वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 38
From जैनकोष
ते रोया वि य सयला सहियाते परवसेण पुव्वभवे ।
एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं ।।38।।
(64) परवश मोही जीवों द्वारा अमित रोगों के दुःखों का सहन―शरीर में करोड़ों की संख्या में रोग हैं । वे समस्त रोग पूर्वभव में परवश होकर तूने सहे । आज जो भी छोटासा रोग आता है उसे यह जीव पहाड़सा समझ लेता है, पर इससे भी भयानक कठिन-कठिन रोग कितने भवों में इस जीव ने सहे । उनके सामने यह क्या रोग है अथवा रोग क्या है आत्मा में? शरीर पाया है, पुद्गल स्कंध है, उस ही का यह सब परिवर्तन है । आत्मा तो उससे निराला ज्ञानमूर्ति है, पर ऐसी बात कहना गप्प क्यों कहलाने लगती कि श्रद्धा नहीं है निज के ज्ञानमात्र स्वरूप की उस तरह की बुद्धि नहीं बनती, उपयोग भी नहीं बनता, इस कारण अनुभूति रहित, उपयोगरहित आत्मा के स्वरूप की बात कहना कि छल से विषयभोगों को भोगने की उमंग रखना सो उसकी बात गप्प कहलाती है । तो इस शरीर में करोड़ों रोग हैं । उन रोगों को हे मुने ! तूने पूर्वभव में परवश होकर सहे हैं । जैसे मुनि को कोई रोग हुआ हो, कठिन वेदना हुई हो तो उसको याद दिलाया जा रहा है कि यदि शरीर में अहंबुद्धि की, शारीरिक रोगों से घबड़ाया, संक्लेश परिणाम हुआ तो ऐसे ही रोग तू फिर सहेगा । बार-बार सहेगा, इस कारण तू शरीर से दृष्टि हटाकर ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव कर । पराधीन होकर तो तू सारे दुःख सह लेता है और यदि ज्ञानभावना करेगा, जो दुःख आया है उससे चिगेगा नहीं तथा आये हुए दुःख को स्ववश सह लेगा तो कर्मों का नाश करके मुक्त हो जावेगा । इससे कोई दुःख आये रोग आवे तो उसमें घबड़ा जाना यह बिल्कुल ही अनुचित है । कितने ही कठिन दुःख हों कितने ही कठिन रोग हों, जिस काल में देहरहित ज्ञानमात्र इस परमात्मतत्त्व को देख ले कोई तो उसकी सारी व्याधियां उपयोग से तो तत्काल खतम हुई और पापरस खिर जाने से उनमें भी खोटापन मिटकर भलाई आ जायेगी । इससे हे मुने, रोग आने पर तू इन नाना रोगों के आधारभूत देह से भी निराले अपने आपको देख ले ।