वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 3
From जैनकोष
समवाओ पचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं।
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।।3।।
शांति और अशांति का साधन―संसार के प्रत्येक जीव शांति चाहते हैं। शांति का जो सत्य उपाय है उस ही का नाम धर्म है। शांति का सत्य उपाय हो सकता है इस संबंध में इस तरह विचार करो कि आखिर अशांति क्यों है। किन कारणों से हमें अशांति है? उन कारणों को न होने देना यही तो है शांति का उपाय और यही है धर्म। जीवों को अशांति जो बात जैसी है उसको वैसा न मानकर उल्टा मानने के कारण है। अशांति का उपाय मिथ्याज्ञान है। पदार्थ मेरा नहीं है उसे मानें कि यह मेरा है तो वह तो मेरा रहने का है नहीं क्योंकि मेरा है ही नहीं। भिन्न द्रव्य है, स्वरूप न्यारा है, यहाँ हम मान बैठे हैं कि मेरा है, तो जब उसका विपरीत परिणमन हुआ तो हम दु:खी होंगे ही। दूसरी बात यह मन, यह उपयोग किसी पर पदार्थ में जाय तो इतने ही मात्र से दु:ख होने लगता है। पर पदार्थों में अपना उपयोग गया इस ही में दु:ख हो गया, वे चाहे अपने अनुकूल भी रहें पर उस उपयोग का जाना दु:ख का कारण है। हमें ऐसा साधन मिले, ऐसी बुद्धि जगे कि पदार्थ जैसे हैं वैसे ही हमारे ज्ञान में रहे, बस यही धर्म है, इसका विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है।
वस्तु स्वातंत्र्य―संसार में जितने भी पदार्थ हैं जो भी सत् हैं वे अपने ही स्वरूप से सत् हैं, किसी दूसरे पदार्थ का गुण शक्ति परिणाम उधार लेकर कुछ सत् नहीं होता, जो भी है वह अपने ही कारण अपने ही स्वरूप से अपने ही आपमें परिपूर्ण रूप से है, यही है वस्तु का स्वरूप। मैं आत्मा हूं तो अपने ही अस्तित्त्व के कारण अपने ही स्वरूप से अपने आप हूं। किसी दूसरे पदार्थ की आशा और दया पर मेरा अस्तित्व नहीं है, ऐसे ही हम आप सब जितने भी जीव हैं इनका सत्त्व अपने आपके कारण अपने आपमें परिपूर्ण रूप से है।
पुद्गलों की स्वतंत्रता―ऐसे ही जगत में दिखने वाले ये भौतिक पदार्थ जिनका नाम पुद्गल है वे सब स्वयं सत् हैं। पुद्गल शब्द का अर्थ है जो मिल करके पूर जाय, बड़ा हो जाय और बिछुड़ करके गल जाय, खंड-खंड हो जाय, छिन्न–भिन्न हो जाय उसे पुद्गल कहते हैं। ये दृश्यमान सभी पदार्थ मिलकर बड़े हो जाते हैं बिछुड़कर खंडित हो जाते हैं। ये सब पुद्गल हैं। इनमें वास्तविक चीज एक-एक अणु है जो कभी मिटता नहीं है। ये सफल संयोग समूह स्कंध तो मिट जाते हैं ये पदार्थ नहीं हैं। इनमें रहने वाले जो एक-एक अविभागी अणु हैं वे पदार्थ हैं, वे प्रत्येक परमाणु अपने ही स्वरूप से अपने आपमें परिपूर्ण रूप से हैं ऐसा पदार्थ का स्वतंत्र स्वरूप है, इसी कारण किसी पदार्थ का कोई पदार्थ मालिक नहीं। कोई भी जीव किसी भी पदार्थ का कर्ता एवं भोक्ता नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप में अपना ही काम करते हैं।
पर के भोक्तृत्व का अभाव―जिस समय हम आप भोजन करते हैं भोजन के समय में जो भोजन के रस का ज्ञान हुआ उस रस में है हमारा अनुराग सो हम उस रस के ज्ञान के कारण खुश हो रहे हैं। यहाँ हमने अपने ज्ञान को भोगा, भोजन को नहीं भोगा है, क्योंकि मैं आत्मा अमूर्त हूं, आकाश की तरह, उसमें भोजन चिपकता भी नहीं है। यह तो उस समय केवल ज्ञान का करने वाला रहता है। यह मीठा है, यह खट्टा है ऐसी यह केवल कल्पना बनाता है, साथ ही लगा है इसके अनुराग जो उस राग से उस कल्पना का सुख भोगता है, चीज का सुख नहीं भोगता है, प्रत्येक जीव केवल अपने भाव को करते हैं और अपने भाव को भोगते हैं। कितना वैभव हो यह जीव वैभव को नहीं भोगता, किंतु पूर्वकृत पुण्य का उदय है यह वैभव समागम निकट आया है, इस स्थिति में वैभव के संबंध में जो यह जीव कल्पना बनाता है, उचित है, बहुत है, कम है, मेरा है, उन कल्पनावों का कर्ता यह जीव है, बाह्यपदार्थों का कर्ता नहीं है। इन ही कल्पनावों को भोगने वाला यह जीव है, धन वैभव संपदा का भोगने वाला यह जीव नहीं है।
स्वातंत्र्यविज्ञान से मोहविनाश―प्रत्येक पदार्थ जिस रूप भी परिणमता है वह अपने स्वरूप में परिणमता है, ऐसी स्वतंत्रता का जब ज्ञान होता है तो वहाँ मोह नहीं रहता है। मेरा दुनिया में क्या है? यह देह तक भी मेरा नहीं है। ये राग और द्वेष जो मुझमें उत्पन्न होते हैं ये भी मेरे नहीं हैं, होते हैं और मिट जाते हैं। मैं तो शाश्वत रहने वाला सत् पदार्थ हूं। यों जब पदार्थ का भली भांति ज्ञान होता है तो शांति मिल जाती है।
शांतिमुद्रा―हमारे आदर्श प्रभु हैं। इन प्रभु की मूर्ति शांति प्रधान मुद्रा में होना चाहिए। प्रभु मूर्ति के समक्ष उनकी शांतमुद्रा निरखें। यद्यपि मूर्ति पाषाण की है, धातु की है पर हम केवल मूर्ति पर ही दृष्टि नहीं देते हैं। मूर्ति को नहीं पूजते हैं किंतु जिनकी मूर्ति स्थापित की है उनका ख्याल करके उन्हीं को पूजते हैं। शांतमुद्रा निरखने से मन में यह भाव जागृत होता है, ओह ! शांति है तो इस अवस्था में है। जब तक परपदार्थ की कल्पनाएं चलती रहेंगी, व्यग्रता बनी रहेगी। ये प्रभु पूर्व में सम्राट थे, तीर्थंकर थे, चक्रवर्ती थे, हजार-हजार इंद्र और देवेंद्र राजा महाराजा सभी उनकी सेवा में रहा करते थे किंतु वहाँ उन्होंने वास्तविक सुख नहीं पाया है इस कारण वे सब सुख समृद्धि त्यागकर एक आकिंचन्य केवल ज्ञानस्वरूप में उपयोग लगाने लगे, शांत अपने आपमें मग्न हुए। शांति का मार्ग तो यही है। इतनी बात जब अपने मन में उत्पन्न होती है तो आप अनुभव करने लगेंगे कि शांति मिलती है अथवा नहीं।
आत्मसंयमन में आनंद―बाह्य पदार्थों में हमारे तृष्णा जगे, रागद्वेष जगे तो वह अकल्याण के ही लिए है। समस्त इंद्रियों का व्यापार रोककर बाह्य समस्त पदार्थों से अपने को भिन्न निरखकर जब ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभवेंगे उस समय जो आनंद मिलेगा उस ही आनंद में यह सामर्थ्य है कि भव-भव के पापकर्मों को दूर कर देंगे। इसका उत्थान इसके परिणामों के आधीन है। किसी दूसरे से मिन्नत करके, प्रार्थना करके चाहे कि कोई दूसरा मेरा उत्थान कर दे तो वह नहीं कर सकता है। प्रभु का तो यह उपदेश है कि हे भव्य जीवों ! यदि तुम शांति चाहते हो तो मेरा भी ख्याल छोड़ो मानो प्रभु की ओर से यह संदेश है, यद्यपि पहली अवस्था में मेरा ध्यान मेरी शक्ति करोगे तो तुम्हें सहारा मिलेगा लेकिन यह भी एक राग की परिणति है ध्यान भी करता रहेगा कोई भक्त तो वह उत्कृष्ट समाधि में नहीं आ सकता क्योंकि उसकी दृष्टि में कैसे आ गया, मैं पूज रहा हूं भगवान को। इस भक्त का उपयोग अन्य जगह बना है। इस कारण उत्कृष्ट समाधि उसे नहीं मिलती है प्रभु का तो यह उपदेश है कि उत्कृष्ट शांति यदि चाहते हो तो मेरा भी आलंबन छोड़ दो और एक शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का आलंबन ग्रहण करो।
स्वयं में विधान―जब पदार्थ का स्वरूप विदित होता है तो शांति का मार्ग मिलता है। इसी कारण जैन दर्शन में अध्यात्म की प्रधानता है। जो पदार्थ जिस तरह का है उस तरह से वर्णन करने की इसमें प्रधानता है। जैन दर्शन कोई नियम अलग से बनाकर या कोई बात अलग से बनाकर या कोई बात अलग से गढ़ कर भक्तों से पालन नहीं कराता है किंतु भक्त को स्पष्ट बताता है कि तुम देख लो, सोच लो, जान लो कि पदार्थ किस स्वरूप में है। तुम क्या हो और किस चक्र में पड़े हो, कौन से बंधन लगे हुए हैं। ये बंधन कैसे लगे है, उनसे छूटने का उपाय क्या है? सब कुछ विचार लो, इन सबके चिंतवन से तुम्हें मदद मिलेगी। करता है अपने में अपना ही काम अपनी शांति के लिए।
सत् सेवा―लोग कहा करते हैं कि भगवान घट-घट में विराजमान है। वह घट-घट क्या है? हम आप सब इन सबमें जो विराजमान भगवान है, प्रभु है, ऐसी प्रभुता हम आप सबमें मौजूद है। प्रभु के गुणों का स्मरण करके और प्रभु के पथ पर जो चल रहे हैं, ऐसे साधु संतों की सेवा करके हम अपने आपमें अपने अंतस्तत्त्व को देखें, इसकी उपासना में रहें, यही है शांति पाने का उपाय। यह शिक्षा हमें देव, शास्त्र, गुरु की सेवा से मिल जाती है। ऐसी प्रभुता पाने का जो उद्यम करता है रागद्वेष को तजकर समता भाव से ही रहा करता है जिसका ज्ञान, ध्यान और तपस्या ही प्रयोजन है, सदा इस शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव पर ही दृष्टि दिया करता है, ऐसे साधु संतों की हर प्रकार से सेवा करके एक उत्साह जगता है कि हम भी विकल्प त्याग कर निर्विकल्प ज्ञानानंदघन परम अमृत रस का पान करें तो सुखी होंगे। यदि वैभव संपदा में ही निरंतर ध्यान बनाये रहे तो उनकी बुद्धि व्यग्र हो जायगी, और कुछ क्षण सारे परिग्रह का बोझ उतारकर अपने ज्ञान से अपने आपमें से इन सब वैभवों का परिग्रहों का बोझ उतार दें और केवल ज्ञान ज्योतिस्वरूप अपने को निहार लें तो उससे कल्याण होगा समझिये।
बहुप्रदेशी में अस्तिकायपना―इस ग्रंथ का नाम है पंचास्तिकाय, 5 अस्तिकाय हैं। अस्तिकाय का अर्थ है बहुप्रदेशी पदार्थ। जैसे जीव, यह अंगुलि से लेकर सिर तक बड़े विशाल क्षेत्र में फैला हुआ। यह एकप्रदेशी नहीं है, एकप्रदेश नाम है सबसे छोटे आकाश के हिस्से का, जिसका दूसरा हिस्सा न हो सके। जैसे एक इंच है तो अभी 10 हिस्से उसके और हो सकते हैं। यों हिस्से करके जो अविभागी हिस्सा रह जाय, जिसका दूसरा हिस्सा न हो सके उसे कहते हैं एक प्रदेश। जो बहुप्रदेशी हो उसे अस्तिकाय कहते हैं। ये पदार्थ, ये भौतिक सब चीजें ये बहुप्रदेशी हैं, ये अस्तिकायें हैं।
धर्मास्तिकाय―जीव और पुद्गल से सब गमन करते हैं तो इनके गमन में सहायक जो एक सूक्ष्म स्कंध है धर्मद्रव्य नाम का वह सहायक होता है। वह समस्त लोक में फैला हुआ है। यदि ऐसा ईथरतत्त्व न हो, धर्मद्रव्य न हो तो हम आप चल फिर न सकें। हम आप अपनी ही शक्ति से चलते हैं पर जैसे मछली में चलने की क्रिया बिना जल के नहीं आ सकती ऐसे ही बिना धर्मद्रव्य के हम आपमें चलने की क्रिया नहीं आ सकती। मछली के चलने में जल प्रेरणा नहीं करता, पर उसके निमित्त से मछली में चलने की शक्ति आ जाती है। जल मछली को चलाने में सहायक है। स्पष्ट दिखता है कि जल के बिना मछली नहीं चलती है ऐसे ही लोक में हम आप जीव पुद्गल अजीव जाना क्रियाएं कर रहे है। ये सब अपने आपके परिणमन से अपनी शक्ति से क्रियाएं करते है, ठीक है, फिर भी यदि धर्मद्रव्य न हो तो हम आप चल नहीं सकते है। हमारे ऋषि संतों ने अपने ज्ञान से यह सब कुछ बताया है और इस संबंध में वैज्ञानिक लोग भी ऐसी संभावना करते हैं।
अधर्मास्तिकायादि―इस ही तरह चलते हुए जीव पुद्गल जब ठहरना चाहते हैं तो उनका निमित्त सहायक अधर्मद्रव्य है, यह भी लोकाकाश भर में व्यापक है, असंख्यात प्रदेशी है, यह भी अस्तिकाय है। आकाश यह भी अस्तिकाय है, बहुप्रदेशी है, असीम है, एक काल नाम का द्रव्य जो एक-एक प्रदेश पर एक-एक ठहरा हुआ है, वह एक-एक प्रदेश ही है, वह अस्तिकाय नहीं है यों 6 जाति के पदार्थ इस दुनिया के अंदर हैं।
छह द्रव्य जातियां―जीव जाति वे पदार्थ इनमें जितने भी जानने देखने की शक्ति रखने वाले पदार्थ हें वे सब जीव जाति में आ जाते हैं। पुद्गल जाति के पदार्थ जितने भी जो पदार्थ, रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले हैं, चाहे वे हमें मालूम पड़े या नहीं, पर जिनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं वे सब पुद्गल जाति के पदार्थ हैं। काम में ये दो ही पदार्थ आ रहे है अधिक―जीव और पुद्गल। फिर धर्मद्रव्य की जाति का पदार्थ एक ही है, वही जाति है, वही व्यक्ति है, धर्मद्रव्य नाम का पदार्थ भी एक ही है और काल नामक द्रव्य एक-एक परिपूर्ण या असंख्यात है। आकाश असीम है। ये समस्त पदार्थ अपने आप ही स्वयं अपना परिणमन करते हैं। पदार्थ का ऐसा स्वरूप है।
मूल श्रद्धान का परिणम―भैया ! वस्तु की स्वतंत्रता जब ज्ञात होती है तो यह जीव मध्यस्थ हो जाता है। किसमें राग करना। किसी पदार्थ में क्यों राग करना। ये पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, इनका मुझसे संबंध नहीं है। मेरे परिणमन करने से ये परिणमते नहीं है। मैं इनसे न्यारा हूं, ऐसा अपने आपकी ओर ही यह रहता है। रागद्वेष नहीं करता। प्रयोजनवश चूंकि पर गृहस्थी में कमाना भी पड़ता है रागद्वेष भी आता है तिस पर भी धन्य है यह ज्ञानी गृहस्थ जो अपने अंतरंग में यह समझ रहा है कि ये पदार्थ असार और भिन्न हैं, किन्हीं पदार्थों पर मेरा स्वामित्व नहीं है। रक्षा करते हुए भी, संचय करते हुए भी उनको अपने से भिन्न मानना यह-यह कितना स्वच्छ ज्ञान हैं और इस ज्ञान के प्रताप से यह जीव सुखी रहता है।
त्रिविधसमय का समन्वय―कल गाथा में समय का अर्थ टाइम नहीं किंतु समय मायने समवाय समूह। इस ग्रंथ में शब्द समवाय के द्वारा इस ज्ञानस्वरूप ज्ञान समवाय की प्रसिद्धि के लिए पदार्थसमूह का वर्णन किया जायगा। हम किन्हीं भी पदार्थों को जानेंगे तो उनका माध्यम शब्द है। उन शब्दों के द्वारा हम समझाते है, समझते है और अपने अंतरंग में इन शब्दों का अंतर्जल्प भी करते हैं और मिथ्यादर्शन का विनाश होने पर हमें पदार्थ का सही-सही बोध हो जाता है इसका नाम है ज्ञान समय और जिन समग्र वस्तुवों का बोध किया जाता है ये सब हैं अर्थ समय। यों पदार्थ का स्वरूप जानना सही जानना अत्यंत आवश्यक है। कोई पुरुष अपने धर्म में हुए किन्हीं पुराण पुरुषों का संबंध भी न रक्खें, उनका ध्यान उपासना भी न रक्खे और यहाँ जो कुछ वस्तु है उस वस्तु के सही स्वरूप के जानने में रत रहे तो वह भी धर्म पाल रहा है। रूढ़िवाद या दादा वाक्य प्रमाण का स्थान नहीं है। जो यथार्थ बात हो उसे जान लो, इस ही का नाम धर्म है।
आत्मपदार्थ―मैं क्या हूं? कोई ज्ञान वाला एक पदार्थ हूं। यह मैं कहां से आया हूं? लोग तो यों जानते हैं कि यह कुछ दिनों का 0 वर्ष से 60 वर्ष से जिसकी जितनी आयु है यह आया है। अरे इतने वर्षों से उस मनुष्यभव में आये हैं, किंतु इससे पहिले भी मैं कुछ सत् था, अचानक कहीं से किसी दिन आ गया होऊं यह बात नहीं है। कुम्हार घड़ा बनाता है तो उस घड़े का उपादान जो मिट्टी है वह तो पहिले से थी। कोई भी चीज बने उसका उपादान भूत कुछ न कुछ किसी भी रूप में पहिले से होता ही है। जो एकदम असत् है, है ही नहीं उसका सत् क्या बने। जो नहीं है इसमें से किसी जाति का सत् बने यह व्यवस्था ही नहीं है।
समवाय में असमवाय―समस्त पदार्थ लोक और अलोक दो भागों में विभक्त है। लोक में तो सब कुछ आ गया और अलोक में केवल आकाश ही आकाश है। यों इतना ऊपर लोकाकाश के बीच यह लोक है। इस लोक के बीच मध्यलोक है, जिसमें हम आप बस रहे हैं। यह सब पदार्थों का झमेला चल रहा है जिस पर भी कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थरूप बनकर नहीं रहता है। ऐसी स्वतंत्रता का ज्ञान हो जाय इसी के मायने है धर्म पालन।
विवेक और विवेक का लाभ―धर्मपालन से फल क्या मिलता है? मैं सब पदार्थों से जुदा अपने आपकी श्रद्धा कर रहा हूं और मैं ज्ञान से रचा हुआ हूं, आनंद से रच गया हूं सो ज्ञान और आनंद ही मात्र अपने को जान रहा हूं, और ऐसा सबको जानता हुआ निज में रम जाऊं मग्न हो जाऊं, अन्य किसी पदार्थ में मैं न मग्न होऊं तो यही इसका सच्चा आचरण है। ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के प्रसाद से यह जीव संकटों से छूटता है, और अपने शुद्ध आनंद को भोगता रहता है। सभी जीव शांति चाहते हैं। शांति होगी भेदविज्ञान से। मैं सबसे न्यारा हूं, अकिंचन हूं, मेरा कहीं कुछ नहीं है। ज्ञानानंद स्वरूप मात्र अपने आपको जानें तो शांति मिलेगी। किसी पर पदार्थ की पकड़ करे तो उसे शांति नहीं मिल सकती है। इस शुद्ध लाभ का प्रयोजन भगवान की मुद्रा से मिल जाता है। हम बड़ी शुद्ध निगाह से प्रभु के दर्शन करें और अपने आपमें यह भाव करें कि हे प्रभु ! मेरा कब वह समय आये कि सर्व विकल्प कल्पना जालों से छूटकर केवल आत्माराम में ही मग्न होऊं।