वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 619
From जैनकोष
अपि मानसमुत्तुंगनगश्रृंगाग्रवर्तिनाम्।
स्मरवीर: क्षणार्द्धेन विधत्ते मानखंडनम्।।
काम के नवम और दशमवेग में प्राणसंदेह व प्राणवियोग- काम के 9 वें वेग में प्राणों का भी संदेह हो जाता है कि मेरे प्राण रहेंगे भी या न रहेंगे, जिंदा रह सकेंगे या न रह सकेंगे। व्यर्थ की केवल मन की वासना से दिल पर इतना तीव्र असर हो जाता कि उसे अब प्राणों का भी संदेह होने लगा। जैसे आर्थिक घाटा या इष्टवियोग या अनहोनी बात गुजरने पर दिल पर इतना तीव्र असर होता कि वह पुरुष यह अंदाज कर लेता है कि अब मेरा जीना कठिन है। यों तो काम के 9 वें वेग वाले के प्राणों का संदेह हो जाता है कि अब मेरे प्राण रहेंगे या नहीं। और जब किसी चीज में संदेह हो जाता तो जो बात अनिष्ट है उस पर ज्यादा बल देने लगता है। मैं अब जिंदा रहूँगा या न रहूँगा, ऐसा संदेह होने पर कि मैं जिंदा न रहूँगा, इस ओर ध्यान ज्यादा जाता है। जो बात अनिष्ट होती है उसकी ओर बुद्धि विशेष जाती है संदेह होने पर। तो यों काम के 9 वें वेग में इस मनुष्य को अपने प्राणों का भी संदेह हो जाता है और 10 वें वेग में अपने प्राण भी छोड़ देता है, मरण हो जाता है।
काम के वेगों का अनर्थ- जैसे सर्प के डसने पर 7 वेग होते हैं, 7 बार मेहा फूटती है इसी तरह इससे भी कठिन वेग काम से व्यथित मनुष्य के 10 वेग होते हैं और अंत में यह अपने प्राण गंवा देता है। ऐसे ही 10 वेगों से आक्रांत हुआ प्राणी इन वेगों से दबा हुआ है। वह मनुष्य यथार्थ तत्त्व को नहीं देख सकता। वस्तु का स्वरूप क्या है, इसकी ओर उसका चित्त नहीं जाता। जब लोकव्यवहार का ही ज्ञान नहीं रहता तो परमार्थ का ज्ञान कैसे हो? कुछ समय पहले लोगों में इतना विवेक बना रहता था कि जिससे लोकलाज बनी रहती थी। कोई लड़का माता पिता के सामने स्त्री संबंधी बात न करता था, सगाई संबंधी बात हो तो उसमें कुछ भी संदेश नहीं पहुँचा सकता था। और, बच्चे हो जाने पर भी अनेक वर्षों तक माता पिता के सामने बच्चे को न लेता था, इतनी लोकलाज, इतना विवेक था, उनमें मोह का कम वेग रहता था। आज देखते हैं तो लड़का ही कन्या देखे, सगाई पक्की करे, विवाह हुआ कि वे दोनों सड़कों पर एक साथ घूमने जाते। और, और क्या क्या बातें होती हैं? भले ही वह आज की सभ्यता मान ली जाय लेकिन यह तो कहना ही होगा कि इस संबंध वाली लाज नहीं रही।
कामवेगों में परमार्थज्ञान की असंभवता- यहाँ यह बात बतला रहे हैं कि जब काम के इस वेग में लोकव्यवहार का भी ज्ञान नहीं रहा तब परमार्थ का ज्ञान कैसे हो, आत्मा के स्वरूप का बोध तो होगा ही क्या? जैसे लोकलाज जब यहाँ व्यवहार में ही नहीं रही तो उसका दुष्परिणाम तो यह निकला कि माता पिता के आदर में कमी हो गयी। कभी बहू का माँ से झगड़ा हो जाय तो वह लड़का अपनी माँ का ही दोष देखेगा। और स्पष्ट शब्दों में माँ को ही बुरा कहेगा। कैसे ये बातें निकल आती हैं लड़के से, दूसरे लोग इस पर आश्चर्य करते हैं, लेकिन जिसके लोकलाज ही नहीं रही, विनयभाव ही नहीं रहा और एक संबंध की ओर ही बेखटके प्रगति बनायें तो ये सब बातें होती हैं, वे माता पिता का क्या आदर करेंगे? यों ही समझिये कि जब कामवेग में लोकव्यवहार भी नहीं रख सका, पागल बना, बेहोश बना और अंत में प्राण भी खो दिया तो ऐसे विकट वेदना वाले पुरुष के परमार्थ ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान कैसे हो?