वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 875
From जैनकोष
आशा जन्मोग्रपंकाय शिवायाशाविपर्यय:।
इति सम्यक्समालोच्य यद्धितं तत्समाचर।।
आशा के परित्याग में ही हितलाभ- संसाररूपी कर्दम में फँसाने वाली यह आशा है और आशा का अभाव हो तो वह मोक्ष को उत्पन्न करने वाला है। आशा है संसार की जनक और आशा का अभाव हो तो संसार का अर्थात् विकारपरिणाम का अभाव हो जाता है तो इस आशा से जन्म मरण की परंपरा चलती है और आशा के अभाव से निर्वाण की प्राप्ति होती है। अब तू इन दोनों बातों का भली प्रकार विचार कर, जिसमें अपना लाभ हो उसका आचरण कर। यदि जन्म मरण में लाभ समझा हो तो अच्छी तरह विचार लेना अर्थात् पशु, पक्षी, मनुष्य, कीड़ा, मकौड़ा, पेड़ इत्यादि इन जीवों में शरीर धारण कर करके मरते रहना फिर जन्म लेना ऐसा यदि इष्ट हो तब तो इस आशा का आदर करो, आशा परिणाम को ही अपना सर्वस्वस्वरूप समझो और यदि इस बात में लाभ जंचा हो कि समग्र जन्म मरण के संकट दूर हों और केवल मैं अपने स्वरूप में ही मग्न रहूँ, विशुद्ध आनंदस्वरूप रहूँ, तो इस आशा के अभाव करने का प्रयत्न कर। आशा के अभाव का प्रयत्न यही है कि आशा रहित और आशा जैसे अनेक समस्त विकारों से रहित अपने आपके स्वरूप के कारण जो एक विशुद्ध ज्ञान परिणमन है उस ज्ञानमात्र को अपनी प्रतीति में लें, ऐसा निर्णय करें कि मैं समस्त विकारों से रहित केवल जाननहार स्वरूप हूँ, इस शुद्ध प्रतीति के बल पर इन समस्त आशा आदिक विकारों का अभाव हो जायगा। भेदविज्ञान बिना विकार नहीं मिट सकते हैं सो भेदविज्ञान के उपाय से आशा के अभाव को करें, इसमें ही अपना विशुद्ध लाभ है।