वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 921
From जैनकोष
दृग्बोधादिगुणानर्ध्यरत्नप्रचयसंचितम्।
भांडागारं दहत्येव क्रोधवह नि: समुत्थित:।।921।।
क्रोधाग्नि द्वारा सम्यक्त्वादि अमूल्य रत्नसमूह से संचित भांडागार का दहन― यह क्रोधरूपी अग्नि प्रकट होने पर सम्यग्दर्शन ज्ञान, व्रत, नियम, संयम ऐसे-ऐसे अमूल्य रत्नों के भंडार को भी यह दग्ध कर देती है। जैसे अग्नि घर में लग जाये तो चाहे रत्नों का भी भंडार हो उसे भी साफ कर देती है, इसी तरह ज्ञानी विरक्त पुरुषों ने अपने आत्मा में अनेक गुणों का भंडार बना पाया है, लेकिन कदाचित् क्रोध उत्पन्न हो जाय तो वह गुण भंडार भी समाप्त हो जाता है। क्रोध कषाय बढ़े तो उसे चांडाल की उपमा दी है। जब कोई बहुत क्रोध करता है तो लोग कहते भी हैं कि इसका कुछ कसूर नहीं है, इस चांडाल क्रोध का कसूर है। जब क्रोध आता है चाहे बच्चे पर क्रोध आये तो क्रोध तेज आता है तो वह स्पष्ट शब्द नहीं बोल पाता, भड़भड़ बात करता है। यदि बच्चे को समझाने के लिए भी कोई वचन बोले तो उन वचनों को कोई समझ ही नहीं पाता कि यह क्या कह रहा है। इतना तक भड़भड़ हो जाता है। और, किसी समर्थ पर क्रोध आये तो क्रोध कषाय में उसके ओंठ काँपते हैं, नेत्र लाल हो जाते हैं। जब बुद्धि ठिकाने नहीं रहती तो चाहे वह अपराधी भी न हो, पर क्रोध आने पर वह अपराधी बन जाता है। किसी बात में कोर्इ कसूर भी न किया हो, पर क्रोध आ जाये तो ऐसा बोल निकल जाता जो लोग उस मूल अपराध को गौण कर देते, किंतु जो एक तेज अपराध हुआ उसको महत्त्व देने लगते हैं। तो थोड़ा भी क्रोध कालांतर में महान अनर्थ उत्पन्न कर देता है। भले ही उस समय कुछ न मालूम पड़े पर धीरे-धीरे जब क्रोध करने की आदत बन जाती है, जब वह क्रोध एक बड़ी स्थिति में पहुँच जाता है तो यह क्रोधरूपी अग्नि बड़े-बड़े दर्शन ज्ञान आदिक अमूल्य रत्नों से संचित किए हुए गुणरूपी भंडार को भी दग्ध कर देता है। कहावत में कहते हैं कि पशुओं में चांडाल गधा माना गया, पक्षियों में कौवा चांडाल माना गया, साधु-संतों में चांडाल क्रोध माना गया और सबमें चांडाल निंदा करने वाला माना गया। क्रोध तो कभी किसी प्रयोजनवश भी हो जाता है पर निंदा में क्या रखा है मूल में तो निंदक को सबसे अधिक चांडाल माना गया है, और साधु-संत महात्मा जनों में तपस्वी जनों में यदि क्रोध उत्पन्न हो गया तो उनका वह क्रोध करना, इसको नीतिकारों ने चांडाल की उपमा दी है।