वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 455
From जैनकोष
अगम्यं यन्मृगांकस्य दुर्भेद्यं यद्रवेरपि ।
तद्दुर्बोधोद्धतं ध्वांतं ज्ञानभेद्यं प्रकीर्त्तितम् ॥455॥ज्ञान द्वारा दुर्बोधोद्धत ध्वांत का वेदन ― जिस मिथ्याज्ञानरूपी महान् अंधकार को चंद्रमा और सूर्य भी नष्ट नहीं कर सकते ऐसा दुर्भेद्य मिथ्यात्व अंधकार ज्ञान से नष्ट किया जा सकता है अर्थात् मोह मिथ्यात्व के विकल्पों का अंधेरा ज्ञान से ही दूर होता है । जैसे यहाँ अनेक बाह्य कारणों से दूर नहीं हो पाते किंतु भीतर के विचारों का परिवर्तन बने तब ही वे संकट दूर होते हैं । अनेक प्रेमी लोग समझाने वाले अनेक तरह से समझाते हैं और यह चाहते हैं अपनी पूर्ण शक्ति के साथ कि इसके संकट दूर हों और संकट तो भीतर के विचारों से बने हैं । जिस किसी प्रकार भीतर के विचार में परिवर्तन हो तो संकट दूर हो सकते हैं । हर जगह देख लीजिए संकट भीतरी ख्याल है । मान लो एक देश के नेता से देश पर कोई शत्रु उपद्रव करे तो यह घोर संकट कहलाता है, किंतु जिसके भीतर का विचार इसे अंगीकार करे उसको ही तो संकट है और कोई विरक्त संसार का स्वरूप जानता है, न यहाँ हमारा ठिकाना है और न अन्यत्र कोई ठिकाना या ठौर ठिकाने की बात है सब एक समान है । कुछ दिनों के लिए आज इस देश में हैं, इसके बाद कहाँ के कहाँ होंगे और कितने काल का यह खेल है । कोई विरक्त हो तो उसे भी संकट नहीं महसूस कर सकता है ही नहीं संकट उसमें । संकट तो सबका अपने-अपने विचारों से है । कोई सोचे कि हमारे कुल की परंपरा अच्छी बनी रहे, लड़के लोग अच्छे चलें, उनके लड़के फिर उनके लड़के यों पीढ़ी परपीढ़ी के सब लोग कुशल रहें, सबका यश बढ़े, इज्जत बढ़े ऐसा सोचते हैं । प्रथम तो कितनी पीढ़ी तक का आप ठेका लेना चाहते हैं कि इतनी पीढ़ी तक के लोग अच्छे रहें ? कुछ ठेका ही नहीं लिया जा सकता । दूसरी बात यह है कि मरे के बाद तो ये सब उतने ही गैर हो जायेंगे जितना गैर दूसरों को माना है । तब फिर इनकी ओर ध्यान करना, विचार करना यह संकट है कि नहीं ? लेकिन जब सभी लोग इस धुन में हैं, इस विचार में है तो यह चतुराई मानी जाती है । संकट नहीं मान रहे और जो इन बातों में कुशल है उनकी प्रशंसा की जा रही है । जिंदगीभर श्रम करें, धन जोड़कर रखें उनकी ही लोग तारीफ करते हैं कि देखो उसने कितनी अच्छी व्यवस्था बनाई कि उसके बालबच्चों को कोई तकलीफ नहीं है, और किया सारे संकटों के ही काम । तो विचारों के भेद में बहुत भेद है, मर्म है, सारे संकट विचारने के हैं । किसी भी मामले में किसी को अपना और किसी को गैर मान लेना यही संकट है । यहाँ तो जिन्हें अपना मानते वे भी गैर हैं और जिन्हें पराया मानते वे भी गैर हैं, सभी अपने स्वरूप में हैं । ऐसा नहीं कि कोई अपना है और कोई गैर है । सब जीवों का स्वरूप जैसा अपना है तैसा ही सबका है । रंच भी भेद नहीं है । भव्य जीव और अभव्य जीव में भी स्वरूप का भेद नहीं, जो इतनी बड़ी भारी परिस्थितियों में अंतर की चीज है । जैसा ज्ञानानंदस्वभाव भव्य का है वैसा ही ज्ञानानंदस्वभाव अभव्य का है, जो शक्तियाँ भव्य में है वही शक्तियाँ अभव्य में हैं । तभी तो केवलज्ञानावरण भव्य के भी लगा जिससे केवलज्ञान नहीं हो रहा और केवलज्ञानावरण अभव्य के भी लगा जिससे ज्ञानावरण नहीं हो रहा । भव्य और अभव्य जीवों में जहाँ एक स्वरूप है फिर और की तो कहानी क्या ? भव्य-भव्य उनमें भी ये मेरे हैं, ये पराये हैं, ये भिन्न हैं, ये गैर हैं, यह प्रतीति से भेद नहीं रहता । यही संकट है । इस पर संकट रात दिन चला करते चले जा रहे हैं और ख्याल तक नहीं करते कि हम स्वयं संकटों को रोज-रोज पनपा रहे हैं । कोई इन संंकटों को देहाती असभ्य बनाकर सहता है और कोई इन संंकटों को सभ्य, नेता, चतुर कहलाकर सहता है । यही अंधेरा है, यह मोह मिथ्या अंधकार है, इसे चंद्र और सूर्य भी नष्ट नहीं कर सकते, किंतु एक सम्यग्ज्ञान से यह नष्ट होता है ।