वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 117
From जैनकोष
अथ निश्चितसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदौ द्वौ ।
नैष: कदापि संग: सर्वोऽप्यतिवर्तते हिंसा ।।117।।
बाह्य परिग्रह के प्रकार और उनके प्रसंग में हिंसा का दोष―बाह्य परिग्रह दो तरह के हैं―एक सचेतन और एक अचेतन । ये दो प्रकार के परिग्रह हिंसा ही हैं । अंतरंग परिग्रह भी सब हिंसा है और बाह्य परिग्रह ये हिंसा के कारण होने से हिंसा हैं, क्योंकि हिंसा नाम है अपने आपके परमात्मस्वरूप का विकास न होने देना । ज्ञान और आनंद का घात करना इसका नाम है हिंसा । आत्मा का प्राण है ज्ञान, दर्शन अथवा चैतन्य । उस चैतन्य का घात करना, उसका विकास न होने देना इसका नाम है परिग्रह । अहिंसा का जहाँ रूप होता है वहाँ ज्ञान और दर्शन का पूरा विकास होता है । जैसे अरहंत भगवान अहिंसा की मूर्ति हैं । परम अहिंसा कषाय रहित मुनि के हैं । जहाँ 14 प्रकार के अंतरंग परिग्रह नहीं हैं, बाह्यपरिग्रह भी नही हैं । समस्त परिग्रहों से रहित जो संतजन हैं वे परम अहिंसक कहलाते हैं । अहिंसा का अर्थ है रागादिक भाव उत्पन्न न होना । ज्ञानानंदस्वरूप जहाँ बढ़ता है वहाँ रागादिक दूर होते हैं । जहाँ रागादिक दूर होते हैं वहाँ ही ज्ञानानंद बढ़ता है । तो आत्मा के ज्ञानदर्शन गुण का घात हो जाने से ये अंतरंग 14 प्रकार के परिग्रह हैं और बहिरंग भी 10 प्रकार के परिग्रह हैं । जिसे संक्षेप में दो भागों में बाँट दिया गया है ꠰ परिग्रह का अर्थ है जो चारों तरफ से जकड़े, अर्थात जो चारों ओर ग्रहण करे । तो परपदार्थों का जो ग्रहण करना है उसका नाम परिग्रह है । जब जीव के विकार परिणाम होता है उस समय यह जीव चारों तरफ से कुछ न कुछ ग्रहण करना चाहता है । जैसे व्यापारी लोग व्यापार करते हैं तो चारों ओर से आमदनी हो, भाव बढ़े, कमती बढ़ती देने से लाभ हो उसमें भी कोई हिसाब भूल जाये उसका लाभ हो, यों चारों ओर से ग्रहण करने का भाव परिग्रही पुरुषों का होता है और जब परिग्रह है तो जीव के चारों ओर से शरीर का और कार्माणवर्गणाओं का ग्रहण होता रहता है । जब विभाव परिणाम हास्यादिक कषायादि से जो कर्म का बंधन होता है वह आत्मा के सर्वप्रदेशों में चारों ओर से होता है । कोई ग्रहण करने का एक ही रास्ता नहीं है । जिस काल में जीव के विभावपरिणाम होते हैं उसी काल में आत्मा में ठहरी हुई कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं । इस संसार में ऐसी अनेक सूक्ष्म कार्माणवर्गणायें हैं जो जीव का विभाव पाकर कर्मरूप बन जाती हैं । ऐसी कार्माणवर्गणायें आत्मा में दो प्रकार की हैं―एक तो वे जो कर्मरूप हो चुकी हैं और एक वे जो कर्मरूप होने की उम्मीदवार हैं । जो कर्मरूप होने की उम्मीदवार हैं उन्हें कहते हैं विश्रसोपचय । विश्रसोपचय मायने स्वभाव से उनका संग्रह बना होता है । जब जीव मरता है तो शरीर छोड़कर तो जाता ही है, पर साथ में तैजस और कार्माण शरीर ले जाता है । तो कार्माणशरीर उन कर्मों को लिये हुए है नो कर्मरूप बन गए हैं पर साथ ही साथ विश्रसोपचय कार्माण वर्गणायें भी जाती हैं । मरण के बाद जीव के साथ कर्म तो जाते ही हैं मगर कर्मरूप बनने की उम्मीदवार जो कर्मरूप वर्गणायें हैं वे साथ जाती हैं । जहाँ विभावपरिणाम किया वहां वह कर्मरूप बन गया । रास्ते में जा रहे हैं और कर्मरूप जो बन रहे उनको लेकर जा रहे हैं तो विग्रह गति में भी विभाव परिणाम है तो वहाँ कर्म बंधन कैसे हुआ? जीव के साथ ऐसी कार्माणवर्गणायें जाती हैं जो अभी कर्मरूप नही हैं पर कर्मरूप बनेंगी और जो कर्मरूप हैं वे भी साथ जाती हैं । तो दो प्रकार की ये कार्माणवर्गणायें इस जीव के साथ लगी हैं । जब विभाव परिणाम हुआ तो कर्म चारों ओर से बंध जाते हैं । इस प्रकार इस समय विभाव परिणाम जीवों के हम आपके शरीर के भी परमाणु का चारों ओर से ग्रहण करना चाहते हैं । खाकर आये, मालिश करके आये, किसी तरह बाहर के अणु हमारे शरीर में आ जायें इन्जेक्शन देकर, गुलूकोज लेकर आहार लेना, इस प्रकार से आहार लेने के लिए इस जीव के चारों ओर से प्रयत्न होते हैं । तो चेतन अचेतन सभी परिग्रहों को जो अपनाते हैं वे सब परिग्रह हैं ।