वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 840
From जैनकोष
अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्वं वा सुराचल:।
न पुन: संगसंकीर्णो मुनि: स्यात्संवृतेंद्रिय:।।
परिग्रहसंकीर्ण मुनि के संवृतेंद्रियता का अभाव- मुनि भी हो और यदि परिग्रह से संकीर्ण हो, कुछ परिग्रह का लेप हो तो वह भी जितेंद्रिय नहीं हो सकता है। चाहे कभी सूर्य भी अपना प्रकाश छोड़ दे, और सुमेरुपर्वत भी अपनी स्थिरता छोड़ दे, चाहे यह संभव हो जाय परंतु परिग्रहसहित मुनि कदापि इंद्रियनिरोध करने वाला नहीं हो सकता। ऐसा यद्यपि संभव तो नहीं है कि सूर्य कभी अपना प्रकाश छोड़ दे, जैसे यहाँ की पृथ्वियां हैं और और पदार्थ हैं वे प्रकाशहीन हैं इस तरह सूर्य भी कभी प्रकाशहीन हो जाय, यह तो न हो सकेगा, और सुमेरुपर्वत अनादिनिधन है, ज्यों का त्यों रहता है वह वहाँ से हट नहीं सकता, घट बढ़ नहीं सकता, नष्ट भ्रष्ट नहीं हो सकता किंतु आचार्यदेव संभावना अलंकार में कह रहे हैं कि चाहे यह असंभव बात भी संभव हो जाय पर परिग्रहसहित मुनि इंद्रिय का सम्वरण नहीं कर सकता। और जो इंद्रियविषयाधीन है उस पुरुष के चित्त की स्थिरता नहीं बन सकती, और जब तक चित्त की स्थिरता नहीं होती तब तक आत्मा का ध्यान नहीं होता। कोई कोर्इ लोग कभी शंका करते हैं कि हम पूजा में बैठते हैं तो मन बीसों जगह जाता है उसका कारण क्या है? कारण यही है कि जब किसी एक पदार्थ में हम प्रयोगात्मक उपयोग नहीं दे रहे और बैठे भगवान का नाम भजन करने के लिए तो उस समय चूँकि तत्त्व में तो मन नहीं लग रहा, अतएव तत्त्व में चित्त नहीं है और बाह्यपदार्थों में, कामकाजों में हम अलग बैठे हैं ऐसी स्थिति में यह चित्त उन सब जगह जायगा जहाँ अपने में संस्कार बसा हुआ हो। चित्त बाहर न जाय, अपने आत्मा में मग्न हो जाय उसके लिए विषयों को विजय करना होगा। इंद्रियविषयों में उपयोग न लगे और कषायों में भी चित्त न जाय ऐसी स्थिति करनी होगी। यह बात बन सकेगी परिग्रह के त्याग से। जिस गृहस्थ को जितना भी परिग्रह लगा है, लाख वाला लाख जैसी चिंता उद्वेग रखता है, करोड़ वाला करोड़ जैसी चिंता उद्वेग रखता है। इस परिग्रह का संबंध ही चित्त की व्यग्रता को उत्पन्न कर देता है। राजा महाराजा लोग इतने व्यग्र हो जाते कि उन्हें रात्रि को निद्रा भी नहीं आती और एक गरीब जो चार आने आठ आने रोज कमा पाता है और उसमें ही गुजारा करके संतुष्ट रहता है, तो खूब अच्छी नींद से सोया करता है। जिसे जितना वैभव मिला है उसकी उतनी अधिक तृष्णा बढ़ती है और जब किसी भी बात की तृष्णा रहती है तो चित्त उद्विग्न रहता है। चाहे धन की चिंता हो, किसी भी प्रकार की चिंता हो इस जीव को विह्वल बना देती है। जिसके साथ परिग्रह लगा है वह ध्यान करने का पात्र नहीं बन सकता ऐसा यहाँ कह रहे हैं। इंद्रियविषयों का विजयी भी नहीं बन सकता। जिन्हें आत्मध्यान की चाह हो उनका कर्तव्य है कि वे परिग्रह से पूर्ण प्रयत्न भर दूर रहें। लोक में आत्मध्यान ही एक मात्र जीव का शरण है बाहर में कहाँ दृष्टि दें? अपने को निष्परिग्रह बनाने का अधिकाधिक प्रयत्न करें। गृहस्थावस्था में यह परिग्रह दूर नहीं किया जा सकता है तो मान्यता तो सही बनायी जा सकती है। अणुमात्र भी मेरा कहीं कुछ नहीं है ऐसी बात सत्य भी है और इस रूप ही अपना निर्णय बना लें तो इस निर्णय के कारण गृहस्थी में ही यथा संभव आनंद रह सकता है।