वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 915
From जैनकोष
नित्यानंदमयं शुद्धं चित्स्वरूपं सनातनम्।
पश्यात्मनि परं ज्योतिरद्वितीयमनव्ययम्।।
अपने तो नित्यानंदमय शुद्ध ज्योतिस्वरूप देखने का उपदेश- हे आत्मन् ! तू अपने आत्मा में ही अपने को इस प्रकार टिका हुआ देख कि में नित्य आनंदमय हूँ, जैसा मेरा ज्ञानस्वरूप है इसी प्रकार मेरा आनंदस्वरूप है। जैसे हम ज्ञान के लिए कुछ अपनी समझ बनाते हैं कि हाँ मैं हूँ तो एक जाननरूप इसी प्रकार हम आनंदस्वरूप को समझने के लिए समझ बनायें तो एक यही पायेंगे कि इसमें आकुलता नहीं है। बस इसी को ही आनंद कह लो। एक सद्भूत अनिर्वचनीय परम आल्हादरूप कोई परिणति होती है आत्मा की। यह तो एक निषेध रूप में वर्णन है कि आकुलता नहीं है, यही आनंद है। यों आकुलतायें तो पुद्गल में भी नहीं हैं। आनंद का कोई क्या सद्भूत स्वरूप नहीं है आत्मा में? केवल निराकुलता का नाम आनंद नहीं किंतु आनंद उत्पन्न होता है वह आनंद नामक स्वभाव कोई न होता तो सुख दु:ख भी उत्पन्न न होते। इस आनंदस्वभाव के ही विकार सुख दु:ख है। तो यह सुख दु:ख होना यह साबित करता है कि कोई गुण है आत्मा में जो गुण आज सुख रूप में व्यक्त है, दु:ख रूप में व्यक्त है पर ये सुख और दु:ख दोनों औपाधिक है, पर के आश्रय से उत्पन्न होते हैं, अतएव ये मिट जाते हैं और उस समय आनंदगुण का शुद्ध परम आल्हादरूप परिणमन हो जाता है जो कि निराकुल है। हे आत्मन् ! तू अपने को नित्य आनंदमय निरख। तू सबसे न्यारा केवल अपने स्वरूप मात्र है ऐसा अपने आपको देख। मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, अविनश्वर हूँ, परमज्योति स्वरूप हूँ, ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ, अद्वितीय हूँ, मैं जो हूँ सो हूँ। मुझमें कोर्इ दूसरा नहीं है, और मेरा कायरहित भी स्वरूप नहीं है, नित्यपरिणमनशील हूँ, पूर्वपर्याय को विलीन करता हूँ और उत्तर पर्याय को उत्पन्न करता हूँ। यों समस्त पर्यायों में एक ज्ञानस्वरूप बना रहता हूँ। ऐसा अपने आपको नित्य आनंदमय निरख। इस निरख से तू अपने आपकी शुद्ध ज्ञानज्योति का अनुभवन करेगा और यही उत्कृष्ट ध्यान तेरे क्लेशसमूह को दूर करेगा और एक परम शुद्ध निर्विकल्प निर्वाण की अवस्था प्राप्त हो जायेगी।