वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 906
From जैनकोष
निर्णीतेऽस्मिन्स्वयं साक्षान्नापर: कोऽपि मृग्यते।
यतो रत्नत्रयस्यैष: प्रसूतेरग्रिमं पदम्।।
रत्नत्रय का अग्रिम पद- इस आत्मा के स्वयं निर्णय किए जाने पर अन्य और कुछ भी यहाँ ढूँढ़ने में नहीं मिलता है। जब अपने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की दृष्टि होती है तो यहाँ अन्य कुछ नहीं मिलता है। देखिये इसी दृष्टि का हठ करके कोई तो यह कहते हैं कि यह आत्मतत्त्व सर्वत्र एक ही है। क्योंकि यहाँ कुछ नहीं मिला। तो कोई कहते हैं कि केवल एक ज्ञानमात्र ही दुनिया है। इस दुनिया में अजीव पदार्थ कुछ है ही नहीं, कोई कहते हैं कि यह दुनिया बस शून्य ही शून्य है। क्योंकि अपने आत्मा में आपका सही निर्णय करने पर यहाँ कुछ नहीं मिला ना तो ऐसी चर्या सुनकर कल्याणप्रेमीजन कुछ से कुछ अपना निर्णय बना सकते हैं, पर स्याद्वाद से इन सबका सही निर्णय होता है। जो लोग कहते हैं कि यहाँ और कुछ भी नहीं है, सब शून्य ही तत्त्व है तो उसका अर्थ है कि एक आत्मतत्त्व के सिवाय और सब शून्य है एक आत्मानुभव की स्थिति में। तो जब स्वयं आप ही आत्मा का साक्षात् निर्णय करते हैं तो केवल यह आत्मा ही प्रतीत होता है और रत्नत्रय की उत्पत्ति का मुख्य पद भी यह आत्मा ही है। सम्यग्दर्शन इस आत्मतत्त्व की दृष्टि से उत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञान इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व के अवलंबन से विकसित होता है। और सम्यक्चारित्र इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में ज्ञानरूप से बने रहने का नाम है। यों रत्नत्रय का उत्पादक भी यह आत्मतत्त्व है।