वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 839
From जैनकोष
अत्यक्तसंगसंतानो मोक्तुमात्मानमुद्यत:।
बंधंनपि न जानाति स्वं धनै: कर्मबंधनै:।।
परिग्रहवासनावासित पुरुष का अविदित धन कर्मबंधन- जिसने परिग्रह की वासना नहीं छोड़ी है ऐसा पुरुष अपने को मुक्त करने के लिए उद्यम भी करता है परंतु मुक्ति का काम रंच भी नहीं होता और परिग्रह के कारण अपने आपको कर्मों से दृढ़ बाँध लेता है, इस बात को नहीं जानता। कुछ भी आशा रखकर धर्म किया जाय तो वह जानबूझकर अपने को दृढ़ कर्मों से बाँधता है। हाँ कोई तपश्चरण और ज्ञान ऊँचा हो, परिणामों में निर्मलता विशेष हो और किसी समय थोड़ा सा परिणाम गिर जाय और कुछ चाह ले कि मैं अमुक स्वर्ग में देव हो जाऊँ तो वह बात हो तो जायगी, पर वह बात इस ढंग से हुई कि यदि वह न चाहता तो उससे भी कितना ही उच्च पद प्राप्त करता। पर मन चाहने से कुछ होता नहीं है। तो जिसने देवगति के सुख चाहा है उसने सांसारिक सुख ही तो चाहा, वैषयिक सुख ही तो चाहा। जैसे मनुष्यों के इंद्रिय विषयों के सुख हुआ करते हैं वैसे ही वे भी सुख हैं। ऐसी उसकी चाह है तो वह पाप है। और, ऐसा पाप का परिणाम रखने वाला पुरुष चाहे कितना ही धर्म भक्ति करे उसके पुण्यकर्म नहीं रहा, पापकर्म ही विशेष बंधा। ऐसा तो कोई भी पुरुष होगा जो केवल पाप ही पाप बाँधता रहता हो, कभी पाप का बंध अधिक किया तो कभी पुण्य का बंध अधिक किया। ऐसा कोई भी मनुष्य न मिलेगा जिसने वीतराग होने से पहिले पुण्य ही पुण्य बाँधा हो, पाप जरा भी न बाँधा हो। चाहे साधु भी हो, पर उसने पहिले पुण्यकर्म बाँधा, और ज्ञानावरणादिक घातिया कर्मों का बंधन तो चल ही रहा है, वे सब पाप प्रकृतियाँ हैं। तो जो पुरुष परिग्रह की वासना रखे हुए है और अपने को मुक्त करने के लिए कुछ धार्मिक श्रम कर रहा है तो वह यह नहीं जान रहा है कि मैं अंतरंग में तो दूषित परिणाम रखे हुए हूँ, मुझे मुक्ति कहाँ से मिलेगी? मैं तो दृढ़ कर्मबंधन को बाँध रहा हूँ। परिग्रह के लोलुपी पुरुष प्राय: अंधे के समान होते हैं। सत्य बात उन्हें दिखती नहीं है। जो पुरुष विषयों से अंधा होता है, वह आँखों के अंधे पुरुष से भी अंधा है। आँखों का अंधा पुरुष तो मात्र आँखों से न देख पायेगा, पर उसका ज्ञान तो जागृत है, वह विवेक अविवेक की बात तो समझ सकता है। हित अहित की तो जानकारी है लेकिन जो विषयों से अंध पुरुष है उसका विवेक नष्ट हो जाता है। हित अहित का बोध नहीं रहता। तो जो विषयों का अंध है वह आँखों के अंध से भी अधिक अंधा है, ऐसे पुरुष को आत्मध्यान की कहाँ पात्रता हो सकती है?
परमार्थ स्वगृह में ही शरण्यता की प्राप्ति- शरण इस जीव को अपने आत्मा का ध्यान ही है। जैसे कोई पुरुष दूसरों के घर में जाया करे और लोग उसे मार भगाया करें तो कितने ही पर-घरों में वह चला जाय पर उसे कोई न रखेगा, कोई उससे न कहेगा कि ठहरो यह तुम्हारा ही तो घर है। वह तो जब अपने ही घर में पहुँचेगा तभी उसे विश्राम मिलेगा। पर-घर फिरते हुए कितना ही समय व्यतीत हो जाय पर वहाँ क्लेश ही क्लेश पायगा, निज घर में ही जब आयेगा अर्थात् जब निज ज्ञानानुभूति में आयगा तब ही उसे विश्राम मिल सकता है। जो पुरुष परिग्रह की वासना मन में रखे हैं, परिग्रह के लोलुपी हैं वे तो आँखों के अंधे से भी महान अंधे हैं। जिनके परिग्रह का त्याग है वे ही पुरुष साधु कहला सकते हैं। एक यह साधुता की निशानी है। केवल शरीर मात्र ही जिनका परिग्रह रह गया, जो कि छोड़ा नहीं जा सकता था। और तो सब परिग्रह छूट गए, पर इतनी उत्कृष्ट आत्मसाधना अभी नहीं कर पायी कि इस शरीर तक का भी परिग्रह त्याग दें। शरीर के परिग्रह का त्याग तो वह है कि फिर शरीर न धारण करना पड़े। अभी तो इतना विवेक जग रहा है कि हित अहित की बात समझ रहे हैं, वे इस शरीर का यों ही त्याग करना, अर्थात् आत्मघात करना पसंद नहीं करते। यद्यपि वे जानते हैं कि शरीर सब दु:खों की जड़ है और शरीर से ही इस आत्मा की बरबादी है, पर इस शरीर को व्यर्थ में मिटा देना अच्छा नहीं समझते। वे तो इस शरीर को सदा के लिए मिटाना चाहते हैं। यह शरीर मिटेगा रत्नत्रय के प्रताप से। सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की परिपूर्ण सिद्धि बने इस यत्न में रहते हैं योगीजन। उनके बाह्य धन परिग्रह का कुछ भी विकल्प नहीं जगता। तो जो परिग्रह की वासना से दूर हैं ऐसे पुरुष ही सही मायने में साधु हैं और वे ही पुरुष इस नि:संगता के कारण अपने आत्मतत्त्व का ध्यान करके अपने को मुक्त कर सकेंगे। जिन्हें अन्य पुरुष के परिग्रह की लालसा है वे तो चक्षु से अंधे पुरुष से भी महान अंधे हैं। यह तो साधु संतों की बात है पर गृहस्थों को भी जिनका निर्णय बना हुआ है कि परिग्रह तो साक्षात् दु:ख की खान है, इसका संग अधिक करना तो अपने आपको झंझटों में फंसाना है। वे गृहस्थ भी धन्य हैं जो अपना अधिक परिग्रह नहीं बढ़ा रहे हैं, थोड़ा बहुत जो भी पास में है उसी में गुजारा करते हैं।
मोह के श्रम में संकटों का स्वामित्व- लोग तो व्यर्थ में इन परिग्रहों के पीछे होड़ लगा रहे हैं, उसमें यही बात पड़ी है कि वे लोग यह चाहते हैं कि मैं कुछ अच्छा धनिक पुरुष कहलाऊँ। लेकिन सोचिये तो सही ऐसी आशा जैसी कि इन मलिन पुरुषों से रखी जा रही है यदि प्रभु से आशा रखी जाती तो उससे कुछ अपनी भलाई भी होती। जो पुरुष विषयकषायों से मलिन हैं, कर्मों के प्रेरे हैं, पापी हैं, अधम हैं, संसार में रुलने वाले हैं ऐसे लोगों से आशा रख रहे हैं कि ये लोग मुझे कुछ अच्छा कह दें यह कितनी बड़ी भूल है? यदि यह आशा रखते कि मैं भगवंतों के ज्ञान में अच्छा जंच जाऊँ, ऐसी आशा रखते तो भला था। इस मलिन मायामयी मनुष्य समूह से अपने आपकी बड़ाई की इच्छा रखना वह तो संसार में पतन करने वाली वासना है। किसलिए धनसंचय की होड़ लगायी जाय? अरे पुण्योदय से जो प्राप्त हो उसी में विभाजन करके सहर्ष जीवन बितायें। धन वैभव की आशा रखने से, तृष्णा रखने से अनेक नुकसान हैं, एक तो नुकसान यह है कि वर्तमान में जो मौजूद धन है उसको भी आराम से नहीं भोग सकते हैं। और फिर दूसरों का धन ले लेना यही तो धन संचय का अर्थ है। जो दूसरे के पास है वह मेरे पास आ जाय, इसमें तो दूसरे को सताने का भाव भरा हुआ है और फिर वह अपने अधीन नहीं है। जो आना होता है सो ही आता है ये जो अनेक विह्वलताएँ उत्पन्न हो जाती हैं वे ज्ञान की कमी के कारण हो जाती हैं। अरे किसी तरह से जीवन तो बीता ही जा रहा है। खूब धर्मपालन कर लें, ज्ञानार्जन कर लें, और उस ज्ञानभावना से हम अपने आपको विशुद्ध निर्मल बना लें। ऐसा जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इस ही लक्ष्य से आत्मा का कल्याण है। धनसंग्रह की भावना समस्त अनर्थों का मूल है। यों परिग्रह से विरक्त रहता हुआ गृहस्थ गृहस्थी में रह रहा है- तो वह मोक्षमार्ग में चल रहा है, उसका भविष्य उज्ज्वल है।