वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 9
From जैनकोष
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।9।।
अनन्त पदार्थों में प्रत्येक पदार्थ का परिमाण―दृश्य और अदृश्य समस्त पदार्थ 6 जातियों में बँटे हुए हैं। पदार्थ तो 6 नहीं होते हैं। पदार्थ अनन्तानन्त हैं, द्रव्य अनन्तानंत हैं क्योंकि एक द्रव्य वह कहलाता है जो अपने में अपना परिणमन करता हुआ रहे, अपने से बाहर जिसका कभी परिणमन नहीं होता और अपना जितना एक परिपूर्ण प्रदेश में परिणमन हो उसको एक कहते हैं। इस एक की व्याख्या से निगाह करके देखें तो अनन्त जीव ज्ञात होते हैं क्योंकि एक का परिणमन दूसरे जीव में नहीं पहुँचता है।
स्वरूपदृष्टि से आत्मा का एकत्व―जो सिद्धान्त एक ही आत्मा को मानने वाला है उसके मंतव्य में यह आपत्ति आती है कि जो विचार एक आत्मा में हुआ, जो सुख या दु:ख एक आत्मा में हुआ ठीक वही परिणति समस्त आत्माओं में हो तब तो एक कहा जायेगा। जब भिन्न-भिन्न परिणमन होते हैं तब सबको एक कैसे कहा जा सकता है ? हाँ स्वरूप की दृष्टि से एक है, अर्थात् जितने भी आत्मा हैं समस्त आत्माओं का स्वरूप एक है वे भिन्न नहीं है। यहाँ तक कि चाहे मुक्तजीव हों, चाहे संज्ञीपंचेन्द्रिय हों, चाहे निगोद हों, चाहे भव्य हों अथवा अभव्य हों, समस्त जीव एक स्वरूप वाले हैं। स्वरूप की दृष्टि से किसी जीव से किसी अन्य जीव में कोई अन्तर नहीं है। ऐसे स्वरूप की दृष्टि से आत्मा एक है। परवस्तु की दृष्टि से, अर्थक्रियाकारिता की दृष्टि से आत्मा एक नहीं है किन्तु जितने आधारों में जितने अनुभाव हैं उतने आत्मा है। इस प्रकार अनन्तानन्त आत्मा हुए।
दृश्यमान् अनगिनते कायिक जीव―भैया ! पहिले तो जो शरीर दिख रहे हैं उनसे ही अंदाज कर लो कितने जीव हैं ? जहाँ कीड़ियाँ निकल आती हैं एक जगह ही हजारों चींटियाँ उमड़ जाती हैं। ऐसे ही सब जगह देख लो–एक-एक पेड़ में असंख्यात जीव है, यद्यपि मूल जीव एक है फिर भी जितने पत्ते हैं उनसे भी असंख्यात गुने एक पेड़ में जीव हैं। ऐसे सारे पेड़ देखलो। जानने वाले शरीरों को ही देख लो। कुछ परिमाण है क्या ? फिर अब आगमदृष्टि से निरखो, जितने जीव मनुष्यगति में है, उनसे असंख्यातगुणे जीव देवगति में हैं, उनसे असंख्यातगुणे जीव नरकगति में हैं, उनसे असंख्यातगुणे जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय में हैं। जितने कि पंचेन्द्रिय व विकलत्रय हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति हैं। उनसे अनन्तगुणे जीव सिद्धभगवान् हैं और उनसे अनन्तगुणे जीव निगोद जीव हैं। ऐसे अनन्तानन्त सभी जीव स्वरूपदृष्टि से एक जाति में सम्मिलित हो जाते हैं।
जीव के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग―जीव का स्वरूप है शुद्ध ज्ञायकपना, स्वच्छता, प्रतिभासशक्ति। यह स्वरूप सबमें एक समान है। जीव शब्द के अनेक अर्थ हैं और उन अर्थों से जीव की विशेषताएँ विदित होती हैं। जीव शब्द का अर्थ है 10 प्राणों करके जो जीता है, जिया था, जीवेगा उसको जीव कहते हैं। आत्मा शब्द का अर्थ है जो निरन्तर जानता रहता है उसे आत्मा कहते हैं। ब्रह्म शब्द का अर्थ है–जो अपने गुणों से बढ़ने का स्वभाव रखता हो उसे ब्रह्म कहते हैं। चेतन शब्द का अर्थ है जो चेतता है, दर्शन ज्ञान गुण के द्वारा जो प्रतिभासता रहता है उसे चेतन कहते हैं। यहाँ जीव शब्द का प्रयोग किया गया है। चूँकि पदार्थ को बताना है। सो पदार्थ को बताते हुए में जितने व्यावहारिक शब्द हैं उनका प्रयोग किया जाता है।
जीव, आत्मा व ब्रह्म शब्द के विभिन्न पदों में प्रयोग की उपयुक्तता―जीव शब्द आत्मा शब्द की अपेक्षा कुछ व्यावहारिक है। यदि योग भाषा में, बुद्धिमान लोगों की भाषा में जीव आत्मा और परमात्मा अथवा जीव आत्मा और ब्रह्म इन तीन शब्दों की मुख्यता की दृष्टि से प्रयोग करे तो बहिरात्मा का नाम तो जीव है और अन्तरात्मा का नाम आत्मा है और परमात्मा का नाम ब्रह्म है। यद्यपि जीव ही सबका नाम है, आत्मा ही सबका नाम है और ब्रह्म ही सबका नाम है, फिर भी शब्दों में जो अर्थ भरा है उसकी दृष्टि प्रमुख करके विचारा जाय तो जीव शब्द का प्रयोग बहिरात्मा के लिए अधिकतर होना चाहिए।
वचनव्यवहार―यह जीव संसार परिभ्रमण कर रहा है। ऐसा ही तो लोग बोलते हैं। ऐसा तो नहीं कहते हैं कि यह ब्रह्म संसार में परिभ्रमण कर रहा है। यद्यपि उस ही पदार्थ का नाम जीव है, उसी पदार्थ का नाम ब्रह्म है फिर भी तीनों शब्दों के बोलने की शैली तो देखो–यह जीव 84 लाख योनियों में भ्रमण करके जन्म मरण के संकट भोग रहा है यों तो बोलेंगे, पर ऐसा बोलते हुए नहीं सुना है कि यह ब्रह्म 84 लाख योनियों में भ्रमण करके दु:ख भोग रहा है। इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि ये सभी शब्द चेतन पदार्थों के नामांतर हैं, फिर भी जो इसमें अर्थ भरा है जो इसमें पद्धति भरी है उस दृष्टि से बहिरात्मा के लिए तो जीव शब्द का बोलना अधिक उपयुक्त है और ज्ञानीसंत अन्य आत्माओं के लिए आत्मा शब्द का बोलना अधिक उपयुक्त है और प्रभुमुक्त जीवों को ब्रह्म शब्द बोलना अधिक उपयुक्त है। यह अन्य लोगों की भाषा में समन्वय करते हुए इस दृष्टि से बताया गया है।
जीव शब्द की व्याख्या―विभिन्न पदवियों वाली यह दृष्टि इस गाथा में नहीं अपनायी गयी है। यह जो जीव शब्द के लिए कहा गया है। जीव किसे कहते हैं ? जो दश प्राणों करि जिया था, जी रहा व जीवेगा उसे जीव कहते हैं। प्राण 10 होते हैं। 5 इन्द्रिय, 3 बल और 1 श्वासोच्छास और 1 आयु। इन 10 प्राणों में जो 5 इन्द्रिय प्राण हैं इनमें भावेन्द्रिय की मुख्यता है, द्रव्येन्द्रिय की मुख्यता नहीं है। तभी तेरहवें गुणस्थान में कितने प्राण होते हैं ? ऐसा प्रश्न किए जाने पर उत्तर आता है कि चार प्राण होते हैं। 5 इन्द्रिय प्राण नहीं रहे और एक मनोबल नहीं रहा तो यह भावेन्द्रिय में उपयुक्त होता है। कोई एकेन्द्रिय जीव मरकर मनुष्य होने जा रहा है तो विग्रहगति में प्राण कितने होते हैं ? ऐसा प्रश्न किया जाने पर उत्तर आता है कि 7 प्राण होते हैं। 5 इन्द्रिय 1 आयु और 1 कायबल। तो वहाँ इन्द्रियों का निर्माण तो हुआ नहीं। एकेन्द्रिय से मरकर जा रहा है। मनुष्य बनेगा, वहाँ क्षयोपशमरूप इन्द्रियाँ आ गयीं इस लिए पाँच इन्द्रिय प्राण माने हैं। तो उसके विग्रहगति में 5 इन्द्रिय प्राण होते हैं अर्थात् सुनने की शक्ति, चखने की शक्ति, सूँघने की शक्ति, देखने की शक्ति, भोगने की शक्ति, इस तरह 5 इन्द्रिय प्राण होते हैं तथा एक काय वाले व एक आयु यों 7 प्राण कहे गये हैं। पाँच इन्द्रिय, तीन बल, मनोबल, वचनबल, कायबल और श्वासोच्छवास तथा आयु तो 10 प्राणों करके जो जी रहा है या जीता था उसका नाम जीव है। भगवान् के तो 10 प्राण ही नहीं है। पर भगवान् भी 10 प्राणों करके जीते थे तो उनका भी नाम जीव है। जीव अनन्त होते हैं।
जीव शब्द का निश्चयदृष्टि से अर्थ―व्यवहार से तो यह जीव 10 द्रव्यप्राणों को धारण करने से है, किन्तु निश्चय से भावप्राणों के धारण करने से यह जीव है। अर्थात् जो चैतन्यप्राणों करके जीवे उसका नाम जीव है। यह लक्षण सब जीवों में सीधा चला जाता है। और जो द्रव्य प्राणों के धारण करने से जीवे उसे जीव कहते हैं। यह कथन व्यवहारदृष्टि से है। अब इस ही जीव को कई भागों में बाँटते चले जाइए।
तीन पद्धतियों में जीव तत्त्व का अवगम―कार्यशुद्ध जीव, अशुद्ध जीव और कारणशुद्ध जीव। इन तीनों की व्याख्या कर रहे हैं। कार्य शुद्ध जीव तो अरहंत सिद्ध हैं। केवल ज्ञानादिक शुद्ध गुणों के जो आधारभूत हैं उनको शुद्ध कार्यजीव कहा जाता है। यह निश्चयनय से नहीं कहा जा रहा है, व्यवहार से कहा जा रहा है, किन्तु यह व्यवहार शुद्ध सद्भूत है। जैसा व्यक्त है और पवित्र शुद्ध है, वैसी बात कही जा रही है और वही जीव।
जीव की अवस्थाएँ―जो अशुद्ध जीव है वह अशुद्ध जीव कहलाता है अर्थात् जो विभाव परिणमन वाला है, विभाव से परिणत है, मतिज्ञानादिक के जो आधार हैं उनको अशुद्ध जीव कहते हैं। रागद्वेष मोह सभी ले लो, यह अशुद्ध सद्भूत व्यवहार से है। परिणमन सब जीवों के हैं। चाहे सम्यग्दृष्टि जीव के रागादिक हों तो भी राग परिणमन जीव के ही है, पुद्गल की अवस्थाएँ नहीं हैं और चाहे मिथ्यात्व दशा में हो तो भी वे परिणमन जीव के ही हैं पुद्गल के नहीं होते हैं।
कारणशुद्ध जीव―ज्ञानी व अज्ञानी में अन्तर यह हो जाता है कि अज्ञान दशा में तो विभाव का परिणमन भी है व उनका उपयोग से कर्ता भी है। किन्तु ज्ञानी छद्मस्थ पुरुष की हालत इसमें एक अंग की रह गयी। अर्थात् परिणमन तो वहाँ विभावों का होता है, पर उपयोग से कर्ता नहीं रहा और वीतराग प्रभु में न परिणमन ही है और न कर्तृत्व ही है। पर जहाँ भी विभावरूप यह परिणमन है रागादिक का वह जीव के ही गुणों का विभाव परिणमन है, वह अशुद्ध है किन्तु सद्भूत है। अशुद्ध सद्भूत व्यवहार से यह अशुद्ध जीव है, और शुद्धसद्भूत व्यवहार से कार्यशुद्ध जीव है।
कारणशुद्ध जीव कौन है जो रागादिक परमस्वभावरूप गुणों का आधारभूत है वह कारणशुद्ध जीव है। यह शुद्ध निश्चय से कहा जा रहा है अर्थात् किसी अन्य की अपेक्षा न रखकर केवल जीव के अंतसतत्त्व को निरखकर कहा जा रहा है। यह अनादि अनन्त अहेतुक सहज स्वभावरूप कारण शुद्ध जीव है।
चेतन के गुण―यह जीव चेतन है और इसके चेतन गुण है। चेतन के गुण चेतन होते हैं लेकिन अर्थपरत्त्व दृष्टि से देखा जाय तो इस जीव में चेतने वाले गुण दो ही है–ज्ञान और दर्शन। बाकी श्रद्धा, आनन्द अस्तित्त्वादिक साधारण गुण अमूर्तता सूक्ष्मता आदि ये सब अचेतनगुण हैं अर्थात् ये चेतते नहीं हैं, किन्तु इन चेतन पदार्थों का असाधारण गुण चेतन है ज्ञान दर्शन है, इसलिए बाकी सब गुण इस असाधारण गुण के ही मानो रक्षक हैं, इसमें ही तन्मय हैं सो जो असाधारण गुण में तन्मय हैं, असाधारण गुणवान के साथ तन्मय हैं वे सब चेतन गुण ही कहलाए।
चेतन के असाधारण गुण की रक्षासूचक गुण―अथवा इस दृष्टि से देखो। जीव का जो चैतन्यगुण है उस चैतन्य गुण की रक्षा करने के लिए ही अन्य सब साधारण और असाधारण गुण है। कैसे कि इस जीव में सूक्ष्मत्व गुण नहीं होता तो ज्ञान दर्शन का रूप ही क्य बनता ? जीव के रूप, रस, गंध, स्पर्शता होती, तो क्या यह जानने देखने का काम कर सकता था ? नहीं। इसी प्रकार सब गुणों की बात देखते जायें तो सब गुण चेतन के चेतन हैं। यह अमूर्त है, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है और इसके सारे गुण अमूर्त है। ज्ञान अमूर्त, दर्शन अमूर्त।
पदार्थ में विभुत्व शक्ति की विशेषता―देखो भैया ! यद्यपि गुण के काम अपने-अपने जुदा-जुदा हैं पर एक गुण सब गुणों को अपना गुणात्मक बना लेता है। यह विशेषता द्रव्यों में पायी जाती है। इस शक्ति का नाम है विभुत्वशक्ति। आत्मा में अमूर्तिक गुण हैं, तो लो सारे गुण अमूर्तिक हो गए। ज्ञान अमूर्त, दर्शन अमूर्त श्रद्धा अमूर्त। कोई गुण है ऐसा जो अमूर्त न हो ? कोई नहीं है। आत्मा में एक सूक्ष्मत्व गुण है। सो देखो सारे गुण सूक्ष्म हैं। कोई गुण स्थूल है क्या कि हाथ में पकड़कर दूसरों को दे दें। लो आत्मा का एक गुण हम रखलें। कोई गुण स्थूल नहीं है। इस आत्मा में जो गुण हैं वे अमूर्त गुण है। यह जीव शुद्ध भी है अशुद्ध भी है। जब शुद्ध है तब इसका शुद्ध गुण है, इसकी शुद्ध पर्याय है और जब अशुद्ध पर्याय है तो इसका अशुद्ध गुण है अर्थात् अशुद्ध पर्याय परिणत है। इस तरह समग्र जीव इस लोक में अनन्तानन्त पाये जाते हैं। वे सब जीव प्रत्येक जीव से परस्पर अत्यन्त भिन्न है।
मोही का वस्तुस्वरूप से विरुद्ध अपलाप―भैया ! राग और मोह का उदय बड़ा विचित्र है। देखो सब जीव यद्यपि एकस्वरूपी हैं परंतु उनका स्वभाव समान है फिर भी उन जीवों में यह मोही ऐसी छटनी कर लेता है कि लो ये दो जीव तो मेरे हैं, खास हैं, मेरे बिल्कुल मिले हुए हैं, मुझमें इनका बड़ा स्नेह है, ये दूसरे के हो भी नहीं सकते हैं। ये मेरे खिलाफ बन ही नहीं सकते हैं, ये मेरे अहितरूप हो ही नहीं सकते–ऐसा विश्वास यह व्यामोही जमाये हुए हैं।
धर्मपालन के समय का साहस―भैया ! धर्मपालन के समय तो मोह को छोड़ो। अन्य समयों में नहीं छोड़ा जा सकता तो कम से कम जब हम धर्म के पालन करने की अपने में डींग या कल्पना करते हैं, संकल्प बनाते हैं उस समय दिल में ऐसा उदार गम्भीर होना चाहिए कि मेरे लिए सब जीव समान हों, उन जीवों में अमुक मेरा है, अमुक पराया है यह भेद नहीं करना चाहिए।
कर्तव्यपरायणता का एक दृष्टान्त―एक ऐसा ही पुराण में वृत्तान्त आता है कि एक राजा पर एक दिशा से दुश्मनों ने चढ़ाई की। राजा अपनी सेना लेकर उस शत्रु से भिड़ने चला गया और सिंहासन पर रानी को बैठा दिया कि तुम राज्य की व्यवस्था बनाओ। इतने में दूसरी दिशा से दूसरे शत्रु ने आक्रमण कर दिया। सो रानी ने सेनापति को बुलाया कि ऐ सेनापति तुम शीघ्र ही सेना सजाकर मुकाबला करो। सेनापति जैन था। वह बड़ी सेना सजाकर लड़ने के लिए चल दिया। रास्ते में शाम हो गई। रास्ते में वह हाथी पर बैठा-बैठा ही सामायिक करने लगा। और वही सब पाठ बोलने लगा। एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, पंचइन्द्रिय सब जीव मुझको क्षमा करो। इस प्रकार से फूल पत्ती सबसे क्षमा मांगी, सामान्यकथन में सभी जीव आ गये। सो मानो गधा, कुत्ता, सभी से क्षमा माँगी। यहाँ एक चुगलखोर ने आकर रानी से चुगली कर दी कि तुमने अच्छा सेनापति भेजा जो पेड़ पौधों से, छोटे-छोटे जीवों से भी क्षमा माँगता है, वह शत्रु से मुकाबला क्या करेगा ?
पाँच दिन के अन्दर ही सेनापति विजय प्राप्त करके लौटा। रानी से मिला तो रानी पूछती है कि ऐ सेनापति ? हमने सुना है कि तुम छोटे-छोटे कीड़ों से, पेड़-पौधों से भी क्षमा माँगते हो, तुम कितने कायर हो ? तुमने उस पर विजय कैसे प्राप्त कर ली ? तो सेनापति उत्तर देता है कि महारानी जी, हम आपके नौकर दिन में 23 घंटे के हैं। एक घंटे को हम अपने नौकर हैं। उन 23 घंटे में चाहे हम सो रहे हों, चाहे खा रहे हों, किसी समय जो हुक्म हो, राज्य का कोई काम आए फौरन तैयार रहता हूँ, किन्तु जो एक घंटा अपनी सेवा का हमने रखा है उस एक घंटे में सब विकल्प छोड़कर केवल अपने आत्मा की सेवा करता हूँ। तो वह शाम के टाईम पर आत्मसेवा का समय था और आत्मसेवा इसी में है कि सारे जीवों को अपने समान माना जाय। न कोई शत्रु है और न कोई मित्र है सब जीवों का स्वरूप एक समान है। तो मेरे प्रमाद से किसी भी जीव को कोई कष्ट पहुँचा हो तो उसकी क्षमा हम प्रतिदिन माँगते हैं। सो अपनी सेवा के समय हमने अपना काम किया और जब आपकी सेवा का समय आया तो युद्ध में डटकर मुकाबला किया। इस तरह विजय प्राप्त करके आया।
धर्मसाधना का पूर्ण अवधान―भैया ! तो वह तो था लड़ाई का प्रसंग। यहाँ तो सिर पर लट्ठ भी नहीं बरस रहा है। हम 24 घंटे में एक घंटा जो धर्म के लिए निकालते हैं उसमें हम किसी पर का विकल्प न करके सच्ची लगन से यदि आत्मा की सेवा करें तो वह हमारा धर्म पालन सही दिल से है। पर होता कहाँ है ? चाहे अन्य मंदिरों में या मस्जिदों में या गिरजाघर में शांति मिल जाय, पर यहाँ न मिलना चाहिए। मंदिर की देहरी में घुसते ही मौन का व्रत हो जाता है। गिरजाघर में जिसने देखा हो, एक सूई की भी आहट नहीं होती है जब उनकी स्तुति का टाईम होता है। पर यहाँ देखो तो धर्मसाधना के अनुकूल भी हम वातावरण बनाए रहें, ऐसी बात रखने की कोशिश नहीं करते। शांति से दर्शन करें, चुपके से रहें, मौन से दर्शन हो, मौन से पूजन हो।
मौन का प्राधान्य―भैया ! आपके ग्रन्थों में भी बताया है कि पूजा मौन से होनी चाहिए। 7 स्थानों में मौन बताया है ना, उसमें एक पूजा भी आ गयी। वहाँ यह अर्थ कर डालते हैं कि पूजा की बात तो जोर-जोर से करना, बाकी बातें न करना इसका नाम मौन है। भोजन के समय भी मौन बताया, वहाँ क्यों नहीं भोजन की बात बोलते ? टट्टी, पेशाब के समय में भी मौन बताया है वहाँ भी आप प्रसंग की बात जोर से क्यों नहीं चिल्लाकर कहते कि टट्टी का लोटा ले आओ। अरे भाई थोड़ा-थोड़ा बढ़-बढ़कर बात रखी तो अब चिल्लाकर पूजन करते हुए में कभी कहो लड़ाई भी हो जाती, कभी-कभी घर की बातें भी पूछने लगें, कोई लड़का आकर पूछने लगे कि दद्दा चाबी कहाँ धरी है ? तो पूजन करते हुए में बोल देते हैं कि जाओ भंडरिया में चाबी धरी है, वहाँ जाकर देखो।
धर्म की एकाग्रता―एक बार सहारनपुर में चातुर्मास किया, वहाँ पर जैन बाग का जो बड़ा मंदिर है ना, उसमें हमने कहा कि भाई 15 दिन को यह नियम रख लो कि इस मंदिर की देहरी में पैर धरते ही सभी लोग सुबह से 10 बजे तक मौन से रहेंगे। सो प्रात:काल से 10 बजे तक जो भी लोग दर्शन पूजन करने वाले आएँ, सभी मौन से दर्शन पूजन करते थे। जब यह 10-12 दिन तक क्रम चला तो जो लोग पूजा कर रहे थे, अभिषेक कर रहे थे उन लोगों से हमने शाम को पूछा कि भाई होहल्ला करके पूजन करने से ज्यादा आनन्द मौन से पूजन करने में आता है या नहीं ? तो उन्होंने कहा कि हाँ आता तो है। तो यों धर्म के समय में हमें धर्म का ही ख्याल करना चाहिए और विकल्पों को तोड़ देना चाहिए।
आत्मचतुष्पदी―जो जीव बाह्य पदार्थों में आत्मरूप से श्रद्धान कर रहे हैं उन्हें बहिरात्मा कहते हैं और जो अपने अंत:स्वरूप को आत्मरूप से मानते हैं उन्हें अन्तरात्मा कहते हैं और जो निर्दोष पूर्ण विकासमय हो गए हैं उन्हें परमात्मा कहते हैं। इन तीन अवस्थाओं में जो सहजस्वरूप हैं उसे समयसार कहते हैं अथवा कारणशुद्ध जीव कहते हैं। इस कारण शुद्ध जीव के आश्रय से शुद्ध परिणतियाँ प्रकट होती हैं। अपने आपमें कैसी शक्ति है, क्या स्वभाव है ? यह जाने बिना शक्ति की व्यक्ति नहीं होती। इस प्रयोजन का पूरक जीव के सम्बन्ध में वर्णन चला था।
जीव की शुद्धता और अशुद्धता―यह जीव पर्यायरूप से शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार से होता है। जब तक जीव अशुद्ध है, इसकी पर्याय अशुद्ध है और इसी कारण गुण भी अशुद्ध है यद्यपि गुणों को स्वरूपदृष्टि से निरखा जाता है। तो शक्ति न शुद्ध होती, न अशुद्ध होती, गुण तो जो हैं सो ही हैं, किन्तु पर्याय कोई गुणों से भिन्न नहीं हुआ करती है। इस कारण गुणों को भी अशुद्ध कह सकते हैं। पर्याय तो अशुद्ध है ही और जब यह जीव शुद्ध हो जाता है तो इसके गुण शुद्ध थे ही और सर्वथा शुद्ध हो गए, इसकी पर्याय भी शुद्ध होती है। इस जीवतत्त्व को जानकर यहाँ इस बात पर बल देना है कि इस जीव की सब अवस्थाओं में रहने वाला जो सहज स्वभाव है उस सहज स्वभाव का परिचय अनुभव आश्रय हुए बिना जीव की शुद्धवृत्ति प्रकट नहीं होती।
दुर्लभ समागम के सदुपयोग का अवसर―भैया ! आज बड़ी योग्यता वाले भव में हम आप आए हैं और ऐसे उत्कृष्ट समागम को पाकर भी विषय कषायोंरूप बने रहते हैं और इस परिणति से यह दुर्लभ नरजीवन यों ही व्यतीत हो जाता है। जो समय व्यतीत हो चुकता है वह कितना ही उपाय किया जाय वापिस नहीं आया करता है। जिसकी जो उम्र हो चुकी है, उससे पहिला समय चाहे कि वापिस आ जाये तो क्या आ सकता है ? नहीं आ सकता है। छोटे बच्चों को उछलते कूदते देखकर आप भी यह सोचें, चाहें कि यह स्थिति जरा देर को आ जाये तो मरकर चाहे आ जाय पर जिन्दगी में वह बचपन की अवस्था कहाँ से लाओगे ? बचपन की अवस्था तो दूर जाने दो–एक मिनट को भी एक समय पहिले की अवस्था नहीं ला सकते। तो कितने वेग से हम आपके जीवन के क्षण गुजर रहे हैं और उन क्षणों में हम विकार विकल्प ममता जिनसे सिद्धि नहीं है उनमें उपयोग निरन्तर बनाए रहते हैं।
हमारा प्रयोजन―परवस्तु के प्रति जो निरन्तर विकल्प बनते हैं उन विकल्पों के कारण परपदार्थों के परिणमन हो जाते हैं क्या ? उनमें अपने विचार के अनुसार कार्य होता है क्या ? नहीं। उनसे तो कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। बाह्य में उनका जो कुछ होना है वह होता है। उनमें हमारे विचार का कार्य कारण सम्बन्ध भाव नहीं है, किसी पर की दशा सुधारने बिगाड़ने की क्षमता नहीं है, फिर भी हम अपने को कर्ता मानने का आशय अन्तर में बनाए हुए हैं उससे ही विपत्तियाँ आती हैं। इस जीवतत्त्व को जानकर इस बात पर आना है कि हम बाह्य के विकल्पों को तोड़कर और अपने आपके सम्बन्ध में भी अध्रुव भाव के विकल्प को तोड़कर सहजस्वभाव की दृष्टि बनाएँ, इस पद्धति से जीवतत्त्व को जानें तो यह तत्त्वार्थ श्रद्धान का काम करेगा।
पुद्गल तत्त्वार्थ―दूसरा द्रव्य है पुद्गल, जो गलन और पूरण का स्वभाव रखता है उसे पुद्गल कहते हैं। जो विशाल बन जाये, गलकर टुकड़े हो जाये ऐसा बिछड़ने का और जुड़ने का जिसमें स्वभाव पड़ा हुआ हो उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। कोई दो जीव मिलकर एक पिण्ड नहीं बन सकते हैं और जब मिलते ही नहीं है तो उन जीवों के बिछुड़ने का उपाय ही कहाँ से कहा जाय ? जीव-जीव न तो मिलता है और न बिछुड़ता है। पुद्गल-पुद्गल तो मिल जाते हैं और बिछुड़ जाते हैं अर्थात् वे एक पिण्ड रूप हो जाते हैं और फिर अलग-अलग हो जाते हैं। परमार्थ से तो उन पुद्गलों में भी एक अणु दूसरे अणु का सत्त्व नहीं रखता है, लेकिन ऐसा पिण्ड रूप हो जाता है कि वे मिलकर एक हो जाते हैं और बिछुड़कर अलग हो जाते हैं।
पुद्गल को छोड़कर अन्य द्रव्य में पूरण गलन का अभाव―पुद्गल को छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्य में यह बात नहीं है। धर्मद्रव्य एक है वह भी किसी द्रव्य में मिल नहीं सकता। अधर्मद्रव्य भी एक है, वह भी अन्यद्रव्य से मिल नहीं सकता। आकाश काल ये भी अन्य किसी द्रव्य में नहीं मिलते और जीव भी किसी अन्य द्रव्य से नहीं मिल सकता। पुद्गल पुद्गल के साथ ही बंधन को प्राप्त होकर एक पिण्ड होता है। दृश्यमान् ये समस्त पदार्थ जैन सिद्धान्त में पुद्गल शब्द से कहे गए हैं।
पुद्गल शब्द की उपयुक्तता―पुद्गल छोड़कर और कोई शब्द ऐसा फिट नहीं बैठता है इस चीज को व्यपदिष्ट करने में कि पूरा भाव आ जाय और वह अर्थ किसी दूसरे पदार्थ में न जाय। बताओ कौन-सा ऐसा नाम है ? एक नाम प्रसिद्ध है भौतिक पदार्थ। रूढ़िवश नाम धर लें, पर भौतिक का अर्थ क्या है कि जो होवे सो भूत और भूतों की जो अवस्था है उसे भौतिक कहते हैं। होता क्या नहीं है? सभी हैं और उनकी अवस्था चलती है ? कौन-सा शब्द है जिससे हम इसका ठीक नाम कह सकें ? पुद्गल शब्द एक ऐसा व्यापक अर्थ भरा शब्द है कि सब द्रव्यों को छोड़कर समस्त परमाणुओं में इसका अर्थ मिलता है। जो पूरे और गले सो पुद्गल है। पूरने का अर्थ है कि बहुत से पुद्गल मिलकर एक पिण्ड बन जायें और गलने का अर्थ है कि वे बिखर जायें। ऐसे पूरने गलने के स्वभाव से युक्त पुद्गल द्रव्य होते हैं।
पुद्गल द्रव्य की विशेषता―पुद्गल द्रव्य की विशेषता है मूर्तपना। रूप, रस, गंध, स्पर्श इन शक्तियों का इनके परिणमन का आधारभूत जो होता है उसे मूर्त कहा करते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श केवल पुद्गलद्रव्य में ही पाये जाते हैं। जीव में कोई रंग नहीं होता कि कोई नीला हो, पीला हो, काल हो, सफेद हो, न कोई इसमें रस है कि खट्टा हो, मीठा हो और न स्पर्श है कि कोई जीव चिकना हो, रूखा हो, ठंडा हो या गर्म हो। न किसी प्रकार की गंध है। यह तो केवल ज्ञान द्वारा ही ज्ञान में आ सकने योग्य है जीव, किन्तु पुद्गल में रूप, रस, गंध, स्पर्श ये चारों शक्तियाँ पायी जाती हैं। इनके समस्तगुण मूर्त हैं। जैसे चेतन में बताया गया था कि चेतन के समस्तगुण चेतन हैं, पर गुण के निजी स्वरूप को देखकर यह भेद किया जा सकता है कि चेतने वाले गुण तो इसमें दो ही हैं और शेष गुण सब न चेतने वाले हैं अर्थात् अचेतन हैं। इसी तरह पुद्गलद्रव्य में जो अस्तित्व गुण पाया जाता है वह क्या मूर्त है ? मूर्त पुद्गल में पाया जाता है इसी कारण मूर्त है, पर अस्तित्व का निजी स्वरूप निरखें तो अस्तित्व तो कोई रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं रख रहा है, उसका काम तो ‘‘है’’ करना है। लेकिन वह अस्तित्व रूपादिकमयता से पृथक् नहीं है। इस कारण पुद्गल में जितने भी गुण हैं वे सब मूर्त गुण हैं, ये अचेतन हैं और इनके जितने भी गुण हैं वे सब अचेतन हैं। पुद्गल में चेतनगुण कोई नहीं है।
पुद्गल की गति शक्ति―पुद्गल में क्रियावती शक्ति भी पायी जाती है। वैसे देखने में तो क्रिया पुद्गल में मालूम होती है, जीव में नहीं मालूम होती है, पर कुछ विचारने से क्रिया जीव में मालूम होती है, पुद्गल में मालूम नहीं होती है। लेकिन क्रिया दोनों द्रव्यों में है। भले ही पुद्गल की क्रिया में अन्य कोई पुद्गल अथवा जीव निमित्त होता है, लेकिन क्रिया रूप से परिणत द्रव्य ही अपनी क्रिया को करता है। पुद्गल में यह गमन करने की शक्ति है, मोटे रूप से देखने पर ऐसा लगता है कि यह पुद्गल जब पिण्ड रूप बनता है तो इसमें अन्य के प्रयोगवश इसकी गति हुआ करती है, पर बात ऐसी नहीं है। यह भी बात, पर पुद्गल में गति स्वभाव से पड़ी हुई है। एक अणु जितनी तीव्रगति कर सकता है उतनी तीव्र गति पुद्गल स्कंध नहीं कर सकता है। एक परमाणु 1 समय में 14 राजू तक गमन कर सकता है पर कोई पुद्गल स्कंध 1 समय में 14 राजू गमन नहीं कर पाता है। कदाचित् ऐसा हो सकता है कि कोई जीव नीचे से गुजर कर लोक के अंत में उत्पन्न होवे, अशुद्ध जीव की बात यह हो सकती है तो वह एक समय में 14 राजू पहुँच जायेगा और उसके साथ जो तैजस स्कंध हैं, कार्माण स्कंध हैं वे एक समय में पहुँच जायेंगे पर स्वतंत्र जीव का सम्बन्ध न पाकर पुद्गल स्कंध गमन न कर पाये, पर परमाणु में इतनी शक्ति है कि एक समय में वह 14 राजू तक गमन करता है। तो यह गति क्रिया पुद्गल में पायी जाती है और जीव में भी पायी जाती है।
जीव और पुद्गल के विवरण की विशेषता―इन 6 द्रव्यों में दो द्रव्यों का अधिक परिचय है और ये ही दो द्रव्य बोलने चालने में चर्चा में सब काम आते हैं। इन ही दो द्रव्यों का वर्णन शात्रों में विस्तार से है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य के सम्बन्ध में कभी थोड़ा-सा वर्णन आता है और जितने ग्रन्थ भरे पड़े हैं वे सब जीव और पुद्गल की बात बताने से भर गए हैं।
पदार्थ का एकत्व इस पुद्गलद्रव्य को जानकर हमें शिक्षा की बात क्या मिलती है ? प्रथम तो ज्ञानकला से पुद्गल को जाना जाय। एक-एक अणु ही वास्तव में पुद्गलद्रव्य है, और उन अणुओं का केवल अपने आपमें ही परिणमन है। उस प्रत्येक अणु में रूप, रस, गंध, स्पर्श चार शक्तियाँ हैं। वे अपने उपादान कारण से परिणमते हैं और कदाचित् अन्य अणु का निमित्त पाकर वह बंधनरूप भी हो जाय, एक पिण्ड भी बन जाय, किसी भी परिस्थिति में हो तो भी प्रत्येक अणु का उस-उस अणु में ही अपना-अपना परिणमन है।
वस्तु के एकत्व के दर्शन में हितोद्गम―कोई अणु किसी दूसरे अणु में परिणमन नहीं करता है और ऐसे पुद्गल को स्वतंत्र दृष्टि से देखा जाय और अणु ही अणु आपके उपयोग में रह जाय तो फिर यह भींत और ये मकान ये सब चीजें आपके उपयोग से जायेंगी। आपके घर में ये मायारूप स्थान नहीं पा सकते, जबकि पुद्गल की स्वतंत्रता की दृष्टि उपयोग में वर्त रही हो। अच्छा है, सब ढा जाओ। इन सबके उपयोग में रहने से मेरी बरबादी ही है, कुछ हित नहीं हो रहा है, व्यर्थ की बातों में समय गुजरता है। व्यर्थ की कल्पनाओं में यह जीवन व्यतीत होता है। न आये यह माया रूप कुछ उपयोग में यह बहुत भली बात है। किन्तु ऐसी स्थिति कहाँ बन पाती है ? गृहस्थावस्था में तो अनेक बातें, अनेक झंझट, अनेक कर्तव्य हैं, सबकी ओर निगाह रखना होता है। फिर भी कुछ समय जरूर ऐसा होना चाहिए कि जिस समय केवल अपने में अपने ही नाते का कार्य हो। अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का विस्मरण करदें। ऐसा एक आध मिनट भी समय व्यतीत हो तो इस तरह प्राप्त होन वाली शुद्धि का प्रभाव रात दिन रह सकता है।
शुद्ध दर्शन का प्रभाव―भैया ! बिजली का कितना परिमाण है पर उसका असर कितना व्यापक है ? उससे भी अधिक शुद्ध अंतस्तत्त्व की सत्तामात्र देखने का भी असर इस रात दिन में रह सकता है। जैसे किसी विलक्षण बात के निरखने से घंटों तक उसकी याद और उसका असर रहा करता है। तो सर्व लोक से विलक्षण एक निज अपूर्व अनुभूति का असर, प्रभाव, संस्कार और आनन्द का तांता बहुत काल रह आये तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
पदार्थों की भूतार्थपद्धति से अभिगतता―पदार्थों को हम भूतार्थ पद्धति से निरखा करें। ये परिणमन हैं, ये परिणमन अमुक-अमुक गुण के हैं और वे समस्त गुण एक भेदमात्र हैं, वे सब एक द्रव्यरूप हैं, अमुक द्रव्यरूप है। इस तरह पर्यायों को जानकर गुणों में विलीन कर डालें और फिर गुणों को जानकर गुणों को द्रव्य में विलीन कर सकें तो इस प्रकार से पदार्थ का निरखना सम्यक्त्व का कारण बनता है और यही तत्त्वार्थ श्रद्धान कहलाता है। यों तो सभी श्रद्धा रख रहे हैं यह भींत है, यह मकान है, यह दरी है और जो जैसी चीज है वैसी सब जान रहे हैं पर ऐसा जानना सम्यक्त्व का कारण नहीं है किन्तु स्वरूपविपर्यय, कारणविपर्यय, भेदाभेद विपर्यय इन–तीन विपरीत आशयों से रहित भूतार्थ पद्धति से विचारो तो जो ये ज्ञान विकल्प हैं, वे सम्यक्त्व का कारण हुआ करते हैं।
सम्यक्त्व का भाव―सम्यक्त्व का अर्थ है समीचीनता, भलापन। यह समीचीनता विधिरूप से हम कैसे ज्ञात करें ? विधिरूप से जो ज्ञात होगा वह ज्ञान में शामिल हो जायेगा। तब उसको आचार्यों ने विपरीत अभिप्राय रहित आशय को सम्यक्त्व कहा है। इस प्रकार निषेध के रूप से वर्णन किया है।
रत्नत्रय में गुणत्रयी―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को हम उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की मुख्यता से निरखा करें तो इसका स्वरूप शीघ्र ध्यान में आता है। सम्यग्दर्शन है विपरीत अभिप्राय के व्यय का नाम। सम्यग्ज्ञान है तत्त्व के निर्णय का नाम और सम्यक्चारित्र है ज्ञान की ध्रुवता का नाम। तो सम्यक्चारित्र ध्रौव्य का मापक है और सम्यग्ज्ञान उत्पाद का और सम्यग्दर्शन व्यय का मापक है। चीज आत्मा में एक होती है, तीन नहीं होती हैं। पर वह एक ऐसी विलक्षण परिणति है कि उस परिणति को हम यथार्थ एक शब्द में नहीं बता सकते हैं। तब जितने कार्य होते हैं याने परिणमन विदित होते हैं उन परिणमनों के द्वारा हम वस्तु के स्वरूप पर पहुँचते हैं तो जो श्रद्धा का परिणमन है वह दर्शन, जो जानन का परिणमन है वह है ज्ञान और जो स्थिरता का परिणमन है वह है चारित्र।
उद्देश्य की व्यक्ति―भैया ! जिस व्यक्ति के जो अन्दरूनी इच्छा होती है वह व्यक्ति किसी भी जगह पहुँचे वह बातचीत में अपनी ही मुद्दई की बात रख देता है। जैसे जिसको खाने की ही मन में लगी है ऐसा पुरुष चार आदमियों में बैठकर जहाँ थोड़ी गुणियों की कथा भी हो रही हो, तीर्थयात्रा की चर्चा हो रही हो तो बीच में वह अपनी भोजन सम्बन्धी भी किसी न किसी रूप में बात रख देगा। वहाँ अच्छा भोजन बनता है, फलाने के संग में अच्छा भोजन मिलता है, अमुक महाराज के संग में सूखा रूखा ही भोजन मिलता है। ऐसी कोई न कोई झलक निकाल ही देगा। जिसको धर्म की रुचि है वह पुरुष कदाचित् चार आदमियों की गप्पों में भी फंस गया हो, थोड़ा बोलना भी पड़ता हो तो कोई धार्मिक बात कहे बिना उससे रहा न जायेगा। क्योंकि उसकी धर्म में ही रुचि और मंसा है। इसी प्रकार जिस ग्रन्थ की जो मंसा होती है, जो ग्रन्थ जिस विषय को लेकर चलता है उस ग्रन्थ में जो कुछ भी वर्णन किया जायेगा उन वर्णनों के बीच में अपने उद्देश्य की बात रखे बिना नहीं रह सकता। यदि अपने उद्देश्य की पुष्टि न हो रही हो तो वह उस ग्रन्थ का भाग ही नहीं है।
शुद्धोत्तरी पद्धति का प्रयोग―इसमें जो गुण और पर्यायों का वर्णन किया गया है उस वर्णन से हमें ऐसी रीति और पद्धति अपनानी चाहिए और उस पद्धति से ही सुनना चाहिए कि जिससे पर्याय गुणों में विलीन हो और गुण द्रव्य में विलीन हो और हमारी दृष्टि एक अभेद रूप बन सके। इस पद्धति और रीति से पुद्गल तत्त्व को जान जाय तो यह भी तत्त्वार्थ कहलाता है। इस तरह तत्त्वार्थ का श्रद्धान हमारे सम्यक्त्व का कारण होता है। इस प्रकरण में पुद्गलद्रव्य का संक्षिप्त वर्णन हुआ।
प्रकरण प्राप्त धर्मद्रव्य का स्वरूप―आप्त, आगम और तत्त्वार्थ के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इस प्रसंग में आप्त और आगम का स्वरूप तो बता चुके थे। इस समय तत्त्वार्थों का वर्णन चल रहा है। तत्त्वार्थ 6 होते हैं जिनका यथार्थ श्रद्धान करने से सम्यक्त्व होता है उनमें जीव और पुद्गल इन दो तत्त्वार्थों का वर्णन हो चुका है, अब धर्मद्रव्य के सम्बन्ध में कहा जा रहा है। धर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो जीव और पुद्गल की गति में निमित्तभूत हो। गति क्रिया केवल जीव और पुद्गल की होती है अन्यद्रव्य निष्क्रिय होते हैं और साथ ही वैभाविकी शक्ति भी जीव और पुद्गल में होती है। जिससे गति दो-दो प्रकार की हो गयी–एक जीव की स्वभाव गति और दूसरी जीव की विभाव गति। इसी तरह पुद्गल की दो प्रकार की गतियाँ हो जाती हैं–एक तो पुद्गल की स्वभावगति और दूसरी पुद्गल की विभाव गति। चाहे स्वभावगति में परिणत हों, चाहे विभावगति में परिणत हों, गति परिणमन जीव पुद्गल की उस प्रकार की स्वभावगति अथवा विभावगति में जो निमित्तभूत है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं।
जीव और पुद्गल में गतिद्वैविध्य―जीव के स्वभावगति होती है, जब जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है अर्थात् द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म तीनों प्रकार के नयों से सर्वथा रहित हो जाता है अर्थात् सिद्ध होता है। तो उसकी गति स्वभावगति कहलाती है। वह 7 राजू प्रमाण क्षेत्र में एक समय में उल्लंघकर लोकाकाश के शिखर पर विराजमान हो जाता है, और सिद्ध प्रभु की गति को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों की गति विभाव गति कहलाती है। जब तक जीवास्तिकाय के साथ पौद्गलिक कर्मों का सम्बन्ध बना हुआ है तब तक जीव की जो गति होती है वह विभावगति होती है। इसी प्रकार पुद्गल में जो शुद्ध अखण्ड अणु है उन अणुओं की जो गति होती है वह स्वभावगति कहलाती है और वह अणु दूसरे अणुओं में बद्ध होकर पुद्गल स्कंध का रूप ले ले तब उनकी जो गति होती है वह विभावगति होती है। दोनों प्रकार की गतियों से परिणत जीव पुद्गल के गमन में जो हेतुभूत है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं।
निमित्त और उपादान के सम्बन्ध की सीमा―पुण्य से अथवा आत्मधर्म से प्रयोजन नहीं है, किन्तु एक ऐसा विशाल अमूर्त द्रव्य अखण्ड पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है जिसका निमित्त पाकर जीव व पुद्गल अपनी गति क्रिया से परिणत होता है। निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध में यह सदा ध्यान रखना चाहिए कि निमित्तभूत पदार्थ अपनी द्रव्यगुण पर्याय क्रिया कुछ भी अपने से बाहर कहीं फेंकता नहीं है, अन्य द्रव्य में देता नहीं है उसमें प्रेरणा का उपचार किया जाता है। इसका कारण यह है कि परिणममान उपादान ऐसी अपने में कला रखता है कि अनुकूल निमित्त को पाकर वह उपादान स्वयं की परिणति से उस प्रकार परिणम लेता है। इस ही तथ्य को लोक में शीघ्र प्रसिद्ध करने के लिए इन शब्दों में कहा जाता है कि अमुक जगह ऐसा किया।
प्रेरणा वाली बात का उदाहरण―पानी गरम हो गया अग्नि का सन्निधान पाकर या सूर्य का सन्निधान पाकर गरमी फैल गयी, इससे और बढ़कर प्रेरणा वाला दृष्टांत क्या दिया जा सकता है ? यहाँ भी स्वरूप दृष्टि करके निहारें तो अग्नि ने अपने द्रव्य गुण पर्याय को अपने से निकालकर पानी में नहीं डाला, किन्तु ऐसा ही सम्बन्ध है कि अग्नि का निमित्त पाकर यह पानी अपनी शीत पर्याय को छोड़कर उष्णपर्यायरूप परिणम गया। जैसे कोई कभी गाली देने वाला सामने आ खड़ा हो और नाम लेकर गालियाँ दे दे तो यह सुनने वाला क्रुद्ध हो जाता है। तो खूब आँखों से देख लो, क्या गाली देने वाले ने उसके क्रोध पर्याय पैदा की ? क्या वहाँ से कोई क्रोध की किरणें निकली हैं और इस सुनने वाले में आयी है ? हुआ क्या वहाँ कि यह सुनने वाला स्वयं कषाय की योग्यता रख रहा था, सो अपने आपमें कल्पना बनाकर उस गाली देने वाले को लक्ष्य में लेकर स्वयं क्रोध रूप से परिणम गया है।
धर्मद्रव्य की उदासीननिमित्तता―इसी प्रकार प्रत्येक निमित्त अपने आपमें ही वे अपने सर्वस्व परिणमन किया करते हैं। यह तो उपादान की ही ऐसी कला है कि योग्य परिणममान उपादान अनुकूल निमित्त को पाकर स्वयं अपनी परिणति से परिणम जाता है। जीव और पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य इसी भाँति निमित्तभूत है और कई जगह तो निमित्त पाकर परिणमना अवश्य करके हो जाता है। जैसे अग्नि का सन्निधान पाकर जल का गर्म होना। योग्य समय पर सूर्य के सन्निधान में पत्थर का तेज गरम हो जाना, परन्तु धर्मद्रव्य और जीव पुद्गल के गमनरूप कार्य में यह अवश वाली बात नहीं होती है। जीव पुद्गल चले, वह अपनी गति का यत्न करे तो वहाँ धर्मद्रव्य निमित्तभूत है।
धर्मद्रव्य के निमित्तत्व का उदाहरण―धर्मद्रव्य की निमित्तभूतता बताने के लिए उदाहरण जल और मछली का उपयुक्त बैठता है। मछली के गमन करने में जल निमित्त है किन्तु वह जल वैसा निमित्त नहीं है जैसा कि अग्नि का सन्निधान पाकर जल गरम हो ही जाता है। इस तरह उस मछली को चलना ही पड़ता है ऐसा नहीं है। वह मछली चलना चाहे चलने का यत्न करे तो जल का निमित्त पाकर खुशी-खुशी अच्छी कलापूर्ण चाल से लटक मटक कर चला करती है। जल के बिना जमीन पर पड़ी हुई मछली चलना चाहती है, यत्न करती है और बहुत बड़ा यत्न करती है क्योंकि तकलीफ और मरना किसे पसंद है, किन्तु मछली वहाँ नहीं चल पाती है। तो जैसे मछली के चलने में जल निमित्तभूत है इस ही प्रकार समस्त जीव पुद्गल के चलने में यह धर्मद्रव्य निमित्तभूत है।
धर्मद्रव्य की विशेषता―यह धर्म अमूर्तिक है, पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। कुछ युक्तियों से अंदाज होता है और आगम में इसका विशेष वर्णन भी पाया जाता है। है कोई ऐसा सूक्ष्म तत्त्वार्थ कि जिसका आश्रय करके ये जीव पुद्गल गमन करते हैं ? एक धर्मद्रव्य एक अखण्ड वस्तु है, वह अपने आप में आपको लिए हुए है। उसका असाधारण लक्षण क्या है यह नहीं बताया जा सकता है क्योंकि वह व्यवहार्य ही नहीं है, फिर भी वह किसी कार्य में निमित्तभूत होता है, ऐसी दृष्टि करके इस धर्मद्रव्य का असाधारण लक्षण गतिहेतुत्व कहा गया है। असाधारण लक्षण वह होता है जो निरन्तर परिणमता रहे। तो धर्मद्रव्य में असाधारण स्वभाव वह होगा जो निरन्तर अगुरुलघुत्व गुण के द्वार से परिणमता रहता है। यह गतिहेतुत्व असाधारण लक्षण व्यवहारदृष्टि से है दो द्रव्यों का या अनेक द्रव्यों का सम्बन्ध बताकर कोई वर्णन करना व्यवहारदृष्टि का कार्य है। हो, पर जिस किसी भी उपाय से द्रव्य की पहिचान हो सके उसको लक्षण कहते हैं।
धर्मद्रव्य की व्यापकता―यह गतिहेतुत्व धर्मद्रव्य में ही पाया जाता है अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता है, इसलिए यह असाधारण चिह्न तो है ही, ऐसा गति हेतुत्व लक्षण से परिचय में आने वाला धर्मद्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र व्यापक है। कैसा व्यापक ? कि जैसे घड़े में पानी भरा हो। उस पानी के बीच में कोई अंश ऐसा नहीं रहता कि जहाँ पानी न रहे और आसपास रहे। वह तो जितने में पानी है खूब व्याप करके है। तत्त्वार्थ सूत्र में धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य की विशेषता बताने में एक सूत्र कहा है। ‘धर्माधर्मयो: कृत्स्नो।’ धर्म और अधर्मद्रव्य का आवास कृत्स्न लोक में है। कृत्स्न का अर्थ है सर्व। यह सूत्र आप किसी से पढ़ायें तो कोई विरला विद्वान् ही शुद्ध बोल पायेगा। कृत्स्न शब्द इतना क्लिष्ट है कि बिलकुल शुद्ध जिह्वा चल सके ऐसा बहुत कठिन होगा और अर्थ उसका है सब, सबमें। तो कृत्स्न शब्द के पर्यायवाची और भी शब्द हैं, उन्हें न रखकर पूज्यपाद उमास्वामी ने कृत्स्न शब्द रखा है। इसका यह अर्थ है कि जैसे कोई व्याख्यान देता है तो व्याख्यान का आधा मतलब व्याख्यानदाता के मुख से या हाथ से ज्ञात हो जाया करता है। तो कृत्स्न शब्द के प्रयोग में जैसे जीभ सारे मुँह में व्याप करके चल उठी तो आधा ज्ञान लोगों को इससे हो जाता है कि धर्म और अधर्मद्रव्य इस तरह व्यापकर हैं जैसे कृत्स्न शब्द कहकर जीभ सारे मुँह में व्याप जाती है। यह धर्मद्रव्य समस्त लोक में व्यापक है। अमूर्त अखण्ड है। अंश-अंशरूप से बीच-बीच में धर्मद्रव्य अंश अंशरूप से रहे, ऐसा नहीं है।
अमूर्तपदार्थ के परिणमन के परिचय की दुर्गमता―यह धर्मद्रव्य भी निरंतर उत्पाद व्यय कर रहा है। कैसे उत्पाद व्यय करता है ? कौन-सी परिस्थिति नई बनती है और पुरानी विलीन होती है ? हम नहीं बता सकते। ऐसे मूलतत्त्व को आगम में श्रुत परम्परा से बताकर अंत में यह कहना पड़ेगा कि वह साक्षात् तो केवली गम्य है और आगमानुसार श्रुतकेवलियों द्वारा भी गम्य है। अमूर्त पदार्थ का क्या परिणमन होता है और पुराना परिणमन कैसे विलीन होता है, इस बात को बताया नहीं जा सकता, किन्तु केवल जीवद्रव्य की बात स्पष्ट समझ में आती है कि क्या नया परिणमन होता है और क्या पुराना परिणमन विलीन होता है ?
अमूर्त जीव के परिणमन परिचय की सुगमता का कारण―जीवद्रव्य की बात इस कारण समझ में आती है कि इसकी बात खुद पर पड़ रही है। यदि यह अमूर्त खुद अपन न होता तो जीव की बात भी समझ में न आती। बल्कि द्रव्यकर्म का परिचय नहीं हो सकता, पर भावकर्म का परिचय हो सकता है। द्रव्यकर्म यद्यपि मूर्तिक है स्थूल है और भावकर्म तो अमूर्त है, सूक्ष्म है और द्रव्यकर्म भी इस जीव में ठसाठस पड़ा है और भावकर्म भी इस जीव में ठसाठस भरा है, लेकिन द्रव्यकर्म का हम परिचय नहीं कर पाते और भावकर्म का हम परिचय कर लेते हैं क्योंकि वह बात तो खुद पर बीत रही है।
धर्मद्रव्य का भूतार्थपद्धति से अवगम―ऐसा यह अमूर्त धर्मद्रव्य भूतार्थ पद्धति से जानो कि यह धर्मद्रव्य है, वह अनन्त शक्तियों से सम्पन्न है और उसका प्रतिसमय परिणमन चलता है। हम यद्यपि परिणमन भी नहीं जान रहे है कि धर्मद्रव्य का क्या परिणमन है और उन परिणमनों के आधारभूत गुण भी नहीं समझ रहे हैं किन्तु आगम और युक्ति बल से हम उसे पहिचान रहे हैं। फिर भी है कोई ऐसा पदार्थ जो जीव और पुद्गल के गमन में निमित्तभूत है ? तो जो भी है वह गुण पर्यायवान अवश्य होता है। उसमें गुण है और उनका परिणमन है। वह परिणमन गुण है और वह गुण एक धर्मद्रव्यरूप है। ऐसा इस अमूर्त धर्मद्रव्य का संक्षेप में स्वरूप जानना।
अधर्मद्रव्य का स्वरूप―इसके बाद अधर्मद्रव्य का वर्णन किया जा रहा है। जो जीव और पुद्गल की स्थिति में निमित्तभूत हो उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। स्थिति के मायने ठहरना। ठहरना और रहना इन दोनों में अन्तर है। ठहरना कहलाता है गमन कार्य में परिणत पदार्थ का रुकना इसका नाम ठहरना कहलाता है और फिर सदाकाल वही रहा करे, वह रहना कहलाता है। रहने की बात नहीं कही जा रही है, ठहरने की बात कही जा रही है। स्वभावस्थिति और विभावस्थिति की क्रिया में परिणत जीव पुद्गल की स्थिति में जो निमित्तभूत है उसको अधर्मद्रव्य कहते हैं।
स्वभावस्थिति व विभावस्थिति―भैया ! जीव की स्वाभाविक स्थिति भी होती है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म–इन तीनों से रहित होने पर यह जीव एक समय में लोक के अंत में पहुँचता है तो उस एक समय की गति को स्वभावगति कहते हैं और वहां ठहर जाने को स्वभाव स्थिति कहते हैं। उस दशा के अतिरिक्त अन्य समस्त दशाओं में जो जीव का ठहरना हुआ करता है वह सब विभावस्थिति है। इसी प्रकार शुद्ध अणु गति करके ठहरे वह है पुद्गल की स्वभावस्थिति और पुद्गल स्कंधों का गति करके ठहरना यह सब है विभावस्थिति। स्वभावस्थिति और विभावस्थिति में परिणत जीव, पुद्गल के ठहरने में जो हेतुभूत है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। इस अधर्मद्रव्य का भी अन्य समस्त वृत्तान्त धर्मद्रव्य की ही तरह है। यह अमूर्त है, अगुरुलघुत्व गुण के द्वार से निरन्तर परिणमता रहता है। इसका व्यावहारिक असाधारण लक्षण स्थिति में निमित्तभूत होना है ये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य बराबर के विस्तार के हैं। पूरे लोकाकाश में सर्वत्र व्यापक हैं। यहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म चार तत्त्वार्थों का वर्णन हुआ है।
आकाशद्रव्य का स्वरूप―अब आकाशद्रव्य का लक्षण किया जा रहा है। जो पाँचों द्रव्यों को अवगाह दे, पाँचों द्रव्यों के अवगाह का जो बाह्य आधार हो, निमित्त हो उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। पाँचों द्रव्यों का मतलब है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल। आकाश तो यह स्वयं ही है। इसका तो लक्षण ही किया जा रहा है। ये समस्त द्रव्य आकाशद्रव्य में अवगाहित है। तिस पर भी स्वभावदृष्टि से देखा जाय तो आकाश में तो केवल आकाश ही है। आकाश में जीव पुद्गलादिक अन्य द्रव्य नहीं हैं। यह बात जरा कठिनता से पहिचानी जा सकेगी, क्योंकि एकदम लोगों के सही परख में आ रहा है कि वाह हम यह आकाश में ही तो पड़े हुए हैं।
परमार्थत: प्रत्येक के स्वयं का स्वयं में अवगाह―भैया ! आकाश का और हम लोगों का ऐसा सम्बन्ध योग हुआ तो है फिर भी हमारा स्वरूपास्तित्व हममें ही है। किसी का स्वरूपास्तित्व किसी अन्य में नहीं है। कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि हम आकाश से अलग पड़े थे तो किसी ने कृपा करके हमें आकाश में धर दिया हो कि भाई तुम आकाश बिना गड़बड़ ढंग में क्यों पड़े हो ? आकाश में कलात्मक ढंग से रहो, ऐसा तो किया नहीं गया। अनादि से ही आकाश है और वे ही के वे ही अनादि से हम आप हैं। तो परमार्थ से किसे आधार कहा जाय और किसको आधेय कहा जाय ? निश्चय से यद्यपि ऐसा है, फिर भी हम जब बाह्य प्रसंग को देखते हैं तो यह बात भी सत्य है कि पाँचों द्रव्यों का अवगाह आकाश में है। और आकाश कहते उसे हैं जो पाँचों द्रव्यों को अवगाह देने में समर्थ् हो।
कालद्रव्य का विवरण―अंतिम तत्त्वार्थ है कालद्रव्य। कालद्रव्य उसे कहते हैं जो पाँचों द्रव्यों की वर्तना का निमित्तभूत हो। काल तो यह स्वयं है ही। यह स्वयं भी परिणमता रहता है अपने ही उपादान और निमित्त से और अन्य द्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत होता है। यह कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक पूर्ण कालद्रव्य ठहरा हुआ है और वह कालद्रव्य अपने प्रदेश पर स्थित द्रव्य के परिणमन का हेतुभूत है। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि यह कालाणु पर स्थित परिणमन वाली बात जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म में घटित हो जाती है, पर यह आकाशद्रव्य जो इतना विस्तृत है लोकाकाश भी है और अलोकाकाश भी है। अलोकाकाश में कालद्रव्य नहीं है, फिर वहाँ का आकाश कैसे परिणमेगा ? एक यह समस्या आ जाती है। किन्तु यह जानना कि आकाश एक ही अखण्ड द्रव्य है, लोकाकाश में व्याप्त कालद्रव्य का निमित्त पाकर आकाश परिणमता है। उसे परिणमने के लिए अपने समस्त प्रदेशों पर निमित्त के सन्निधान की आवश्यकता नहीं है। एक अखण्डद्रव्य का निमित्तभूत चाहिए। सो कालद्रव्य यह है ही।
तत्त्वार्थों की श्रद्धाविधि―इस तरह इन 6 तत्त्वार्थों का सामान्यस्वरूप से वर्णन किया है। जब सब बातें स्पष्ट विदित हो जाती हैं तो एक दृढ़ता से अवगम और श्रद्धान् किए हुए इन तत्त्वार्थों के यथार्थ श्रद्धान् से सम्यक्त्व जगता है। इसका यथार्थ श्रद्धान् यही है कि इन समस्त द्रव्यों की स्वतंत्रता हमारे उपयोग मं विदित हो जाय।
तत्त्वार्थों के वर्णन का उपसंहार―छ: तत्त्वार्थों में जीव एक है और अजीव 5 हैं। मूर्त 1 है और अमूर्त 5 हैं। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल–ये 5 द्रव्य अमूर्त हैं। इनमें जीवद्रव्य के तो शुद्धगुण शुद्धपर्याय भी है, और अशुद्धगुण अशुद्धपर्याय भी है किन्तु शेष चार अमूर्तद्रव्यों के शुद्ध गुण हैं और शुद्धपर्यायें हैं। इस प्रकार इन 6 तत्त्वार्थों का वर्णन हुआ। इनका श्रद्धान् सम्यक्त्व का कारण होता है। जिनेन्द्र भगवान् के मार्गरूपी समुद्र के बीच यह 6 द्रव्यों का वर्णन रत्न की तरह है। जो पुरुष इन 6 तत्त्वार्थों का यथार्थस्वरूप अपने उपयोग में लेता है उसे शांति का मार्ग मिलता है और निकट भविष्य में वह सर्वसंकटों से मुक्त हो जाता है। इन 6 तत्त्वार्थों में से इस अधिकार में जीवतत्त्व का वर्णन कर रहे हैं। अजीवतत्त्व का वर्णन दूसरे अधिकार में होगा। इससे जीवतत्त्व का विशेष वर्णन करने के लिए कुन्दकुन्दाचार्य कह रहे हैं।