वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 116
From जैनकोष
मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषा: ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यांतरा ग्रंथा: ।।116।।
अंतरंग परिग्रह के भेद व मिथ्यात्व नामक प्रथम परिग्रह के चिह्न―मिथ्यात्व, वेद परिणाम के तीन भेद, हास्यादिक 5, 4 कषायें―ये अंतरंग परिग्रह के 14 भेद हैं । ये समस्त अंतरंग परिग्रह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । कर्म 8 प्रकार के माने गये हैं, उन सबमें मोहनीय कर्म अत्यंत प्रबल है । जीव का बंध मोहनीयकर्म के उदय से होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय―इन 7 प्रकार के कर्मों के उदय से बंध नहीं होता है । मोहनीय कर्म के उदय से जो विकार परिणाम होते हैं उनसे बंध होता है । यों समझ लो कि मोहनीय कर्म के उदय से जो विभाव परिणाम बनते हैं वे सब अंतरंग परिग्रह हैं । मोहनीय कर्म है दो प्रकार के―दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के उदय से हुआ मिथ्यात्व और चारित्रमोहनीय के उदय से होते हैं 25 तरह के परिणाम । 16 कषायें जिनकी 4 में ले लें―क्रोध, मान, माया, लोभ । हास्यादिक 9 हैं, ये 13 परिग्रह हुए चारित्र मोह के और एक मिथ्यात्व परिग्रह हुआ दर्शन मोह का । यों 14 प्रकार के अंतरंगपरिग्रह हैं । उन्हें अंतरंग परिग्रह क्यों कहा? यों कि आत्मा के अंदर ही ये विभाव उत्पन्न होते हैं । आत्मा के उपादान में होते हैं, कर्मोंदय का निमित्त पाकर होते हैं सो औपाधिक भाव हैं । जो कर्मों के उदय का निमित्त पाकर आत्मा में विभाव परिणाम होते हैं वे सब अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं । अपने आत्मा में और परपदार्थों में भेद न मान सकना, इस देह को ही आत्मा मानना आदिक जो विभाव परिणाम होते हैं सो मिथ्यात्व हैं । 24 प्रकार के परिग्रहों में मिथ्यात्व को छोड़कर जो शेष 23 प्रकार के परिग्रह हैं उन्हें अपनाना इसी को मिथ्यात्व कहते हैं । सभी परिग्रहों जबरदस्त परिग्रह मिथ्यात्व का है । जब मिथ्यात्व परिणाम दूर हो जाता है तो शेष के 23 परिग्रह अपने आप धीरे-धीरे दूर होने लगते हैं । जब मिथ्यात्व नामक परिग्रह दूर हो जाता है तो कषायें भी धीरे-धीरे दूर होती हैं । सभी परिग्रहों की जड़ मिथ्यात्व है । बाह्य पदार्थों को अपनाना, यह शरीर ही मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना सो मिथ्यात्व है ।
नव नोकषायरूप परिग्रह का निर्देशन―मिथ्यात्व के बाद बताया है स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद संबंधी राग । हैं ये तीनों एक ही बात है पर, इसके तीन भेद कर दिये गए । इस राग में दूसरे के शरीर सुहाते हैं । तो तीन प्रकार के ये परिग्रह हुए । फिर बताया है ये हास्यादिक 6 । हास्य मायने है हंसी । अपने आप बहुत ज्यादा हंसना यह भी परिग्रह है, तो हंसने का परिणाम विभाव है, उसमें खुशी मानते हैं तो यह हुआ हास्यपरिग्रह । एक है रति परिग्रह । कोई इष्ट मित्र है, बंधु है, पुत्र है ये सुहाते हैं ता यह सब रति परिग्रह है । परिग्रह में मूर्छा का लक्षण घटाना चाहिए । जब रति परिणाम होता है तो उसमें भी आत्मा की बेसुधी है । एक है अरति परिग्रह । जो चीज न सुहाये उसमें द्वेष होवे, देखना न चाहे, किसी से कुछ अपने विषय साधना में विरोध हो गया या विघ्न डाल दिया तो उससे मुंह मोड़े, अप्रीति करें उसे अरति परिग्रह कहते हैं । आप कहेंगे कि अरति को क्यों परिग्रह कहा? उसमें अपनाया तो नहीं जा रहा है । पर भाई उसने अपने अंतरंग परिणामों से नहीं त्यागा, उसे तो वह पुरुष कुछ कारणों से सुहाया नहीं, इसलिए उसे अलग किया, यह तो ठीक हैं, पर न सुहाया, ऐसा जो भीतर में परिणाम हुआ वह परिणाम तो सुहा रहा है । घृणा का, जुगुप्सा का भीतर में जो आव है उसे बसाया जा रहा है इसलिए वह अंतरंग परिग्रह है । एक शोक परिग्रह है । इष्ट का वियोग व अनिष्ट का संयोग होने से चित्त में जो शल्य बस जाती है उसका नाम शोक है । शोक में दो प्रकार के परिणाम होते हैं । संयोग की वांछा करना और वियोग की वांछा करना, यों संयोग और वियोग दोनों ही शोक के आधार हैं । एक भय परिग्रह है । अपने को जो इस लोक और परलोक में किसी बात में कोई विघ्न देने वाला हो उससे डरना इसे भय परिग्रह कहते हैं । तो भयनामक जो परिणाम होता है तो आत्मा मूर्छित हो जाता है, अपने आपकी सुध नहीं करता, घबड़ाता है, बेचैन होता है, तो भय भी एक परिग्रह है । इसी प्रकार घृणा करना भी एक परिग्रह है । मामूली चीज में, बड़ी चीज में सभी में जो ग्लानि का परिणाम है वह जुगुप्सा परिग्रह है । कोई पुरुष गंदा है अथवा साधुजनों का, मुनिजनो का शरीर गंदा हो अथवा रोगी हो, दुःखी हो उनसे ग्लानि करना तथा कफ थूक आदि किसी चीज से ग्लानि करना ये सब ग्लानि परिग्रह हैं ।
क्रोध मान माया लोभ कषाय परिग्रह―संसारी जीव के साथ 4 प्रकार की कषायें लगी हैं क्रोध, मान, माया, लोभ ये भी परिग्रह हैं । जब जीव क्रोध करता है तो अपने आपको भूल जाता है और वह चाहता है कि मैं दूसरे का बिगाड़ कर दूं, मैं इसकी खबर ले लूं, तो क्रोध में दूसरे के बिगाड़ का परिणाम होता है जिससे अपना बिगाड़ निश्चित है, दूसरे का बिगाड़ हो या न हो । जैसे कोई आग उठाकर दूसरे को मारता है तो चाहे वह दूसरा न जले पर उस मारने वाले का हाथ जरूर जल जाता है । ऐसे ही क्रोध करने वाले के यह ज्ञान नही जग पाता कि इससे मेरा ही बिगाड़ है, इसी प्रकार मान कषाय है, अभिमान का परिणाम यह परिग्रह है, क्योंकि अभिमान करते समय यह जीव अपना बड़प्पन रखने का भाव करता है और दूसरे को तुच्छ गिनने का भाव रखता है; तो इसे अभिमान परिग्रह कहा गया है । यह विकार परिणाम है, अहंकार है इसलिये परिग्रह है । तेरहवाँ है मायाचार का परिग्रह । मायाचार में छल कपट की बात है । ऐसा मायाजाल रचना कि किसी को कुछ पता न पड़े, दूसरों को भड़का देना, दूसरों में मित्रता का भाव पैदा न होने देना, ये सब बातें मायाचार में आती हैं और यह जीव मायाचार को अपनाता है । भीतर में उन भावों का गुंतारा लगाता रहता है, उसी में रमता रहता है । तो मायाचार भी अंतरंग परिग्रह है और लोभ भी अंतरंग परिग्रह है । लोभ में बाह्य पदार्थों को अपनाना इसका नाम लोभ है । लोभ का दूसरा नाम लालच भी है । लालच में यह जीव कायर बनता है । लोग लालच को स्पष्ट जानते हैं । एक कहावत भी प्रसिद्ध है लोभ पाप का बाप बखाना । इस प्रकार ये अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार के कहे गये हैं । अब बाह्यपरिग्रह कौन है जिसके कि मूल में दो भेद किए गए थे―एक चेतन परिग्रह और एक अचेतन परिग्रह । उन परिग्रहों को बताते हैं―