वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 135
From जैनकोष
इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोंक्षस्य ये स्वहितकामा: ।
अनुपरतं प्रयतंते प्रयांति ते मुक्तिमचिरेण ।।135।।
मोक्ष में ही आत्मा की भलाई―इस जीवन का हित मोक्ष है, अर्थात् कर्मों से, शरीर से, रागादिक परिणामों से छुटकारा मिलने में ही आत्मा की भलाई है । मोक्ष के सिवाय अन्य किसी भी अवस्था में शांति नहीं है । इस कारण मोक्ष के लिये अपना पुरुषार्थ करना प्रथम आवश्यक है । तो वह कर्तव्य क्या है, वह मार्ग क्या है जिस मार्ग पर चलकर हम मोक्ष में पहुंच सके―वह मार्ग है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जैसे किसी नगर में पहुंचना हो तो मार्ग हुआ करता है जिसके सहारे पहुंचा जाता है । ऐसे ही पहुंचने वाला यह आत्मा है और मोक्ष का मार्ग है सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणाम । अर्थात् यह आत्मा अपने आपके स्वरूप का ज्ञान करे और अपने आपमें रमने का यत्न रखे तो देह भी छूटेगी, कर्म भी अलग होगे, रागादिक विभाग भी दूर होंगे । तो यह आत्मा विशुद्ध होकर मुक्त होकर सदा के लिए आनंदमय बनेगा । जिनको अपने हित की वांछा हो उनका कर्तव्य है कि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग में निरंतर परिणमन करें ।
मोक्ष के अर्थ, शांति के अर्थ उद्यमन का विश्लेषण―देखिये लोक में यह जीवन करता क्या है? केवलज्ञान करता है । दुकान में लगे, घर में लगे, रागद्वेष में लगे, किसी न किसी में यह ज्ञान लगा रहे, उपयोग बना रहे, यही तो काम करता है जीव । अब छटनी करलो कि हम उपयोग को किस जगह लगायें कि हमारे आकुलता न हो? छटनी करते जाइये, एक-एक का नाम लेते जाइये और उत्तर पाते जाइये । स्त्री में, पुत्र में, अन्य कुटुंबी जनों में धनधान्य में, मकान महल में कहीं भी अपना उपयोग लगाया जाये तो क्या शांति मिल सकेगी? उतर सब ओर से आयेगा कि शांति तो नहीं मिली । सर्वत्र अशांति ही अशांति मिली । फिर और ढूंढो, कहां उपयोग लगायें कि शांति मिले? कुछ-कुछ जंचेगा कि जो पुरुष संसार से विरक्त हैं, जिनकी शरीर में रुचि नहीं है ऐसे संतजनों में अथवा जो राग से बिल्कुल दूर हो गए हैं ऐसे अरहंत भगवंतों में यदि हम रुचि करें, उपयोग लगायें तो उपयोग मलिन नहीं बनता, विशुद्ध होता है और वहाँ शांति मिलती है जितनी देर को उपयोग ऐसे विशुद्ध तत्त्व में लगा उतनी देर को कुछ मिली । बाद में वह उपयोग फिर हट जाता है । तो और कहां उपयोग लगायें कि आत्मा को शांति मिले? सोचते जाइये । अब चलिये अपनी ओर । बाहर में तो बहुत-बहुत ढूँढा, अरहंत भगवतों को भी देखा, वीतराग ऋषि संतों को भी देखा पर कहीं शांति नहीं कहीं थोड़ी शांति है, मगर बात टिककर नहीं रहती । अब अपनी ओर चलिये । जो तत्त्व हमारे भगवंतों ने निरखा ऐसा तत्त्व हम में भी है । अब अपने उस स्वरूप की ओर चलिए । उस स्वरूप का सच्चा श्रद्धान होता है जैसा कि सहज आने आप आत्मा का स्वभाव हे वहाँ श्रद्धा बनती है, वहाँ ही उपयोग लगता है और उसी में रमने का चित्त चाहता है । तो यह परमात्मतत्त्व यह आत्मस्वरूप जो कि दूसरे से नहीं लेना है, दूसरी जगह नहीं देखना है, यह खुद ही है तो इतना तो सुभीता हो ही गया कि जिसमें हम चित्त रमाना चाहते हैं वह हम खूद हैं । वह कभी अलग न होगा, तो जिसमें हम अपना उपयोग लगाना चाह रहे वह चीज तो ध्रुव मिली अपने को । अब उस ध्रुव चीज में हम अपना उपयोग लगायें तो कोई धोखा नहीं है, पर रागवासना का संस्कार ऐसा पड़ गया कि हम अपना उपयोग अपने आत्मस्वरूप में जमा नहीं सकते । उसके लिये यत्न करें, स्वाध्याय करें, तत्त्वचर्चा करें, आत्मचिंतन करें, इन उपायों द्वारा अपने आपमें रमने का यत्न करें । यह उपयोग आत्मा को मुक्ति के मार्ग में लगायेगा । जिन्हें अपना हित चाहिये उन्हें चाहिये कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप मार्ग में निरंतर प्रयत्न करें और मुक्ति प्राप्त करें । यहाँ तक श्रावकाचार में अहिंसाव्रत की मुख्यता से 5 अणुव्रतों की जो रक्षा करें और अणुव्रतों के परिणाम को ओ बढ़ाये ऐसे जो अर्द्धवृद्ध हैं उनका वर्णन करते हैं ।