वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 2
From जैनकोष
समणमुहग्गदमट्ठं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाण।
एसो पणमिय सिरसा समयमिणं सुणह वोच्छामि।।2।।
सद् वचन रत्न―वीतराग सर्वज्ञदेवों की दिव्यध्वनि परंपरा से वीतराग श्रमणजनों के मुख से निकले हुए अर्थ को अर्थात् वस्तु के प्रत्येक प्रतिपादित वचनों को सिर से प्रणाम करके मैं इस समय को कहूंगा, हे भव्य जीवो ! तुम उसको ध्यान पूर्वक सुनो। यह ऋषि संतों का वाक्य चार गतियों के दु:ख का निवारण करने वाला है, और निर्वाण की प्राप्ति का उपायभूत है। प्रणाम करने के लिए वही कहा जाता है अथवा पूजा जाता है जिसके मार्ग के अनुसार चलकर अपने को सफलता प्राप्त होती है। ये प्रभु वीतराग सर्वज्ञदेव जिनकी मूर्ति स्थापित करके हम रोज पूजते हैं, अभिनंदन करते हैं उन्होंने जो मार्ग अपनाया था अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और परिग्रहत्याग महाव्रत, इन महान् व्रतों से और अनेक तपश्चरणों से अपने आत्मा को संयत करके अपने स्वरूप को केंद्रित करके जिसने आत्मविकास पाया है उन प्रभु के मार्ग पर जो चलेगा वही निहाल होगा।
सर्वज्ञोपदेश में हितकारिता के कारण―आप सर्वज्ञदेव का उपदेश इसलिए हितकारी है कि उनके उपदेश में वही बात कही गयी है जिस बात का पालन करके उन्होंने स्वयं विकास पाया है। कोई नदी को पार करके दूसरे पार पहुंच जाय तो उसको अधिकार है कि वह उस पार खड़े हुए लोगों को मार्ग का इशारा करे। इस रास्ते से चलना तो तुम इस पार आ जावोगे। जो नदी में कभी घुसा भी नहीं, देखा भी नहीं, उसे क्या अधिकार है कि मुसाफिरों को बताये कि देखो इस रास्ते से निकलना, तुम उस पार पहुंच जावोगे। प्रभु अरहंत देव और वीतराग श्रमण साधुसंत जन यह मार्ग अपनाकर उस पार पहुंच चुके व जा रहे हैं उनको अधिकार है कि हम सब संसारी प्राणियों को एक मार्ग बताये कि इस मार्ग से जावो। श्रमणों के महाश्रमण तो हैं सर्वज्ञ वीतराग और साधुसंतजन भी श्रमण कहलाते हैं। यह आगम वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन करता है। यह यद्यपि अनेक शब्द रचनावों से भरा हुआ है तो भी इसके बताने का मर्म केवल वस्तु स्वरूप है।
आप्तवचनों के आश्रय का महत्त्व―जो इस आगम के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करते हैं उनके नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव चार गतियों का निवारण हो जाता है। अत: आगम का अध्ययन सफल है। साक्षात् फल तो यह है कि जब वस्तु स्वरूप पर दृष्टि पहुंचती है तो परतंत्रता दूर हो जाती है, और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि रूप निर्वाण की प्राप्ति होती है, स्वतंत्रता मिल जाती है। आचार्य देव कह रहे हैं कि इस ग्रंथ में पदार्थों का स्वरूप बतावेंगे। जिस स्वरूप को सुनकर आपका उपयोग ऐसा निर्मल होगा, ऐसे विविक्त आत्मतत्त्व की ओर अभिमुख होगा कि चार गतियों का भोगना छूट जायगा। आगम में मुक्ति का उपाय दिखाया गया है। इस आगमद्रव्य को प्रणाम करके तुम सुनो। इस शास्त्र को प्रणाम करके मैं कह रहा हूं।
समय की त्रिविधता―समय का प्रतिबोध तीन प्रकार से है शब्दसमय, अर्थसमय और ज्ञानसमय। समय का मतलब है वस्तु। वस्तु इतना शब्द बोल दिया जाय तो यह हुआ शब्दसमय। जिस समय वस्तु शब्द एक कागज पर लिखकर पूछें कि बतावो यह क्या है? तो आप क्या कहेंगे? यह वस्तु है। पर वह वस्तु तो नहीं है। वह तो लिखा हुआ है। वह शब्द वस्तु है। चीज उठाकर पूछें कि यह क्या है? तो आप कहेंगे कि यह वस्तु है। यह है अर्थ वस्तु। और वस्तु के संबंध में जो ज्ञान किया जाता है वह है ज्ञानवस्तु। प्रत्येक बात तीन प्रकार से होती है, शब्द, अर्थ और ज्ञान। जैसे घर, घर भी तीन प्रकार से हैं। शब्द घर, अर्थ घर और ज्ञान घर। घ और र ऐसे दो वर्ण लिखे जायें कागज पर और पूछा जाय कि बतावो यह क्या है? आप कहेंगे घर है? तो रह लो उस घर में, रोटी बना लो। अरे ! वह तो शब्द घर है, और यह जो मिट्टी पत्थर का बना हुआ है यह क्या है? यह है अर्थ घर, इसमें अर्थ क्रिया होगी। रह लो, ठहरा लो यह सब कुछ इस घर में होगा, और इस घर के बारे में जो समझ बनी है कि यह घर है ऐसी समझ का भी नाम घर है। यह समझ है ज्ञान घर।
अपना संबंधित समय―अच्छा भैया ! यह बतलावो कि आपका प्रेम शब्द घर से होता है यह या अर्थ घर से होता है, या ज्ञान घर से होता है। वह प्रेम आपका शब्दघर में है क्या जो कागज में घ और र लिख दिया इसमें प्रेम हे क्या? इस शब्दघर से कोई प्रेम नहीं करता तथा वह ईंटें चूने से उठा हुआ जो घर है इस घर से तो प्रेम कोई कर ही नहीं सकता। यह आपका भ्रम है जो मानते हो कि हमारा घर से प्रेम है, इस ईंटें पत्थर से आपका प्रेम हो ही नहीं सकता, क्योंकि आप पृथक् एक आत्मपदार्थ हैं। यह घर पृथक् पौद्गलिक स्कंध है। एक पदार्थ का काम दूसरे पदार्थ में नहीं होता, आपकी जो प्रेम पर्याय है, जो भीतर में प्रेमरूप परिणमन होता है यह प्रेम रूप परिणमन आपमें हो सकता है, आपकी कोई परिणति, आपका कोई प्रेम आपको छोड़कर दूसरे वस्तु में नहीं जा सकता है। यह पदार्थ के स्वरूप की विशेषता है। तो आप अर्थ घर में प्रेम कर ही नहीं सकते। तब जितना भी आप प्रेम कर रहे हैं वह ज्ञान घर में कर रहे हैं, अर्थात् घर के बारे में जो अपने में कल्पना बनायी है उस कल्पना से आप प्रीति कर रहे हैं। ऐसे ही सभी में घटा लो। पुत्र तीन तरह के होते हैं―शब्द पुत्र, अर्थ पुत्र, ज्ञान पुत्र। जो दो टाँग का है आपके घर में, जो उछलता, मचलता है वह है अर्थपुत्र। और पु और त्र एक कागज पर लिख दिया जाय तो वह हुआ शब्द पुत्र और पुत्र के बारे में जो आपकी कल्पना हुई है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकरण का जो ज्ञान बना है वह है ज्ञान पुत्र। अब यह बतलावो आपको प्रेम किसमें है? शब्द पुत्र में तो है नहीं जो कागज में लिखा है, और अर्थ पुत्र से तो आप प्रेम कर ही नहीं सकते। यह आपका भ्रम है कि जो यह मानते हो कि में अर्थ पुत्र से प्रेम कर रहा हूं। आप एक स्वतंत्र पदार्थ है। यह आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ हैं। आपकी कोई भी परिणति, आपका द्रव्य, आपकी शक्ति, आपकी पर्याय कुछ भी आपके प्रदेश को छोड़कर बाहर नहीं जा सकती है। यह है वस्तु का अटल स्वरूप, तो आपमें जो प्रेम होता है वह प्रेम आपके चारित्र गुण की विकृत पर्याय है। वह प्रीतिरूप परिणमन आपमें ही समायेगा। आपसे बाहर किसी भी जगह आपका प्रीतिरूप परिणमन नहीं पहुंच सकता है। आप अर्थ पुत्र से कभी प्रेम कर ही नहीं सकते। चाहे आप कितना ही विकल्प करें और कितना ही आप अपना भाव बनाएं, अर्थ पुत्र में आपका प्रेम कभी हो ही नहीं सकता। फिर आप कहेंगे―वाह सारी दुनिया पुत्र से प्रेम कर तो रही है? कोई नहीं कर रहा है। एक किसी पदार्थ का ख्याल बनाकर अपने आपमें जो कल्पना जाल रचा है उस कल्पना जाल में प्रेम किया जा रहा है, दूसरे में कोई प्रेम कर ही नहीं सकता।
ज्ञान की निकटता―भैया ! आपका निकट संबंध इस ज्ञान से है, न शब्द से है न पदार्थ से है, पर काम तीनों से पड़ता है। शब्द घर के माध्यम से अर्थ घर बताया जाता है ज्ञानघर की प्रसिद्धि के लिए। याने उसे कल्पना जाल कैसा रुच रहा है इस बात के बताने का माध्यम शब्द है और वस्तु की ओर संकेत है। ऐसे ही इस शास्त्र में अर्थ समय का व्याख्यान होगा अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल इन 6 द्रव्यों का वर्णन चलेगा। किसलिए? इस एक ज्ञान की सिद्धि के लिए? हम वस्तु के स्वरूप का सही ज्ञान करें और यथार्थ जानकर परद्रव्यों से उपेक्षा करके अपने आपके निज अंतस्तत्त्व की अनुभूति करें, इस वास्ते इस ग्रंथ में अस्तिकायों और 6 द्रव्यों का वर्णन चलेगा।
आगम का प्रसाद―इस आगम के प्रसाद से हम अपने यथार्थ मर्म को जानने में समर्थ हो जाते हैं और फिर रागद्वेष रहित होकर निर्विकल्प ज्ञानस्वभाव में ठहरकर चारों गतियों के दु:खों को दूर कर देते हैं, उससे निर्वाण की प्राप्ति होती है, निर्वाण में ही अनंत आनंद है, इस कारण अनंत आनंद का कारणभूत होने से इस जैनशासन को नमस्कार करना बिल्कुल युक्त है। हमें प्रभु की भक्ति में प्रभु में साक्षात् भक्ति तो करना ही है, पर प्रभु का जो उपदेश आदिक है उसे रुचिपूर्वक सुनना यह भी प्रभु की भक्ति है और प्रभु के मार्ग पर जो चल रहे हैं ऐसे साधुसंतों की सेवा करना यह भी प्रभुभक्ति ही है, हम आपको चाहिए कि प्रभु की वाणी का प्रतिदिन कुछ न कुछ स्वाध्याय करें, सुनें और जो ग्रंथ हमारी समझ में सुगमतया आ जायें उन ग्रंथों का स्वाध्याय करें। क्योंकि ग्रंथ को लेकर बैठ जाने से कोई सिद्धि न होगी, आपका दिल उचट जायगा, आप उसमें फिर उत्साहहीन हो जायेंगे। आप ऐसे ग्रंथों का स्वाध्याय करें जिससे आपको तत्काल बोध हो और सन्मार्ग के लिए प्रेरणा मिले।
सद्वचनश्रवण का लाभ―एक कोई पुरुष जैन धर्म से ईर्ष्या रखने वाला यह नियम बनाये था कि मैं कभी भी जैन ग्रंथों की बात न सुनूँगा। अपने घर से बाजार के रास्ते में जाने से एक जैन मंदिर पड़ता था। वहाँ प्राय: सुबह के समय शास्त्र होता था। एक दिन वह बाजार जा रहा था तो जैसे मंदिर के सामने कानों में अंगुलि लगाकर निकलता था वैसे ही उस दिन भी निकल रहा था, ताकि कोई शब्द न सुन पड़ें। समय की बात कि उसके पैर में एक कांटा लग गया। उस कांटे को हाथ से निकालने के लिए वह बैठ गया। कानों से अंगुलि हटा ली तो उसे कुछ शब्द सुनने में आ गए―क्या? देवतावों के शरीर की छाया नहीं पड़ती है। भूतप्रेत आदिक भी देवता हैं इनके शरीर की छाया नहीं पड़ती। जैसे अनेक लोग धूप में प्रकाश में चलते हैं तो छाया पड़ती है ऐसी छाया उनके नहीं पड़ती, इतनी बात उसने सुन लिया और आगे बढ़ गया। भाग्य की बात कि उसी दिन रात में उसके घर चार चोर आए चोरी करने और वे भूतप्रेत जैसा चेहरा बनाकर आये यह जताते हुए कि हम भूत हैं। पहिले तो वह डरा लेकिन बाद में उसने देखा कि इतनी तो छाया पड़ रही है, ये भूत नहीं हैं, ये तो चोर हैं। वह बलवान तो था ही। डंडा उठाया और सब चोरों को भगा दिया। तो वह सोचता है कि एक दिन जैन शास्त्र के कुछ शब्द कान में पड़े तो उसके फल में आज हमने अपनी संपदा की रक्षा कर ली, नहीं तो आज पूरे लूट जाते। हम तो भूत के डर से घर छोड़कर बाहर होते और ये सब कुछ लूट ले जाते। तो जैनशास्त्रों को हमें प्रतिदिन सुनना चाहिए उससे हमें अनेक लाभ होंगे। फिर उसने जैन शासन ग्रहण किया और प्रतिदिन शास्त्र सुनने लगा।
जिनशासन का अपूर्व लाभ―अब आप पूछेंगे कि जैन शासन के जैन आगम के सुनने से और अधिक लाभ क्या होगा, दुकान चल रही है, सब काम अच्छे चल रहे हैं, और लाभ क्या होगा, अरे और लाभ यह होगा कि आपको अपने आत्मा के यथार्थस्वरूप का भान होगा, परद्रव्यों से उपेक्षा होगी, अपने आपमें आत्ममग्नता होगी। भव-भव के कर्म झड़ेंगे, पुण्यरस बढ़ेगा, पापक्षय होगा। स्वर्ग और मुक्ति के निकट पहुंचेंगे। शांति, संतोष आनंद से भरपूर हो जायेंगे, इससे बढ़कर और क्या चाहिये है।
दु:ख का मूल कारण―जीव को दु:ख का कारण केवल एक मोह है, यह मोह अनेक विषयों में हुआ करता है। किसी का घर में मोह है, किसी का इज्जत, नाम में मोह है, किसी का यश कीर्ति में मोह है, किसी का काम काज में मोह है, लेकिन ये समस्त मोह इस मोही जीव को बरबाद करने पर तुले हुए हैं। प्रथम तो हम आपका इस शरीर में मोह है। एक इस शरीर में मोह न रहे तो आपको किसी भी वस्तु में मोह न रहेगा।
शरीर त्याग में भी शरीरमोह की संभवता―यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि जो सुभट जन बिना वेतन वाले खुशी-खुशी एक अपनी किसी की भक्ति से संग्राम में लड़ते हैं, पुराणों में बहुत-बहुत लिखा गया है। बड़े-बड़े संग्राम हुए, राम रावण के समय में अनेक राजा अनेक सेवक मिल गये थे, क्या उन्हें वेतन दिया जाता था? वे उल्टा अपना ही खर्च करते थे। सेवा सहित आकर किसी पक्ष में मिलकर वे लड़ाई लड़ते थे, संग्राम करते थे। संग्राम में अपनी जान तक गवा देते हैं। उन्हें तो शरीर का मोह नहीं है ना। उन्हें भी शरीर के मोह के कारण ही मोह होता है। वे अपने बारे में शरीर में दृष्टि लेकर ऐसा बराबर समझ रहे हैं। संग्राम में यदि जान चली जाय तो जाय, पर नाम तो अमर रहेगा। किसका नाम? इस शरीर को ही दृष्टि में लेकर नाम की कल्पना की तो शरीर का ही तो संबंध हुआ।
देशप्रेम में बलि होने में शरीरमोह की संभवता―अच्छा यह भी बात नहीं हो, किंतु यह हो कि हमारा देश सुरक्षित रहेगा, हमारे देशों पर किसी शत्रु का अधिकार क्यों हो, इस ख्याल में भी सोचिए कि मूल में शरीर का किस प्रकार से मोह है―यह हमारा देश है, यह भाव तभी बनेगा जब इस शरीर को मानेंगे कि यह मैं हूं। देश के पीछे भी कुरबानी करने में शरीर के मोह की बात आ ही गई है। जिसका जितना भी मोह किया जाता है वह सब शरीर के मोह के आधार पर है। शरीर का मोह न रहे तो फिर किसी भी वस्तु में मोह नहीं हो सकता है। इस कारण इस मोह के महान् संकटों को मिटाने के लिए शरीर के मोह के त्याग करने का यत्न करें।
मोहत्याग की भेदविज्ञानसाध्यता―मोह का त्याग भेदविज्ञान से ही हो सकेगा। यह शरीर जड़ है। अनेक परमाणुवों से बना हुआ है। अपरमार्थ है, मैं आत्मा इस अमूर्त शरीर से न्यारा अमूर्त केवल ज्ञानघन हूं। ऐसा अपने आपमें ज्ञानस्वरूप की प्रीति करना यह उपाय है शरीर का मोह त्यागने का। ये कामादिक चाहे करने पड़े, चाहे किसी ढंग से रहना पड़े, प्रत्येक परिस्थिति में यह कर्तव्य है कि शरीर और उन वस्तुवों से काम मोह छोड़कर अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप को देखो और उसे यह मैं आत्मा हूं ऐसा मानो। ज्ञानभावना के बिना यह मोह संकट दूर नहीं हो सकता है इसलिए इस ज्ञानभावना को तब तक भाते जाइए तब तक इन शरीरादिक परद्रव्यों से न्यारे न हो जावो।
अमृत तत्त्व―यह भेदविज्ञान एक अमृत है। लोग कहा करते हैं कि अमृत पी लो तो अमर हो जावोगे। वह अमृत कैसा होता होगा, कोई पेय पदार्थ पानी जैसा है या सतुवा जैसा है, न जाने कैसा होता होगा। लोग कहते हैं कि उसके खा लेने से अमर हो जावोगे। अरे उसे खा लिया गया तो वह तो खुद मर गया। जो खुद मर जाये वह दूसरे को क्या अमर करेगा। अमृत मायने जो खुद न मरे। अरे अमृत कोई अन्य चीज नहीं है। अमृत तो एक ज्ञानभावना है। मैं ज्ञानमात्र हूं, ऐसी बराबर भावना करके अपने आपको मात्र ज्ञानस्वरूप की अनुभवना इस ही का नाम है अमृत का पीना, जो मरे नहीं वह है अमृत, अ और मृत, इसी को मिलाकर अमृत बना है। जो मर जाय उसका तो नाम मृत है और जो न मरे वह अमृत है। मेरे आत्मा का जो सहज ज्ञानस्वरूप है वह ज्ञानरूप कभी भी नहीं मरता है। वह अनादि अनंत सदा एक स्वभाव रूप रहता है, ऐसे अविनाशी एक स्वभावरूप ज्ञानतत्त्व का अनुभव करना यही वास्तव में अमृत का पान करना है। इस अमृत तत्त्व का पान इस ग्रंथ से कराया जायगा। एक निज शुद्ध ज्ञानस्वरूप की भावना का उपदेश होगा। अत: ऐसा अपूर्व लाभ देने वाले इस जिनेंद्र उपदेश को मन, वचन, काय शुद्ध करके ध्यान पूर्वक सुनो ऐसा आचार्यदेव इस द्वितीय गाथा में कह रहे हैं।