वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 39
From जैनकोष
पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमि जाले ।
उयरे वसिओसि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं ।।39।।
(65) जीवों का अशुचि गर्भ में आवास―हे मुने ! तू ऐसे अशुचि उदर में 8-10 महीने । बसकर रहा है । मां के पेट से निकला तो यह तो निकलना कहलाया, मगर जन्म तो तब ही से कहलाया जब से मां के उदर में यह जीव आया । सो कोई 8 माह, कोई 9 माह, कोई 10 माह, इस प्रकार गर्भ में रहता हो सो वहाँ कैसी जगह रहा, जो कि सुनने में भी एक रोमांच करता है । फिर रहने की बात का तो कहा ही क्या जाये? वह उदर मलिन अपवित्र है जिसमें चित्त की मलिनता, आंतड़ियों से भरा हुआ जहाँ मूत्र का झरना, रुधिर का झरना है, रुधिर न हो, मेद फूल जाये, ऐसा फेफसका होना है और जिस पेट में कलेजा रहता है याने दक्षिण भाग में जल का आधारभूत जो मांस की थैली है सो उस कलेजे में यह जीव बसा । रुधिर और बहुतसा अपक्व मैला उससे मिला रहा और कफ रुधिर आदिक, लट आदिक जीवों के समूह ये सब जहाँ पाये जायें, ऐसे पेट में तू 8-9 माह बसा । तो इस देह से तू क्या मोह रखता है? यह देह ही दुःखरूप है । इसके ही कारण नाना जन्ममरण करने पड़ते हैं, सो ये ही सब कष्ट हैं, उन कष्टों से तू हट और अपने अविकार ज्ञानस्वरूप को निरख ।