वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 40
From जैनकोष
दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तंमण्णांते ।
छद्दिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए ।।40।।
(66) उदरवास में अशुचिता का पुन: दिग्दर्शन―हे आत्मन् ! तू माता के पेट में गर्भविषे रहा, सो माता का और पिता का जो मल है वमन का अन्न, अपक्व मल, रुधिर से मिला ऐसे, पेट में तू बसा । सो माता ने अपने दांतों से चबाया और उन दांतों में लगा ठहरा जो पूजा भोजन था वह मां के उदर में गया । उसका ही तूने रसास्वाद किया । याने गर्भ में रहकर तूने खाया क्या? वह चीज केवल उच्छिष्ट है । कुछ खाने को नहीं मिल रहा, मुख से भी नही खाया गया । बाहर से अशुद्ध अपवित्र वस्तु है, वही इसके नशाजाल से इसका प्रवाह होता गया तो उदर में रहकर तेरा जो आहार रहा वह ऐसा अशुचि अपवित्र आहार रहा । परवश होकर कुछ भी जीव को सहना पड़ता है तो सह लेता है । आज बड़ी उम्र होने पर शरीर का बल प्राप्त होने पर ऐसी बात को कोई नहीं सहन कर सकता । अभी जरा सा कूड़ा पड़ा हो कमरे में तो झट नाक भौं सिकोड़कर अपना मन मलिन कर लेते हैं, और परवश उस माता के पेट में कैसा अपवित्र स्थान फिर भी बैठा रहा और वहाँ के दुःख सहा । सो जो देह में ममता रखता है वह पुरुष ऐसे शरीरों को पाने मिटाने का सिलसिला बनाये रहता है और उस जन्ममरण में ऐसे कठिन-कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं, इस कारण है मुने तू सर्व दुःखों के आधारभूत इस देह से ममता तज । यह देह तुझसे प्रकट भिन्न है, तू ज्ञानमात्र है, यह देह मूर्त है, इस मूर्त पदार्थ से हटकर तू ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में आ और अपना यह दुर्लभ मानवजीवन सफल कर ।