वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 818
From जैनकोष
नि:संगोऽपि मुनिर्न स्यात्यमूर्च्छ: संगवर्जित:।
यतो मूर्च्छैव तत्त्वज्ञै: संगसूति: प्रकीर्तिता।।
मूर्छा से परिग्रह की सूति- जो मुनि नि:संग हो अर्थात् बाह्यपरिग्रहों से रहित हो, फिर भी परिग्रहों में ममता करता हो तो वह निष्परिग्रह नहीं कहला सकता, क्योंकि तत्त्वज्ञानी विद्वानों ने ममत्व परिणाम को ही परिग्रह की उत्पत्ति का साधन माना है। जो परिग्रही है वह निष्परिग्रहता का भाव नहीं समझ सकता है। एक कथा आई है कि एक मुनिराज किसी नगर में चातुर्मास कर रहे थे तो नगर से बाहर किसी अच्छे स्थान पर किसी वृक्ष के नीचे चातुर्मास का स्थान चुना। नगर का एक सेठ भी जो बहुत बड़ा धर्मात्मा था उसने भी यह नियम लिया कि मैं चार महीने मुनिराज के समीप निवास करूँगा पर मेरा लड़का कुपूत है और व्यसनी है, यह सोचकर उसने घर का जो कीमती द्रव्य था हीरा, जवाहरात, सोना, चाँदी वगैरह उसे एक हांडे में भरकर उसी पेड़ के नीचे गाड़ दिया। यह बात किसी तरह से उस कुपूत को मालूम हो गई थी, सो चातुर्मास के बीच में ही किसी दिन मौका पाकर वह उस हंडे को निकाल ले गया। जब चातुर्मास समाप्त होने को हुआ, साधु के विहार करने का अवसर आया तो सेठ ने उस स्थान पर देखा तो वह हंडा न मिला। सेठ ने सोचा कि यहाँ हम और इन साधु के अलावा कोर्इ रहता न था, और कोई नहीं ले गया, इन्हीं साधु महाराज की इसमें कुछ करतूत है सो साधु से वह खुले शब्दों में तो न कह सका, पर कुछ कहानियों के द्वारा उस बात को कहा। उसमें यही बात झलकती थी कि इन साधु महाराज ने हमारा हंडा खोद निकाल लिया है। साधु सेठ के मन की सब बातें समझ रहा था। तो साधु ने भी उत्तर में कुछ कथायें ऐसी कही कि जिसमें यह भाव भरा था कि अरे सेठ वह तेरा भ्रम है। इतने दिनों तक तूने धर्मकर्म किया, पर अब तू अपने गुरु पर दोष लगाकर इतना अपराध कर रहा है कि जिसे कुछ कहा नहीं जा सकता।
अविवेचित कार्य में पछतावा- उस सेठ की और उन मुनिराज की कहानियाँ बड़ी रोचक हैं जिनमें से एक कथा सुन लीजिए- कोर्इ घर की मालकिन पानी भरने के लिए कुवें पर गई, घर पर उसका बालक सो रहा था। वहीं एक पालतू नेवला रहता था, वह बड़ा स्वामीभक्त था, खूब साँप, छछूँदर आदि जीवों से घर की रक्षा करे। बालक सो रहा था आँगन में, वहाँ एक सर्प आया तो नेवले ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये और यह सोचकर कि मैंने बड़ा अच्छा काम किया है, इस सर्प को मारकर अपनी मालकिन के बच्चे को बचा लिया है, मालकिन मेरे ऊपर बहुत प्रसन्न होगी, वह अपने वैसे ही मुँह जैसा उस खून से लाल हुआ था, दरवाजे पर आ गया। जब मालकिन जल भरकर लाई तो देखा कि नेवले का मुख खून से लथपथ है, सोचा कि मेरे बच्चे को इसने काट डाला होगा, सो झट हाथ में जो घडा लिए थी उसे उस नेवले के सिर पर पटक दिया। नेवला मर गया। जब मालकिन अंदर जाकर देखती है तो चारपाई पास सर्प के खंड-खंड पड़े हैं और बच्चा चारपाई पर खेल रहा है। ऐसी अपनी करतूत पर मालकिन बहुत पछताई।
विरक्ति की घटना- सब कथा सेठ का वह कुपूत लड़का भी सुन रहा था। उस कथा को सुनकर उसके एकदम वैराग्य जगा कि धिक्कार है इस परिग्रह को जिस परिग्रह के पीछे गुरुजन पर भी शंका की जाती है, एकदम विरक्ति आयी और हाथ जोड़कर बोला- महाराज वह घड़ा तो मैंने खोद लिया था, घर में रखा हुआ है, अब सेठ जी जायें, घर में रहें और उस वैभव की रक्षा करें, मुझे तो अब सब वैभव से कुछ प्रयोजन नहीं रहा, मुझे तो आप दीक्षा दीजिए, मेरा भाव इस संसार से विरक्त हो गया है।
निष्परिग्रहता से समृद्धिलाभ- प्रयोजन यह है कि यह परिग्रह ऐसा है कि जिस भाई के पास पहुँचे वह दूसरे भाई के प्रति नाना विकल्प करता है। ये तो 10 प्रकार के परिग्रह हैं। इन परिग्रहों में जो मूर्छा का परिणाम आये, विकार भाव जगे, वे सब हैं अंतरंगपरिग्रह। शल्य तो अंतरंगपरिग्रह की होती हैं, पर अंतरंगपरिग्रह न रहे ऐसी स्थिति लाने के लिए बाह्यपरिग्रह छोड़ देते हैं। कोई पुरुष ऐसा सोचे कि परिग्रह तो अंतरंग ही कहलाते। बाह्यपरिग्रह बने रहें तो भी ऐसी स्थिति बन जायगी कि उसमें मूर्छा परिणाम न जगे, आत्मध्यान के पात्र बने रहें, यह सोचना छलपूर्ण तर्क है। जो साधु इन बाह्य तथा आभ्यंतर 24 प्रकार के परिग्रहों को त्यागकर नि:संग हैं वे मोक्षमार्गी हैं। निष्परिग्रहता से चिंताएँ दूर होती हैं, और जिसका निश्चिंत जीवन हो वही आत्मा का ध्यान कर सकता है। जो इस आत्मा का ध्यान कर लेता है उसको सर्वसमृद्धियाँ प्राप्त होती हैं। जीवन में एक आत्मध्यान ही शरण है, अन्य कुछ शरण नहीं है।