वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 83
From जैनकोष
मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किन्चा।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदित्ति पडिकमणं।।83।।
प्रतिक्रमण के विवरण का संकल्प- वचनरचना को छोड़कर रागादिक भावों का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है उस ज्ञानी पुरुष के वास्तविक प्रतिक्रमण होता है। निश्चयप्रतिक्रमण और व्यवहारप्रतिक्रमण ऐसे प्रतिक्रमण के दो प्रकार बताये गये हैं। व्यवहारप्रतिक्रमण तो विधिपूर्वक प्रतिक्रमण पाठ करते हुए अपने आत्मा में उस योग्य विशुद्धि का भाव करना, सो व्यवहारप्रतिक्रमण है। किंतु निश्चयप्रतिक्रमण क्या है इसको निश्चयप्रतिक्रमण का अधिकारी बताने के माध्यम से इस गाथा में विशेषरूप से बताया गया है।
व्यवहारप्रतिक्रमण व निश्चय प्रतिक्रमण का निर्देशन- प्रथम तो व्यवहारप्रतिक्रमण का ही महत्त्व देखिये। मोक्ष की इच्छा करने वाले, कल्याणार्थी, निष्कपट भाव से व्रत तपस्या संयम में प्रवृत्ति रखने वाले पुरुष जो दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया करते हैं वचनरचनामय प्रभुस्तवन दोषों का मिथ्याकरण दोषों के निवारण की भावना आदि का पाठ किया करते हैं जो कि पाप के क्षयों का कारणभूत हैं, शुभोपयोग हैं, ऐसे सूत्रों का उच्चारण करना यही है व्यवहारप्रतिक्रमण। सुनने में यह भी बड़ा प्रभावशाली प्रोग्राम है मोक्षमार्ग का, फिर भी इस सूत्र में यह बतला रहे हैं कि ऐसे प्रतिक्रमण पाठ के वचनों का परिहार भी जहां हो जाता है और तद्विषयक अंतरजल्प का भी परिहार हो जाता है वहां रागादिक का निवारण होने से जो शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान बर्तता है उसे कहते हैं निश्चयप्रतिक्रमण। व्यवहारप्रतिक्रमण तो विकल्प करके किया जाता है किंतु निश्चयप्रतिक्रमण ज्ञातृत्व के संस्कार से स्वयं हुआ करता हैं। ऐसे इस निश्चयप्रतिक्रमण की बात कही जा रही है।
वैराग्यसुधासिंधु चंद्र– निश्चयप्रतिक्रमण जिस पवित्र महापुरुष के होता है उस महापुरुष की कुछ आंतरिक चर्या को ध्यान में लिए हुए देखिये- यह महात्मा वैराग्यरूपी समुद्र के लिए पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह है। जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा के अभ्युदय के कारण समुद्र उबलता है, बढ़ता है, इसी प्रकार उसका वैराग्य प्रगतिशील है, बढ़ रहा है। दोषों का परित्याग तो वही करेगा जो विरक्ति में बढ़ रहा है। सहज वैराग्य ही वृद्धिशील हुआ करता है।
बनावटी वैराग्य की विडंबनायें- बनावटी वैराग्य, बाह्य का परित्याग यह कदाचित् किसी के सत्य वैराग्य का भविष्य में कारण बन जाय तो बने, परंतु जब वैराग्यमय सहज आत्मतत्त्व का परिचय नहीं है तो बाह्यपरिग्रह के त्याग से बनाये गए वैराग्य में मूल उपाय सुरक्षित नहीं है। सहजज्ञानानंदभाव के परिचय के बिना जो बाहरी त्याग किए जाते हैं वे कुछ समय तक तो मौज देते हैं, वे भी आत्मीय आनंद की झलक नहीं देते हैं, लोगों के द्वारा पूजा, प्रतिष्ठा, सम्मान अथवा अपनी कल्पना में जो धर्म की धुन आयी है उस धुन से अपना दिल बहला लेना, ये सब मौज हुआ करती है, किंतु कुछ काल के बाद जब इन मौजों से पेट भर जाता है तब लोगों के सम्मान द्वारा की हुई पूजा प्रतिष्ठा को एक रोज के देखने की आदत सी पड़ जाती है तब उसका मौज घट जाता है, अन्य प्रकार की तृष्णायें बनने लगती है और कभी-कभी तो अपने इस परित्याग पर अफसोस भी होने लगता है, चाह होने लगती है, अनेक विडंबनाएँ हो जाती हैं। जिस पुरुष के मूल में निष्कलंक स्वत:सिद्ध निज सहज ज्ञानस्वभाव का दर्शन नहीं होता है उस पुरुष में वैराग्य की बात यथार्थविधि से निभा लेना, यह कठिन होता है।
परमतपश्चरण और निश्चयप्रतिक्रमण- रागरहित विधि से रागरहित ज्ञानप्रकाश का अवलोकन करना यही है उसका परमतपश्चरण। अपने चैतन्यभाव में अपने उपयोग का प्रतपन करना यही है परमतपश्चरण, जो कर्म की निर्जरा का अमोघ साधन है। ऐसे परम तपश्चरण से परिपूर्ण सहज वैराग्यरूप समुद्र को जो प्रतिक्षण बढ़ाता रहता है ऐसे पूर्णचंद्र की तरह यह महात्मापुरूष निश्चयप्रतिक्रमण का पात्र होता है।
निश्चयप्रतिक्रमण में वचनरचना का व रागादिक विभाव का परिहार- भैया ! खोटे वचनों से बोलने की तो बात ही क्या कही जाय, उस वचनरचना से तो वह मुक्त ही है, पर प्रतिक्रमणस्वरूप स्वाध्याय आदि समस्त प्रकार की वचनरचनावों का जहां परिहार हो जाता है और अपने प्रति कदम बढ़ाया जाता है सो यही है निश्चयप्रतिक्रमण। आत्मा का आनंद स्वयमेव है। यह आनंद के विरूद्ध अपनी कोई विकल्पवृत्ति न बनाए तो यह परमशांत ही है। अब देखते जाइए कि हमारी चर्या अपनी असली चर्या से कितनी दूर चला करती है? रंच भी रागादिक विकल्प की तरंग नहीं होनी चाहिए और क्या हो रहा है सो अपने आपके अंदर परख की दृष्टि से घुस कर देख लीजिये। जिसका शुद्ध ज्ञानप्रकाश है वह ज्ञानप्रकाश ही ज्ञानप्रकाश में रहना चाहिए, ऐसी निस्तरंग ज्ञानमात्र सामान्य परिस्थिति हो वह है वास्तविक पुरूषार्थ और निश्चयप्रतिक्रमण। ऐसी शिवमय परिस्थिति में दोष कहां टिक सकता है? दोष वहां ही टिक सकता है जहां स्वयं की भी कोई आसक्ति हो। जहां प्रतिक्रमणसूत्र के नाना प्रकार की वचनरचना का भी परित्याग हो गया है वहां निश्चयप्रतिक्रमण का अभ्युदय होता है। जहां सर्वप्रकार के रागद्वेष मोह विभाव का निवारण हो जाता है उसही उपयोग भूमि में अखंड आनंदस्वरूप निज कारणपरमात्मत्त्व का ध्यान जगता है।
संसारलता का मूल कंद- ये राग द्वेष मोह संसाररूपी लता को बढ़ाने में मूल कंद की तरह हैं। जैसे लता की जड़ लता की वृद्धि होते रहने में कारण है ऐसे ही हमारे संसारपरिभ्रमण के होते रहने में कारण रागद्वेष मोह भाव है। इस आत्मा पर कितनी गहरी मोहिनी धूल पड़ी हुई है कि जिन भावों के कारण इतना विनाश हो रहा है, इतनी बरबादी हो रही है। वह भाव बड़ा प्रिय लगता है, उनमें ही मन रमा करता है, मौज मानते हैं। कभी अपने को घररहित, कुटुंबरहित, देहरहित, पोजीशनरहित, सर्वविडंबनावों से विविक्त केवल ज्ञानमात्र भी अनुभवा जाना चाहिये। यदि अपने को ज्ञानमात्र कभी प्रतीति में नहीं ला सके हैं तो फिर धर्म की क्रियावों का पालन या तो विषयों की प्रीति के लिए है या अपना दिल बहलाने के लिए है। ऐसे पुरुष को अज्ञानी मूढ़ कहा गया है।
धर्मपद्धति का अमोघ फल- भैया ! सिलसिले से पद्धतिवार कोई धर्म का पालन करे और मुक्त न हो यह कभी हो ही नहीं सकता। अवश्य ही वह मुक्त होगा। पर धर्मपालन की पद्धति तो सही हो रागद्वेष मोह में माने गये मौज में भी फर्क न डालना चाहें और हम संसार के समस्त संकटों से मुक्त होने की बात कर लें, यह कैसे हो सकता है?
व्यामोही मानव की प्रथम विडंबना- यह व्यामोही मानव तीन बातों में ही तो फंसा हुआ है बाहर में, जिसे लोग कहते हैं- जर, जोरू, जमीन। जर का अर्थ है धन वैभव हीरा, रत्न, सोना, चाँदी, पैसा, नोट, ये सब वैभव कहलाते हैं, इनमें जो उपयोग फंसा रहता है, इनकी ओर जो दृष्टि बनी रहती है सोचिए वह कितनी बहिरंग दृष्टि है। जो जड़ हैं, जिनका संग निश्चित् नहीं है, अटपट मिल गए है उन बाह्यपदार्थों की ओर तृष्णा का परिणाम होना, ग्रहण का परिणाम होना वह कितनी गरीबी है? यह मोही तो समझता है कि मैं लाखों का धन कमाता हूं, रखता हूं और वह धन मेरे हाथ की बात है, मैं अमीर हूं, पर हो रहा है उल्टा काम। अपने अंतर के वास्तविक ज्ञानानंदस्वरूप निधि का त्यागकर असार भिन्न जड़ इन बाह्यविभूतियों की ओर अपना उपयोग सर्वस्व लगा देता है, बना भिखारी निपट अजान की स्थिति बना लेता है। वे तो बड़ा गरीब है उसे कहीं सत्य संतोष मिल नहीं पाता है, सदा आकुलित रहता है। यह है इस संपदा का हाल।
व्यामोही मानव की द्वितीय विडंबना- स्त्री की बात देखिये- ये व्यामोही पुरुष स्त्री को सर्वस्व मानते हैं। मेरा देवता है तो स्त्री, भगवान है तो स्त्री। जितना कमा-कमाकर मरते हैं सब स्त्री के लिए, पर होता कितना अनर्थ है सो तो देखिये। स्त्री का प्रेम, स्त्री का कामस्नेह कितना कटु परिणाम वाला है सो देखिये। कोई पुरुष स्त्री का प्रसंग भी न करे, बहुत दिनों तक चाहे उससे कामसेवन भी न करे, लेकिन उसके संग से कामस्नेह करे। उसके चित्त में छुपी हुई कमी कुछ प्रकट हुई जो मलिनता रहती है उस परिणाम के करण इसके शरीर का भी विनाश हो रहा है और मानसिक बल आत्मीय बल ये भी समाप्त हो रहे हैं। जैसी यह बात पुरुष के लिए स्त्री की है वैसी ही बात स्त्री के लिए पुरुष की है। इसके स्नेह से आत्मीय लाभ नहीं होता। कोई बिरले ही गृहस्थ संत ऐसे होते हैं कि घर में रहते हुए भी उनका परिणाम साधु संतों की तरह निर्विकार रह सकता हो कुछ समय के लिए। और क्या-क्या कहानी सुनाए, न जाने स्त्री के कारण क्या–क्या क्लेश हैं। आराम में रहते हुए भी वे अपनी रोनी कहानी सुना सकते हैं कि मुझे बड़ा क्लेश है।
व्यामोही मानव की तृतीय विडंबना- तीसरी विडंबना है जमीन मकान दुकान खेती पृथ्वी जो कोई कुछ हिस्सा में थोड़ा बैठता हो या अपने हिस्सा के कुछ पास वाली जमीन हो ऐसी चाह रहती है कि यह भी मेरे कब्जे में आये। अरे मरने पर कुछ साथ ले जाया जायेगा? एक बार किसी राजा ने एक बुढ़िया का खेत लगान न देने के कारण हड़प करने का आदेश दिया। मकान झौंपड़ी खेती सब कुछ सरकार में जाने लगे। उन्हीं दिनों में किसी समय राजा बुढ़िया कि घर के सामने से निकला तो बुढ़िया एक बड़े टोकने में बहुत सी मिट्टी भरे हुए थी। राजा से कहा, भाई-भाई ! मेरा यह टोकना उठा देना। वह कहता है कि यह टोकना कैसे उठाया जा सकता है, यह तो बड़ा वजनदार है। तो बुढ़िया बोली कि इतनी मिट्टी नहीं उठा सकते तो हमारे खेत तुम्हारे मरते समय तुमसे कैसे उठाये जायेंगे? अब तो राजा की आंखें खुलीं। राजा बोला-बुढ़िया मां मैंने बड़ा कसूर किया, जा तेरे खेत मकान सब कुछ तुझे वापस कर दिये।
कर्तव्य–भैया ! अब समझ लीजिए कि क्या करना था और कितने उल्टे काम करने में बह गए? इसका काम निश्चयप्रतिक्रमण था। रागादिक विकल्पों की तरंग न उठे, मात्र यह आत्मा अपने आपमें अपने आपका, सहजस्वरूप दर्शन करे, ऐसा निस्तरंग नीरंग शुद्ध ज्ञानप्रकाश जगे यह तो किया जाने का काम था, पर इसकी दृष्टि जाती भी है क्या? इस ओर निगाह जाती भी है क्या? यदि इस ओर दृष्टि भी है? तो अब भी आपके पतंग की डोर आपके हाथ में है और यदि कुछ भी दृष्टि नहीं जाती है तो समझ लीजिए कि आपके पतंग की डोर आपके हाथ से निकल गयी। सदा धक्के ही खाते रहोगे। यों ये रागद्वेष मोह विभाव संसार के बंधन को बढ़ाने में, इस परिभ्रमण को बढ़ाने में कंदमूल की तरह हैं। उसका निवारण करे और अखंड आनंदमय निज कारणपरमात्मा का ध्यान करें, ऐसे शुद्ध उपयोग के रखने वाले पुरुष के निश्चयप्रतिक्रमण होता है।
निश्चयप्रतिक्रमण का पात्र- निश्चयप्रतिक्रमण का पात्र वही है जो निश्चयरत्नत्रय का अधिकारी है। उत्कृष्ट तत्त्व है एक चैतन्यस्वभाव प्रथम तो विश्व के समस्त पदार्थों में उत्कृष्ट पदार्थ है यह आत्मा क्योंकि यह ज्ञाता द्रष्टा है, व्यवस्थापक है, निर्देशक है, समझने वाला है और फिर इस आत्मा में भी रागद्वेष मोह विकल्प तरंग कल्पनाएँ ये सब कूड़ा कचरा हैं, ये सारभूत नहीं हैं। इनमें भी सारभूत शुद्ध ज्ञान प्रकाश है। यह शुद्ध ज्ञानप्रकाश जिस तत्त्व का आलंबन लेने से प्रकट होता है वह सर्वोत्कृष्ट सारभूत परमतत्त्व तो सहज आत्मतत्त्व है। उस परमतत्त्व की श्रद्धा हो, उस परमतत्त्व का यथार्थ परिज्ञान हो और उस ही परमतत्त्व में आचरण हो, रमण हो तो ऐसे निश्चयरत्नत्रय के अभिमुख पुरुष के यह निश्चयप्रतिक्रमण रहता है।
परमार्थप्रतिक्रमण का प्रसाद- जिसमें समस्त प्रकार के वचनविषयक विकल्प नहीं रहते हैं और केवल एक शुद्ध सहज ज्ञानतत्त्व का आश्रय रहा करता है ऐसा यह निश्चयप्रतिक्रमण भव-भव के बांधे हुए कर्मों को, दोषों को, संस्कारों को मूल से यह विनष्ट कर देता है। बहुत विकल्पों के करने से क्या फायदा है? अरे एक परमार्थभूत इस चैतन्यस्वभाव का चिंतन करिये, इस परमतत्त्व का ध्यान करिये। इस परमतत्त्व में ऐसा प्रताप है कि सर्व संकट समाप्त करने की दिशा प्रदान करता है जिससे बढ़कर अन्य कुछ नहीं है, ऐसे इस कारणसमयसार का आश्रय करना, सो निश्चयप्रतिक्रमण है। आइये अपनी ओर भावना करिये। पूर्व में तीव्र रागादिक भावों का मोह भाव से जो कर्मोपार्जित किया है उसका परित्याग करना चाहिए। उनको दूर करके अब ज्ञानानंदस्वरूप अपने आत्मा में ही सदा रहते हुए इस भावना का उपयोग करो। ऐसे शुद्ध उपयोग से आत्मा को शुद्ध आनंद की प्राप्ति होती है।