वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 44
From जैनकोष
देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर ।
अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ।꠰44।।
(70) महंतपुरुषों के भी ज्ञान बिना कषायविघ्न का अनुपशमन―अब यही उदाहरण देखे जा रहे हैं कि जिसने समस्त बाह्य पदार्थों का तो त्याग कर दिया किंतु भीतर में विषयकषायों की वासना नहीं मिटी तो कितना ही काल व्यर्थ गया और वह ही यदि कोई सम्हल गया तो उसने अपना सुधार कर लिया और यदि कोई सम्हला ही नहीं, तो उसने अपना बिगाड़ कर लिया । यहाँ पौराणिक उदाहरण दे रहे हैं बाहुबलि स्वामी का, इस क्षेत्र का नाम है भरतक्षेत्र या भारतदेश । इसका भारत नाम क्यों पड़ा? तो ऋषभदेव के पुत्र भरतचक्रवर्ती हुए उनके नाम पर भारतदेश या भारतवर्ष नाम पड़ा । उस समय भरतचक्रवर्ती का इस भारत क्षेत्र में छहों खंडों पर राज्य था । ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबलि थे । भरत तो बड़े थे और बाहुबलि छोटे थे । भरत दूसरी रानी से थे और बाहुबलि दूसरी रानी से थे । वे दोनों अलग-अलग अपने देश का राज्य करते थे । अब भरत को चक्रवर्तीपना सिद्ध हुआ? उनके आयुध में चक्ररत्न पैदा हुआ । यह महान सम्राट होने की पहिचान हुई । जब उन्होंने अपनी सेना सहित छहों खंडों ने विहार किया और जो शत्रु वश में न हुए थे उन्हें वश किया । छहों खंड में विजय प्राप्त करके जब वह अयोध्या में आये तो उनका चक्ररत्न अयोध्यानगरी में प्रवेश ही नहीं कर रहा था । वहां पूछा गया कि अभी कौन सा राजा जीतने के लिए बचा हैं क्योंकि चक्ररत्न अयोध्या नगरी में प्रवेश नहीं कर रहा तो वहाँ बताया गया कि अभी आपके भाई बाहुबलि शेष रह गए है जिनको आपने जीता नहीं । तब भरत ने बाहुबलि के पास पत्र भेजा कि तुम मेरी शरण में आवो । तो बाहुबलि उत्तर दिया कि हम भी ऋषभदेव के पुत्र हैं ओर तुम भी । इसमें एक दूसरे के आधीन होने की बात ही क्या है? हां बड़े भाई होने के नाते से हम आपके सामने नम्रीभूत हैं, मगर राज्यपद के नाते से हम आपके आगे नहीं झुकेंगे । बस दोनों में युद्ध की तैयारी हो गई । उस समय दोनों राजाओं के मंत्रियों ने मिलकर विचार किया कि इस युद्ध में तो हजारों की जान जायेगी सो कोई ऐसा उपाय बनाया जाये कि इन दोनों के बीच में युद्ध भी सिद्ध हो जाये और लोगों का खून भी न बहे । तो एक उपाय सोचा कि भरत बाहुबलि ये दोनों परस्पर में युद्ध करें और उस युद्ध में जो विजय प्राप्त करे बस उसके विजय का निर्णय सुनाया जाये । आखिर यह बात तय हो गई और तीन तरह के युद्ध रखे गए―(1) दृष्टियुद्ध (2) मल्लयुद्ध और (3) जलयुद्ध । मानो पहले जलयुद्ध किया, तो भरतचक्रवर्ती उम्र में बड़े होकर भी शरीर छोटा था और बाहुबलि का शरीर उम्र में छोटे होकर भी भरत से कुछ ऊंचा था तो जब जलयुद्ध करने चले मानो सरोवर में प्रवेश करके पानी के छींटे एक दूसरे की आंखों में फेंकने लगे तो बाहुबलि के छींटे भरत की आंखों में तेज पड़ते और चूंकि बाहुबलि कुछ ऊंचे थे सो भरत के छींटे बाहुबलि की आंखों में कम पड़ते । तो उस जल युद्ध में बाहुबलि की जीत हुई ꠰ फिर हुआ दृष्टियुद्ध । एक दूसरे की दृष्टि में दृष्टि मिलाये जिसकी पलक पहले झप जाये वह हारा माना जायेगा तो बाहुबलि बड़े थे तो उनको आंखें बहुत ऊंचे नहीं उठानी पड़ती थी । उनकी दृष्टि नीचे की ओर रहती थी और भरत को अपनी दृष्टि ऊंचे उठानी पड़ती थी छोटा बड़ा होने से तो यह प्राकृतिक बात है कि ऊंचा मुख उठाकर पलक उठाये तो वह बहुत देर तक स्थिर न रहेगा आखिर उसमें भी बाहुबलि की जीत हुईं । तीसरा युद्ध हुआ मल्लयुद्ध । तो उस मल्लयुद्ध में भी बाहुबलि लंबे थे, पृष्ठ भी थे सो झट भरत चक्रवर्ती को अपने दोनों हाथों से उठा लिया और कंधे पर रख लिया और एक दो चक्र घुमा करके दुनिया को बता दिया कि बाहुबलि की विजय हुई उस समय भरत बहुत शर्मिंदा हुए और क्रोध में आकर जो उनको चक्ररत्न की सिद्धि हुई थी सो वह चक्र बाहुबलि पर घुमा दिया । चक्र की ऐसी नीति रीति होती है कि जिस पर घुमाया जाये उसका सर कट जाता है, मगर कुटुंब पर जाये तो वह चक्ररत्न तीन प्रदक्षिणा देकर वापिस हो जाता है । बाहुबलि की तीन प्रदक्षिणा देकर वह चक्र भरत के हाथ में आया । भरत का बड़ा अपमान हुआ ।
(71) बाहुबलि का वैराग्य व तपश्चरण एवं कषायविघ्न की हैरानी―कषाय के समस्त दृश्य देखकर बाहुबलि को बड़ा वैराग्य जगा कि एक इस भिन्न असार पौद्गलिक ठाटबाट के लिए भाई-भाई में भी ऐसा जंग छिड़ जाता है । यह राज्यपद बेकार है, इस प्रकार के विरक्ति के भाव में वह बढ़े हुए थे । आखिर सारा राज्य छोड़कर बन में जाकर निर्ग्रंथ दीक्षा लेकर मुनि हो गए । बाहुबलि मुनि होकर एक वर्ष तक अडिग तप करते रहे, जहाँ खड़े वहीं खड़े रहे । वहीं बरसात बीती, ठंड बीती, गर्मी बीती । वहाँ बामी लग गई, बेल चढ़ गई बामी से सर्प भी निकलकर उनके शरीर पर चढ़ गए । एक वर्ष में जो हालत हो सकती है ꠰ सो हुई और बाहुबलि चूंकि वज्रवृषभ नाराचसंहनन के धारी थे सो जरा भी डिगे नहीं । मगर एक वर्ष तक तप करते हुए भी उन्हें केवलज्ञान न जगा । इसका कारण तो एक कवि ने यह बतलाया है कि बाहुबलि के चित्त में ऐसा अभिमान था कि भरत की भूमि पर खड़ा हुआ तप कर रहा हूँ । क्योंकि उस समय भरत चक्रवर्ती थे, भूमि उनकी ही थी, जैसा कि लोकव्यवहार में माना जाता है और बाहुबली उस घटना के कारण विरक्त हुए थे । यह ध्यान में रहा । इस ध्यान के कारण उनको केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ । दूसरा कवि यह कहता है कि बाहुबलि को यह अफसोस रहा कि मेरे द्वारा मेरे बड़े भाई का अपमान हुआ है । इस अफसोस के कारण उनको केवलज्ञान नहीं जगा ।
(72) ज्ञानद्वारा कषायविघ्न का प्रलय और बाहुबलिजी को कैवल्यलाभ―खैर बाहुबलिजी के आत्मविकास में बाधक कारण कुछ भी हो । जब भरतचक्रवर्ती बाहुबलि के सामने आये और भरत सम्राट ने अपना मुकुट नीचे रखकर बाहुबलि के चरणों में नमस्कार करके स्तवन किया और कहा कि हे प्रभु यह भूमि किसकी है? जो आया सो छोड़कर चला गया । भूमि-भूमि की है और यह मैं आपका सेवक हूँ और गुणों की स्तुति की तो वहाँ बाहुबलिस्वामी का शल्य दूर हुआ । यदि अभिमान का शल्य रहा हो कि मैं भरत की भूमि पर तपकर रहा हूँ तो वह भी शल्य दूर हो गया और यदि अपमान का शल्य रहा हो तो भाई को सामने नम्रीभूत होते देखकर वह भी शल्य दूर हुआ । उस समय उनको केवलज्ञान हुआ । मगर यह तो देखो कि जब तक सही भाव नहीं बना एक वर्ष तक तप करने पर भी, जब तक कषाय भाव नहीं गया तब तक उनको कैवल्य की प्राप्ति न हुई । जब कलुषता मिटी तब केवलज्ञान जगा, इस कारण आचार्य संत उपदेश करते हैं कि बड़ी शक्ति का धारक भी कोई महान पुरुष हो तो भाव की शुद्धि के बिना सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता, तब अन्य छोटे लोगों की तो कथा ही क्या करना? इस कारण अपने भावों को शुद्ध कीजिए ।
(73) भावलिंग बिना सिद्धि की असंभवता―भावों की शुद्धि हुए बिना तन, मन, वचन की कुछ भी किया हो क्रोधादि वाली किया से मुक्ति नहीं प्राप्त होती और मुक्ति का लाभ करने के लिए क्या करना सो देखो, अपने आपको ऐसी मुक्ति चाहिए कि मुक्त होने पर भी मैं ऐसा अकेला रहूंगा, सो वह अकेला आत्मा अब भी अकेला ही है । भले ही कुछ कर्म का संयोग है, कुछ अन्य जीवों का संयोग है, शरीर का संयोग है तो रहो, यह भी कोई घटना है मगर स्वरूपदृष्टि से देखा जाये तो यह आत्मा अपने में स्वतंत्र केवल ज्ञानवृत्ति वाला वह स्वयं परमात्मस्वरूप है । सो जो अपने में अनादि अनंत काल तक प्रकाशमान विशुद्ध ज्ञानमात्र अपने आपको देखता है उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है और मुक्ति का लाभ होता है । और जो अपने को ऐसा केवल नहीं निरख पाता किंतु कोई परसंयोगी मानता है, मैं अमुक हूँ बाह्यपदार्थ में तो वह पुरुष संसार में भटकता है । मुक्ति में रहता है यह जीव अकेला सो यहाँ भी अकेला स्वरूप देख पाये तो यह अकेला बन सकेगा । और जब दुकेला देखता है । अपने को शरीर वाला देखता है यह दुकेला ही रहता चला जायेगा याने इसका जन्म मरण होता ही चला जायेगा इससे इन बाहरी वस्तुओं को गौण कर अन्य पदार्थों के संयोग को गौण करके अपने में केवल सहज ज्ञानमात्र ही अपने को निरखना चाहिये और ऐसा ही ज्ञानमात्र अपने को अनुभवना चाहिये । मैं ज्ञानमात्र हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ, अन्य कुछ मेरा है नहीं । अन्य किसी घटना से मेरा सुधार बिगाड़ है नहीं । अपने स्वरूप को देखूं तो अपना सब सुधार ही है । ऐसा निरखने से द्रव्यलिंग भी सार्थक हो जाता है और एक भाव से विमुख होने से यह द्रव्यलिंग भी निरर्थक हो जाता है, सो एक भाव से विमुख होने से यह द्रव्यलिंग धारण करना केवल परिश्रम ही है ।