वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 871
From जैनकोष
शक्रोऽपि न सुखी स्वर्गे स्यादाशानलदीपित:।
विध्याप्याशानलज्वालां श्रयंति यमिन: शिवम्।।
आशाग्नि ज्वलित इंद्र के भी सुख का अभाव- स्वर्ग का भी इंद्र हो, यदि आशारूपी अग्नि से जलता है तो वह सुखी नहीं है। लोभ कषाय की प्रबलता देवों में पायी जाती है। अब आप देख लीजिए, धन वैभव के या शारीरिक सुख दु:ख के झंझट उनके नहीं है, फिर भी लोभ कषाय के भार से वे देव भी पीड़ित रहा करते हैं। देवों में लोभ तृष्णा अन्य गतियों के जीवों से अधिक पायी जाती है। तो इंद्र भी हो कोई और आशा की दाह यदि जल रही है तो वह सुखी नहीं है। क्या है, यह जीवन एक फिल्म का चित्र है। जैसे फिल्म के चित्र में कुछ बताया ही तो जाता है जन्म लेकर अंत तक। ऐसे ही यह भी एक फिल्म है। उस फिल्म में एक घर में बैठाकर दिखाया जाता है और यहाँ की फिल्म को जहाँ चाहे बैठकर देख लेते हैं। जैसे हम उन चित्रों में यह सोचा करते कि यह बालक हो गया, यह इस इस तरह से बड़ा हुआ, फिर इस तरह का बना, ऐसे ही यहाँ भी सभी लोग यही सोचा करते कि यह पुत्र पैदा हुआ, यह कैसे पले, कैसे यह समर्थ बने। उस बच्चे के पीछे कितनी ही चिंताएँ लादी जाती है। बच्चे लोग बड़े बनने को तरसा करते हैं। वे भी बड़ों को देखकर यही चाहते हैं कि हम भी बड़े बनें और इनकी तरह से मालिक बनें। लेकिन बड़ा बनने में कितनी-कितनी चिंताएँ लादनी पड़ती हैं। और, बड़ा कहलाता भी क्या? पुण्यवंतों की सेवा करने का ही नाम बड़ा बनना है। पुण्यवंत जीवों की सेवा करते रहने में मोही जीव अपना बड़प्पन मानते हैं। वहाँ भी अनेक आपत्तियाँ आती हैं। तेल में जो बड़ा बनाया जाता है उसकी कुछ कहानी सुनो। घर में रखे हुए उड़द पहिले चक्की में दल दिये जाते हैं, फिर शाम को पानी में डाल देते हैं, रातभर फूलते हैं, फिर सुबह सिलबट्टे में उन्हें खूब रगड़ा जाता है, फिर उनमें नमक मिर्च डाला जाता है। फिर उसे गोल-मटोल बनाकर कड़ाही में जलते हुए तेल में डाल दिया जाता है। उसमें खूब पक जाने के बाद भी वह छुट्टी नहीं पाता है। महिलायें कुछ लोहे की सींक रखती हैं जिनसे बड़ों में छेद कर देती हैं। तो इतनी बातें बनती हैं तब कहीं वह बड़ा कहलाता है। ऐसी ही बात घर के बड़ों की भी है। एक नटखट नहीं, पचासों नटखट घर गृहस्थी में चला करते हैं तब वह बड़ा कहलाता है। ये तो सब आशा के मूल कारण से बातें उठी हैं। जहाँ आशा की तीव्र अग्नि जल रही है वहाँ घर गृहस्थी में मन के अनुकूल वातावरण भी मिल जाय, कुछ मौज भी मान ली जाय पर वहाँ भी विपत्ति है, और, वह मौज मानना विपत्तियाँ सहने की एक तैयारी है। अभी मौज मानेंगे तो आगे बड़ी आपत्तियों के क्लेश सहेंगे। लगातार कोई आपत्ति में रहें तो फिर आपत्ति सी नहीं रहती, सहन हो जाती है। यह मौज मानना तो उस आपत्ति का बीज है। कोई ऐसा हो कुटुंब में जिसकी वजह से रात दिन कष्ट ही कष्ट होता हो, उसके कारण बहुत सी आपत्तियाँ ही आपत्तियाँ मिली हों तो उसके मरने पर कोई ज्यादा दु:ख नहीं मानता। और, जिसके कारण कुछ मौज आता हो उसके वियोग में फिर यों लगता कि मेरी दुनिया ही नहीं रही। तो मौज बड़ी विपत्ति भोगने की एक तैयारी है, भूमिका है। यह आशा जिसके लगी रहती है वह इंद्र भी हो तो सुखी नहीं है, किंतु मुनिगण आशा की अग्नि की ज्वाला को बुझाकर मोक्ष का आश्रय कर लेते हैं, शांत हो जाते हैं, नैराश्यता का अवलंबन करके मुनिजन सर्वथा सुखी हो जाते हैं। मोहीजन जिन बातों में सुख मानते हैं वे क्लेश है। आशा, भोग, वैभव, संपदा ये सब मोहीजनों को प्रिय हैं, किंतु हैं ये सब कष्ट के स्थान।