वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 41
From जैनकोष
सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर ! बालत्तपत्तेण ।।41।।
(67) शिशुपन के क्लेशों का दिग्दर्शन―हे मुनिवर ! बहुत कठिनाई से बड़े दुःख के साथ तू मां के पेट से निकला, छोटी शिशु अवस्था पायी तो उस शिशु अवस्था में, उस अज्ञानदशा में तेरे में कुछ विवेक ही न रहता था । अगर सामने कोई अशुचि अपवित्र चीज मिले तो उसी को उठाकर खा लेता था या उस अशुचि चीज पर लेट जाया करता था, इससे और अज्ञानता की बात क्या दिखाई जाये? बिल्कुल आसक्त था, कुछ भी कार्य न कर सकता था, अत्यंत पराधीन था । तेरा ही कुछ पुण्य का उदय हुआ तो लोग तेरी संभाल करने लगे, अगर नहीं है पुण्योदय तो पड़े-पड़े चिल्लाता रहा और खोटी मौत से मरण हो जाये तो तूने इस भव में भी कौन सा आनंद प्राप्त किया? जब शिशु रहा तो शिशु अवस्था में भी तूने कठिन दुःख पाया । यहाँ मुनिवर करके संबोधन किया गया है, सो उपदेश मुनिराज को प्रधानतया दिया जा रहा । जो लोग भावलिंग को छोड़कर भावलिंग की सुध ही न रखकर द्रव्यलिंग में ममता रखते हैं और द्रव्यलिंग के नाते से व्रत तप की साधना करते हैं उन मुनिराजों को यहाँ संबोधा गया है कि हे मुनिजन, तू बाह्य आचरण कर रहा है सो यह कौनसा बड़ा कार्य है, क्योंकि भाव बिना ये बाह्य आचरण सब निष्फल होते हैं और भावलिंग न पाने से अनेक बार द्रव्यलिंग धारण करके भी ये ऐसे निष्फल रहे कि जिससे जन्ममरण रंच भी न कट सके और जन्ममरण का तांता बराबर चलता रहा । और वह कैसा जन्ममरण था सो एक इस मनुष्यभव के जन्ममरण से ही बताया जा रहा कि देखो―इस भव का ही जन्म कैसा रहा? जब मां के पेट में आया तो चारों ओर अपवित्र घिनावना स्पर्श रहा । वह होता ही इस प्रकार है, पर बताया जा रहा है कि संसार में भ्रमण करते हुए कैसी घटनायें घटती हैं । और यह भ्रमण बना हैं भावलिंग के पाये बिना, सो द्रव्यलिंग में ममता को तज । यद्यपि द्रव्यलिंग पाये बिना भावलिंग का ग्रहण नहीं बन पाता । उपयोग में अविकार सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप की अनुभूति नहीं बन पाती, लेकिन द्रव्यलिंग तो एकदम परद्रव्य है । मूर्तिक शरीर है, पुद्गलस्कंध है, उसको अपनाने से, उसकी ममता रखने से तो कुछ भी सिद्धि नहीं होती है । इससे द्रव्यलिंग एक बाह्य साधन मात्र जान और अपने आपके अंतस्वरूप का ग्रहण करने में उपयोग को जुटा । इस ज्ञानस्वरूप के ध्यान से ही ये कर्म सब टूट जायेंगे । यह देह भी सदा के लिए विमुक्त हो जायेगा और अनंतकाल के लिए यह जीव-सहज परम आनंद का भोगने वाला बनेगा । इससे एक ही निर्णय रखना कि यह देह तो मेरे लिए कलंक है । इस देह में फंस गया हूँ । छोड़ा जा सकता नहीं । तो अब अन्य सर्व बातों को त्यागकर इस देह से भी ममता त्यागकर अपने सहज अविकार ज्ञानस्वरूप में उपयोगी होना चाहिए ।