वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 43
From जैनकोष
भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण ।
इय भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर ।।43।।
(69) भावसहित परिग्रहत्याग की सार्थकता―जो मुनि भाव के विकार से अन्य विकार आदिक से मुक्त हुआ है उसे ही मुक्त समझना चाहिए और जो मात्र बाह्य बांधव परिवार मित्रादिक से मुक्त हुआ तो वह वास्तव में मुक्त नहीं है । यदि तद्विषयक मूर्छा त्याग दी तो वह मुक्त कहलायेगा । वह बाह्य बांधव कुटुंब मित्रादिक को छोड़ने से और निर्ग्रंथपद धारण करने से मोक्षमार्गी न कहलायेंगे किंतु अपने भीतर का ममत्वभाव न रहे, खोटी वासना न रहे तो उसे निर्ग्रंथ कहियेगा और अगर रागद्वेष नहीं छूटा तो वह साधु नहीं, निर्ग्रंथ नहीं, भीतर की वासना छूटने से ही निर्ग्रंथ कहलाता । इस कारण हे मुने द्रव्यलिंग तो धारण किया ही है याने सब परिग्रहों को त्याग करके इस मुनिभेष को धारण किया ही है । अब भीतर में रागद्वेष का परिहार करके तू वास्तविक मुनि बन ।