोकश्र्च स्फुरत्युच्चैस्तज्ज्योतिर्योगिनां मतम् ॥454॥योगियों की परमज्योति ― केवलज्ञान में कितनी सामर्थ्य है जो कुछ केवलज्ञान द्वारा जाना जा रहा है वह समस्त लाक में जाना जा रहा है । ऐसे लोक असंख्यात हों, अनगिंते भी हों तो भी यह केवलज्ञान सबको जानता है । ज्ञान में कुछ सिकुड़न तो होती नहीं कि इसमें इतने ही पदार्थों का ज्ञान समा पायेगा, अन्य पदार्थों का ज्ञान करने की इसमें गुंजायेश नहीं है । ज्ञान का कार्य तो जानना है, और, जानन जो सत् हो उस सबका जानन है । इस केवलज्ञान में समस्त लोकालोक प्रभासित होता है, अथवा यों कहो कि केवलज्ञान के समस्त अविभागी परिच्छेदों में से अनंतानंत अविभाग प्रतिच्छेदों से यह समस्त लोकालोक जान रहा है अर्थात् इससे भी अनंतगुने ज्ञेय पदार्थ हों तो उन्हें भी यह केवलज्ञान जान सकता है । केवलज्ञान लोक से अधिक नहीं जान रहा किंतु स्थिति शक्ति बतायी जा रही है कि ऐसे अनगिनते लोक भी होते तो उन्हें केवलज्ञान जान लेता है । जो सत् है, सत् था, सत् होगा उसको केवलज्ञान जानता है । वर्तमान काल को ही जाने ऐसी सीमा मतिज्ञान में है, और मतिज्ञान का भेद जो स्मृतिज्ञान है वह तो अतीतकाल की भी बात समझता है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान तो अतीत और भविष्यकाल की भी कुछ सीमा लेकर प्रत्यक्षरूप से जानता है । जिस विषय में अवधिज्ञानी ने अवधिज्ञान जोड़ा उसको जान लेता है कि अमुक समय ऐसी बात होगी । तो जब किसी एक समय की बात को जान गया तो इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक समय में बात निश्चित है । होगा विधिविधानपूर्वक, पर कैसे भी हो । जो कुछ भी हुआ उसे ज्ञान ने जान लिया । एतावनमात्र से पदार्थ को परिणमने की विरोधता नहीं आई, वह तो जो कुछ होना है, होना है, हो सकता है, वह सब हो रहा है । ज्ञान ने तो चूँकि विशुद्ध है जो उसने जान लिया । यह कुछ ज्ञान ने अपराध नहीं किया । पदार्थ तो जब जिस विधि से होना है होता है । उन सबको प्रत्यक्षज्ञान स्पष्टरूप से जान लेता है । इस तरह सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में ज्ञान के 5 भेदों को बताया गया है । इन ज्ञानों में सर्वोत्कृष्ट ज्ञान केवलज्ञान है और उस केवलज्ञान का बीज है स्वानुभूति और स्वानुभूति है मतिज्ञान । स्वानुभूति एक अनुपम और विलक्षणज्ञान है । उसके प्रताप से ज्ञान का विकास हो होकर केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।