वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 848
From जैनकोष
संगपंकात्यमुत्तीर्णो नैराश्यमवलंबते।
ततो नाक्रम्यते दु:खै: पारतंत्र्यै: क्कचिन्मुनि:।।
परिग्रह पंक से समुत्तीर्ण मुनि की अदु:खरूपता- जो मुनि परिग्रहरूपी कदम से निकल गया हो वही निष्परिग्रहता का आलंबन ले सकता है। निष्परिग्रहता, निराश्रता, किसी भी परपदार्थ की इच्छा न रही यह बात तब संभव है जब सम्यज्ञान जगा हो, मूर्छा परिणाम हट गया हो, और परिग्रह का त्याग कर दिया हो। साधुजन परिग्रह के सर्वथा त्यागी होने से इतना निष्पृह रहते हैं कि वे अपने उदरपूर्ति के लिए भी कुछ परिग्रह नहीं रखते और साथ ही चूंकि आत्महित की भावना है अतएव शुद्ध निर्दोष सविधि आहार मरने की प्रतिज्ञा रखते हैं। कदाचित् कहीं विधिपूर्वक आहार मिल जाय तो अपने ही हाथ में ग्रास लेकर भोजन कर लेते, बर्तन तक का उपयोग नहीं करते। इतनी निष्पृहता है कि किसी भी परिस्थिति में शरीर का श्रृंगार, आराम मौज मानना ये विकल्प नहीं रखते, केवल एक ज्ञानानंदस्वरूप आत्मप्रकाश के ध्यान में ही धुन बनी रहा करती है, तो यह परिग्रहत्याग का ही तो फल है। जब निष्पृहता जग जाती है तो फिर वह मुनि परतंत्रता के दु:ख से नहीं घेरा जा सकता है। जीवों को दु:ख केवल परतंत्रता का ही है। चित्त में यह भाव आया कि मैं परतंत्र हूँ, दूसरे के अधीन हूँ बस इस ही भाव का फल है दु:ख। यह अज्ञानी यह विचार नहीं करता कि इस संसार में स्वतंत्र है कौन, जिसको निरखकर मैं ऐसा मानूँ कि यह देखो एकदम स्वतंत्र है और मैं परतंत्र हूँ। यहाँ सभी परतंत्र हैं। मालिक, नौकर, स्त्री, पुत्र, पिता आदिक सभी परतंत्र है, और जो अधिकारीजन हैं, प्रधानमंत्री हैं वे भी परतंत्र हैं, उनका भी प्रोग्राम समिति बनाती है। इस समय यहाँ बैठेंगे, उस समय वहाँ जायेंगे। तो स्वतंत्र है कौन यहाँ जिसको निरखकर हम ऐसी कल्पना बनायें कि मैं बड़ा परतंत्र हूँ, मुझे बड़ा क्लेश है। सब किसी न किसी ढंग से परतंत्र हैं और इस संसार अवस्था में, इन दृश्यमान मनुष्यों में, इन लौकिक महिमा वाले राजा महाराजाओं में जिनको हम आप स्वतंत्र समझते हैं वे इन दीन दरिद्र लोगों की अपेक्षा भी अधिक परतंत्र हैं, और परतंत्रता ही दु:ख है। सबके दु:ख न्यारे-न्यारे किस्म के हैं, और जो जितना धनिक है, जो जितने परिग्रह का है या जो जितना प्रतिष्ठित है या जो जितना उच्च अधिकारी है वह उतना परतंत्र है, उसका क्लेश और भी अधिक है। जहाँ परपदार्थों में आसक्ति हो, अपने नाम और यश में प्रेम हो वहाँ परतंत्रता आ ही जाती है।
परिग्रहपरिहार होने के कारण प्राप्त नैराश्यामृत के पान से पारतंत्र्य का अभाव- मुनिजन सर्व से अपने को न्यारा अनुभव करते हैं, जो निष्परिग्रह हैं उन्हें परिग्रह की कोई चाह नहीं, यश कीर्ति की भी उन्हें रंच चाह नहीं है। ऐसे निष्परिग्रह साधु ही नैराश्य के बल पर अपनी स्वतंत्रता का आनंद भोग सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जब तक किसी परपदार्थ की आशा लग रही है तब तक पराधीनता बन रही है। जिस पदार्थ की आशा रखता, प्रथम तो उसी के अधीन यह बन गया, अब उसकी प्राप्ति के लिए जो जो साधन चाहियें जिन जिन पुरुषों को प्रसन्न रखना चाहिये अब उन साधनों का यत्न किया जाने लगा, तो जितनी भी परतंत्रतायें हैं उन सबका कारण है परपदार्थों की आशा रखना। जो आशा का परित्याग कर देते हैं ऐसे मुनि स्वाधीन हैं, उन्हें परतंत्रता का दु:ख नहीं है। और, देखिये ऐसी स्वाधीनता मिलने पर यदि कोई दु:ख भी आ पड़े तो वह दु:ख तो अच्छा माना जाता है और परतंत्रता में रहकर कोई सुख भी मिले तो वह सुख अच्छा नहीं माना जाता। स्वाधीन रहकर क्लेश आये तो किसी पर नाराजी तो नहीं आ सकती कि इसने मुझे क्लेश दिया। आ गया, उदय है कर्म का, समता से सहन कर लेगा जहाँ पर का संबंध बना हो और फिर कोई क्लेश आये तो वहाँ दु:ख अनुभवा जाता है। यह संयमी मुनि समस्त परिग्रहों से रहित है अतएव निष्परिग्रह है और निष्परिग्रह होने के कारण अपने स्वाधीन स्वरूप का अनुभव करता है वह दु:ख से नहीं घेरा जा सकता, वह सुखी है। चित्त में यह भाव लाना चाहिए कि समस्त वैभव भिन्न चीजें हैं, उनमें मूर्छा का परिणाम रखने से शांति का मार्ग नहीं मिल सकता। अत: सब परपदार्थों की मूर्छा तोड़कर अपने आपको निष्परिग्रह ज्ञानानंदस्वरूप मात्र अनुभव किया करें।