वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 872
From जैनकोष
चरस्थिरार्थजातेषु यस्याशा प्रलयं गता।
किं किं न तस्य लोकेऽस्मिन्मन्ये सिद्धं समीहितं।।
आशा का प्रलय करने वाले जीवों के समीहित की सिद्धि- आचार्य महाराज कहते हैं कि जिस पुरुष के चित्त अचित्त पदार्थों में, सजीव अजीव वस्तुवों में आशा नष्ट हो गयी है उसको इस लोक में क्या क्या मनोवांछित सिद्धियाँ नहीं होती, अर्थात् सर्वसिद्धियाँ हो जाती हैं। इच्छा की पूर्ति होती है इच्छा के नाश में। इच्छा अपने इस उपयोग के थैला में भरते जायें रोज-रोज तो वह नष्ट नहीं होती, वह तो और बढ़ती जायगी। इच्छा न रहे उसी के मायने इच्छा की पूर्ति हो गयी। तो इस इच्छा के ही नाश से समस्त मनोवांछित कार्यों की सिद्धि है। किसी चीज की इच्छा न रही, समझो सब कुछ मिल गया। जिसे कुछ चाह है उसे अभी वह चीज मिली नहीं है तभी तो उसकी चाह है। यह आशा नष्ट हो जाय तो समस्त मनोवांछित सिद्धियाँ हो जाती हैं। एक कथानक है कि कोई ऐसा नगर था जिस नगर में लखपति करोड़पति लोग रहा करें। जिसके पास लाख का धन था वह एक दीपक जलाये, जिसके पास 1 करोड़ का धन था वह एक ध्वजा अपने द्वार पर गाड़े, जिसके पास 2 करोड़ का धन था वह 2 ध्वजा अपने द्वार पर गाड़े। तो एक सेठ के पास 99 लाख रुपये थे। वह सेठ भी एक करोड वाली एक ध्वजा लगाना चाहता था। सो सोचा कि एक लाख रुपये किसी तरह से और जोड़ लें तो एक ध्वजा लग जायगी। सो उसी दिन से उसने खाने पीने में कमी कर दी, नौकरों में कमी कर दी, फिर भी एक लाख का धन न जुड़ सका तो सोचा कि 1 लाख का धन कमाने के लिए कहीं व्यापार करने चलना चाहिए। सो वह कहीं परदेश चला गया। यहाँ घर के जब उस 99 लाख का धन कोई सम्हालने वाला न रहा तो सब स्वाहा हो गया। वहाँ पर सेठ ने खूब धन कमाया तो एक करोड़ रुपये जुड़ गए। उस एक करोड़ के उसने 4 रत्न खरीद लिए 25-25 लाख के और अपने घर के लिए चल दिया। समुद्री रास्ता था, डाकुवों का भय था, सो उसने क्या किया कि अपनी जाँघ की कुछ खाल खिचवाकर उसमें चारों रत्न भर लिया। जब वह बंदरगाह पर आया तो वहाँ से आने के लिए अब तो उसके पास कुछ और न था सो लोगों से कुछ धन माँगा, पर वहाँ अपरिचित जगह में कौन धन दे दे। एक गाँव का कोई व्यक्ति मिला, वह बोला कि हमारे साथ चलो, कुछ काम हमारे यहाँ करना तो हम तुम्हें धन देंगे।...क्या काम करना होगा?...हम लोग रसोई बनाते हैं तो तुम बर्तन माँज लिया करना।...बहुत अच्छी बात। अब वह सेठ बर्तन मांजने की नौकरी कर रहा है। खैर किसी तरह वहाँ से छुट्टी लेकर जब वह सेठ घर पहुँचा तो वहाँ कुछ भी न था। उन चारों रत्नों को खोला, जौहरियों को दिखाया तो बहुत-बहुत देखने के बाद जौहरियों ने यह तय किया कि इनमें तीन-तीन रत्न तो 25-25 लाख के हैं और एक रत्न 24 लाख का है। लो सेठ सोचता है कि मैंने खाना पीना छोड़ा, सारे आराम छोड़े, परदेश में भी खूब धक्के खाये, बर्तन भी मांजने पड़े, पर रहे 99 के 99लाख। हाय हमारी ध्वजा न लग पायी। तो जो आशा के वश रहते हैं उन्हें लाभ क्या होता है? जब जो होना है सो होता है। जिसकी आशाएँ नष्ट हो गर्इ उसके सर्वसिद्धि होती हैं। किसी हद तक गृहस्थ के भी राग रहे, आशायें न जगने पायें। तो उसके भी समझिये कि सर्वसिद्धियाँ हो गई।