वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 42
From जैनकोष
मंसटि᳭ठसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं ।
खरिसवसापुयखिव्भिस भरियं चिंतेहि देहउडं ।।42।।
(68) अतिदुर्गंधमय देह में प्रीति की निरर्थकता का उपदेश―हे मुने, तू इस देहरूपी घर को ऐसा विचार कि यह देह घर, यह देह कुटी अत्यंत अपवित्र है । मांस, हाड़, वीर्य, खून, पित्त उष्ण विकार आतड़ियां उतरना आदिक कर मृतक पुरुष की तरह दुर्गंध वाला देह है । जैसे देह में खून से मिला हुआ कच्चा मल है । पीप और मैदा से भिड़ा हुआ लोहू और खून हैं, ऐसी इन मलिन वस्तुओं से भरा हुआ यह देह है, ऐसे इस दुर्गंधित देह से ममता को छोड़ दो । संवेग और वैराग्य के लिए संसार का स्वभाव और शरीर का स्वभाव विचारा जाता है । संवेग के लिए, संसार से हटने के लिए और धर्म में लगने के लिए जगत का स्वरूप विचारना होता है और वैराग्य के लिए शरीर का स्वरूप विचारा जाता है यह शरीर की बात कही जा रही । जो शरीर बड़ा सुंदर रूपवान दिखता है वह शरीर अत्यंत ग्लानि युक्त वस्तुओं से भरा हुआ है । सर्वप्रथम तो इसमें हडि᳭डयां हैं, जैसी श्मशान में दिखती हैं वे ही ह᳭डि᳭डयां इस शरीर में हैं और उन हडि᳭डयों पर मांस लिपटा हुआ हैं, खून आदिक लिपटा है और ऊपर से चाम ढका है । यदि चाम से यह देह मढ़ा हुआ न होता तो यह तो प्रकट भयावना लगता और इन सब वस्तुओं में बुरी दुर्गंध होती । तो ऐसे दुर्गंधित पदार्थ से भरा हुआ यह देह रूपी कूट है और जिसमें आंते उतर जाये, अनेक प्रकार के रोग हो जायें, कठिन रोग, जो ग्लानि करने वाले रोग हैं वे भी इसमें होते हैं । ऐसा यह दुर्गंधमय देह है । मनुष्य खाता है तो वह खाना कम कच्चा रहा या कम पक्का रहा, उससे मिला हुआ सारा देह है अत: उससे दुर्गंध और भी बढ़ जाती है ꠰ ऐसे दुर्गंधमय वस्तुओं से भरे हुए इस देह में हे मुनि ? क्या ममता करता है ? जो मुनि साधु होकर अपने देस में ममता करें कि मैं साधु हूं इस देह को निरखकर अपने में साधुपन सोचकर मौज मानना, भला समझना यह देह की ममता है । और जीव भी तो इसी तरह ममता करते हैं देह को देखकर मैं इसका पिता हूँ, मैं इस घर वाला हूँ, मैं इस पद का हूँ, मैं इतने धन वाला हूँ, यह देह को देखकर ही तो सोचा जाता । यही तो देह को ममता है । तो कोई साधु हो जाये और उस देह में ऐसी बुद्धि रखे कि यह मैं साधु बन गया तो वह देह की ममता ही कर रहा है, सो जब तक देह में ममता है तब तक मोक्ष की सिद्धि नहीं होती इससे हे मुने तू इस द्रव्यलिंग से ममत्व को त्याग दे और अपने अधिकार ज्ञानस्वरूप भावलिंग की सम्हाल कर ।