वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 951
From जैनकोष
न चदेयं मां दुरितै: प्रकंपयेदहं यतेयं प्रशमाय नाधिकम्।
अतोतिलाभोयमिति प्रतर्कयन् विचाररुढा हि भवंति निश्चला:।।951।।
पीड़कों के प्रति सावधानकारित्व की भावना― साधु महाराज विचार करते हैं कि दूसरे को संतुष्ट करने के लिए अनेक लोग तो अपना धन भी देते हैं कि यह खुश हो जाय, अपना शरीर छोड देते हैं कि वह खुश हो जाय और हमारे कुछ दिये बिना दुष्ट पुरुष गाली देकर यदि खुश हो जाते हैं तो यह तो अच्छी ही बात है। हम तो कुछ धन भी नहीं दे रहे और वे हमें गाली देकर खुश हो रहे तो यह तो हमारे लिए बड़ी अच्छी बात है। ऐसा ज्ञानी पुरुष विचार करता है। यदि हम दूसरों के दुर्वचन सुनकर उस पर रोष करें तो यह हमारे लिए लज्जा की बात है। अनेक लोग तो धन देकर भी खुश किया करते हैं। इसमें तो मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ। मेरा ज्ञान मेरे पास है, मैं अपना सही ज्ञान करके अपने आपको प्रसन्न बनाता रहूँगा। कोर्इ यदि मुझे गाली देकर खुश हो रहा है और मैं उस पर क्रोध न करूँ तो मेरी इसमें हानि क्या है, बल्कि लाभ ही है क्योंकि क्रोध करने से पाप का बंध होता है। लोग क्रोध किसलिए करते? कुछ लाभ समझते हैं क्रोध करके तभी तो मोहीजन अज्ञानीजन क्रोध बनावे रहते हैं, पर क्रोध करने से लाभ क्या है? शांत रह जाय तो क्या बिगड़ता है बल्कि अनेक बातें सुधरती हैं। जीवन में लोगों से अच्छा संबंध बनता है और खुद भी ऐसे अच्छे वातावरण में हो जाते हैं कि दूसरे लोग हमारी भलाई सोचा करें। क्रोध न करने से लाभ अनेक है। क्रोध करने से फायदा कुछ भी नहीं है नुकसान अनेक हैं। लड़ पड़े किसी से और वह बलवान है और इसका मुँह तोड़ दे तो अव्वल तो वह अस्पताल में ही जायगा और अगर अस्पताल से बच जाय क्रोध करने वाला तो जेलखाने में जायगा। दो गतियाँ हैं तेज क्रोध करने वाले की क्योंकि क्रोध करके किसी का बिगाड़ कर दिया तो क्या वह चुप रहेगा? वह भी हड्डी तोड़ देगा। फल यह होगा कि अस्पताल जाना पड़ेगा और जेल भी जाने की नौबत आ सकती है। तो क्रोध करने से फायदा कुछ नहीं है। क्रोध करने से पाप का बंध होता है और फिर नरकगति में जाय या अन्य किसी खोटी गति में जाय। जैसे लोग किसी दु:खी और रोगी कोढ़ी अस्वस्थ पुरुष को देखकर कहते हैं कि लो यही तो नारकी जीवन है, और नरक कहाँ रखा है? तो क्रोध करने से लाभ कुछ नहीं है, हानि ही सर्वत्र है।