वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 874
From जैनकोष
किमत्र बहुनोक्तेन यस्याशा निधनं गता।
स एव महतां सेव्यो लोकद्वयविशुद्धये।।
आशारहित प्राणियों की ही सेवनीयता- अधिक कहने से क्या लाभ? जिस पुरुष की आशा निधन को प्राप्त हो गई है वह बड़े-बड़े पुरुषों के द्वारा सेवनीय होता है। वे बड़े-बड़े पुरुष उसकी इसलिए सेवा करते हैं कि अपना यह लोक भी विशुद्ध बने और परलोक भी विशुद्ध बने। जीव यह स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप है। जो स्वभाव जिसमें नहीं होता वह अनेक उपाय करने पर भी प्रकट नहीं हो सकता। जैसे गेहुँवों में चने के अंकुर बनने की शक्ति नहीं है तो कितने ही साधन मिल जायें लेकिन उनसे चने के अंकुर न बन जायेंगे। जिस पदार्थ का जो स्वभाव है वही प्रकट हो सकता है। आत्मा आनंदमय हो जाता है और कुछ न कुछ अब भी आनंद का विकास बनाये रहते हैं। तो आत्मा में आनंद का स्वभाव है तब उसका विकास होता है। आत्मा स्वयं आनंदमय है। इसके आनंद का विघात एक आशा परिणाम ने किया है, परतत्त्व में आकर्षण की बुद्धि होने से जो पर का भार रहता है उस आशा परिणाम ने जीव के आनंदस्वरूप का घात किया। जिन संतों ने इस आशा पर विजय प्राप्त की उनके चरणों की सेवा बड़े-बड़े पुरुष भी भक्तजन दोनों लोकों की सिद्धि के लिए किया करते हैं, वे ही महान पुरुष हैं जिनकी आशा विनाश को प्राप्त हुई।