वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 566
From जैनकोष
सुतस्वजनदारादिवित्तबंधुकृतेऽथवा ।आत्मार्थे न वचोऽसत्यं वाच्यं प्राणात्ययेऽथवा ॥566॥
अपना परम कर्तव्य आत्मरक्षा ― आत्मा की रक्षा करना आत्मा का परम कर्तव्य है, आत्मा की रक्षा होती है निर्मल आशय रखने से । पुत्र, कुटुंब, स्त्री, धन, मित्र अथवा अपने इंद्रिय पोषण के लिए लोग असत्य बोलते हैं लेकिन इन कार्यों के लिए भी चाहे प्राण चले जायें पर असत्य न बोलना चाहिए ऐसा प्रभु का उपदेश है । जिन वचनों से दूसरे जीवों का अहित होता हो ऐसे वचन न बोलना चाहिए । चूँकि ज्ञानी पुरुष को अपने ज्ञान का परिचय है तो वही बात सबके लिये चाहता है । सब सुखी हों, सब ज्ञानदृष्टि में लगें, सबकी ज्ञानदृष्टि सत्य बने, किसी को दु:ख न हो ऐसी भावना ज्ञानी रखता है । जो दूसरों के हित की भावना रखे वह अहितकारी वचन कैसे बोल सकता है ॽ अहितकारी वचन प्राण भी जा रहे हों पर न बोलें । जो व्यक्ति असत्य भाषण करते हैं, दूसरों की निंदा चुगली में लगे रहते हैं उनको न प्रभु का ध्यान है, न आत्मा का ध्यान है । जो कल्याणार्थी नहीं हैं वे प्राप्त नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनका आशय ही खोटा है ।