वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 98
From जैनकोष
समापतति दुर्वारे यमकंठीरवक्रमे।
त्रायते तु न हि प्राणी सोद्योगैस्त्रिदशैरपि।।98।।
मरणकाल में देवों द्वारा भी अरक्षितता― जब यह प्राणी दुर्निवार कालरूपी सिंह के पंजे तले आ जाता है तब बड़े-बड़े उद्योगशील देवतावों के द्वारा भी प्राणी की रक्षा नहीं हो सकती। अन्य मनुष्यादिक की तो सामर्थ्य ही क्या है? जिस मनुष्य पर देव प्रसन्न होते हैं उस मनुष्य के प्रति देव का कितना अधिक राग रहता होगा? पुराणों में यह कथानक बहुत आया है, अनेक महापुरुषों की सेवा में देवगण रहते थे। अनेकों महापुरुषों की सेवा देवता लोग स्वयं किया करते थे और अनेक देवता उनके चक्र के स्वामी होते थे, उनकी आयुधशाला की रक्षा करना आदिक नाना रूपों में सेवा किया करते थे। उन महापुरुषों का भी जब अंत समय आया तब देवता भी उनकी रक्षा नहीं कर सके। रक्षा कर ही नहीं सकते। ये देव स्वयं अरक्षित हैं। इनकी आयु असंख्यातों वर्ष की होती है, इस कारण इन्हें लोग अमर कहा करते हैं। इनका आहार कंठ से ही जो अमृत सा या कहिये थूक जैसा झड़ता है वही होने के कारण इन्हें अमृत का पीने वाला कहा करते हैं। पर न तो ये अमृत के पीने वाले हैं और न अमर हैं, असंख्यातों वर्ष गुजर जाने के बाद जब इनका भी काल क्षय होता है तो ये बच नहीं पाते। माता को बच्चा कितना प्रिय होता है? छोटा बालक है, रोगी है, हड्डी निकली हैं, कुछ देखने योग्य भी नहीं है फिर भी मोह कितना रहता है? गोद में लिए रहती है, किंतु गोद में भी बैठे-बैठे बालक का मरण हो जाता है। उसे कौन बचा सकता है?
बाह्य में शरणलाभ का अभाव― मृत्यु के आक्रमण से आक्रांत होकर यह जीव शरण ढूँढ़ता है किसी का, पर कहीं इसे शरण मिलती नहीं है। वैद्यों की सेवा करके भी शरण खोजता है। अपने हितुवों से प्रीति की याचना करके भी शरण खोजता है। अनेकों शरण ढूँढ़ता है यह लेकिन इसे शरण कहीं नहीं मिलती। ऐसा यह जगत् अशरण है। सच तो यह है कि जो चीज स्वयं विनाशीक है उसका शरण गहना चाहता है तो शरण मिल कैसे सकेगा? कोई पुरुष परिजन की शरण समझता है, कोई वैभव की शरण समझता है, कोई इज्जत और यश की शरण समझता है। किसी न किसी विनश्वर पदार्थ की शरण लेना चाहता है। बताओ फिर कैसे शरण की सिद्धि हो सकती है? शरण केवल अपने आपमें सहज अनादि अनंत विराजमान् एक चैतन्यस्वभाव का दर्शन है। वह दृष्टि में न आये तो कहीं भी उपयोग भ्रमाने से शरण न मिलेगी।
परमार्थशरण के परिचय की आवश्यकता― भैया ! केवल अशरण अशरण की रटन लगाकर अपने को दु:खी करना ठीक नहीं है। हाय ! मेरा कहीं कोई शरण नहीं। यद्यपि यह भी एक धर्मध्यान का अंग है। न मुझे घर का शरण है, न कुटुंब शरण है, न मित्र शरण है, न ये विषयभोग शरण हैं, न ये सांसारिक सुख शरण हैं, सोचते जाइए, अच्छी बात है, लेकिन शरण असल में है क्या? इसका पता नहीं है, तो उसके हर जगह रोना ही रोना है। अशरण भावना उसकी नहीं बन सकती जिसे अपने शरण का परिचय नहीं है। बाहर में प्रत्येक पदार्थ का नाम लेकर कोई अशरण कहता जाय। उसकी अशरणभावना नहीं है, वह तो एक खिसियाहट है। दु:खी हो गए चैन न मिला, लो कहने लगा कि यहाँ कौन किसका है, बाह्य में कुछ भी शरण नहीं है। इस चिंतवन में बल तब आता है जब अंतर में यह बल पड़ा हुआ हो कि मैं स्वयं सशरण हूँ, मैं स्वरूप से अमिट हूँ, मुझे कहाँ क्या अधुरापन है, मैं पूर्ण सत् हूँ और स्वभाव से ज्ञानानंदघन हूँ― ऐसा अपनी शरण का जिसे बल मिला हो वह बाह्यपदार्थों का नाम ले लेकर यह अशरण है, यह अशरण है― इस प्रकार की भावना करता है। सेना हो, परिजन हो, देवी-देवता हों, माता पिता हों, बड़े प्रेमी रिश्तेदार हों, मरते समय इस जीव का कोई राखनहार नहीं हो सकता ऐसी भावना यहाँ अशरण भावना में भायी जा रही है।