वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 606
From जैनकोष
एकाक्यपि नयत्येष जीवलोकं चराचरम्।
मनोभूर्भंगमानीय स्वशक्त्याऽव्याहतक्रम:।।
काम द्वारा जगत की अवज्ञा- इस लोक में एक मात्र काम ही ऐसा वीर है कि जिसका अचिंत्य पराक्रम है और जिसने अवज्ञा से ही अज्ञानमात्र से इस जगत को पाँव तले दबा रखा है। जैसे कोई किसी को वश कर ले उसी प्रकार से काम ने लोक के समस्त प्राणियों को वश कर लिया है। जो काम के वश नहीं ऐसे योगिराज तीर्थकर आदिक महापुरुष ही परमविजेता हैं। साहित्य में एक जगह कवि ने लिखा है कि कामदेव और रति ये दोनों वन में विहार कर रहे थे कि एक जगह पारसनाथजिनेंद्र योगिराज की अवस्था में ध्यानस्थ बैठे हुए थे। तब रति ने कामदेव से कुछ पूछा और कामदेव ने रति को उत्तर दिया- कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी ऊंहूं प्रतापी प्रिये, तर्हि विमुंच कातरमते शौर्यावलेपक्रियां। मोहोऽनेन विर्निजित: प्रभुरसौ तत्किंकरा: के वयं, इत्येवं रतिकामजल्पविषय: पार्श्वो जिन: पातु न:। रति पूछती है कि हे नाथ ! अयं क:? यह कौन है? तो कामदेव उत्तर देता है कि जिन:। ये जिनेंद्रदेव हैं। तो रति पूछती है कि यह भी तुम्हारे वश में हैं कि नहीं? तो काम उत्तर देता है नहीं ये हमारे वश में नहीं है। तब रति कहती है कि यदि यह तेरे वश नहीं हैं तो हे कायरमते ! हे कायरकाम ! अब तुम अपने विक्रम का अभिमान छोड़ दो। यह तो तुम्हारे वश ही नहीं है। तो काम उत्तर देता है कि इस नाथ ने मोह को जीत लिया है। तब हम किंकर इन पर क्या अधिकार कर सकते हैं। इस प्रकार जिसके संबंध में काम और रति की वार्ता चल रही है वे पार्श्वजिनेंद्र हम सबकी रक्षा करें। दिखाया यह है इस कविता में कि काम के जो वश न हो वह पराक्रमियों में श्रेष्ठ माना गया है। यह सब बात बनती है विवेक से, ज्ञान के प्रकाश से, किंतु विवेकशील पुरुष जगत में अत्यंत विरले हैं। इस कामदेव ने जगत के सर्वप्राणियों को अपने वश किया है। आत्मध्यान के पात्र वे पुरुष होते हैं जो ऐसे लोकविक्रमी काम पर भी अपने विक्रम का प्रयोग कर लें। जब तक कामवासना पर विजय नहीं प्राप्त होती तब तक धर्मपालन की दिशा में विधिवत् प्रवेश नहीं होता।