वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 45
From जैनकोष
महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो ।
सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ।।45।।
(74) कषायावेश में मधुपिंगल मुनि द्वारा निदानबंध―प्रसंग यह चल रहा है कि भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से कोई सिद्धि नहीं है । उसके विषय में यहाँ एक उदाहरण दिया गया है मधुपिंगल नामक मुनि का । मधुपिंगल नामक मुनि की कथा पुराणों में है, जिसका संक्षेप यह है कि इस ही जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में सुरम्य स्थान पोदनापुर नगर का राजा तृण पिंगल का पुत्र मधुपिंगल था । वह मधुपिंगल एक बार चारणपुगल नगर के राजा सुयोधन की पुत्री सुलसा के स्वयंवर में गया था । स्वयंवर एक ऐसा विवाह निर्णय की सभा होती है कि जहाँ किसी राजपुत्री का स्वयंवर रचा हुआ होता है, वहाँ सब राजपुत्र एकत्रित होते हैं और वह पुत्री जिसको पसंद करे, वर चुने उसके साथ संबंध निर्णीत होता है । तो ऐसी स्वयंवर सभा में यह मधुपिंगल गया था और उस स्वयंवर की सभा में सभी देशों के राजपुत्र जाया करते हैं सो वहाँ साकेतपुरी का राजा सगर भी आया था और वहाँ सभी राजपुत्र ऐसा सोचते हैं कि कोई उपाय बनावें कि दूसरों से इस पुत्री का चित्त हट जाये और मेरे की ही पसंद करे । सो वहाँ राजा सगर के मंत्रियों ने और सगर ने मिलकर विचार किया कि इस मधुपिंगल से इस पुत्री की दृष्टि हट जानी चाहिए । सो इस षड्यंत्र में जल्दी ही एक सकुनशास्त्र बना डाला, सामुद्रिक शास्त्र बना दिया जिसमें यह भी लिख दिया कि जिसके पीले नेत्र हों, पिंगल की तरह हों, और उसे यदि कोई कन्या बने अर्थात् अपना पति बनाये तो वह कन्या विधवा होगी, यह भी उसमें स्पष्ट लिख दिया । मधुपिंगल के नेत्र पिंगल थे, सो ऐसी ही बात लिखी जिससे मधुपिंगल की निंदा चले । जब यह बात प्रसिद्ध की, तो उस कन्या सुलसा ने मधुपिंगल के गले में जयमाला न डालकर सगर के गले में जयमाला डाल दिया । खैर यहाँ तक कुछ भी पता न चला । मधुपिंगल को वैराग्य जगा और विरक्त होकर मुनि हो गए । अब मुनि हुए बाद सगर के मंत्रियों के कपट का पता पड़ गया । तब तक कुछ भी पता न था । सही ढंग से दीक्षा हुई थी, किंतु जब सगर के मंत्रियों के कपट का पता पड़ गया तो उसे बड़ा क्रोध आया । उस मधुपिंगल मुनि ने उस क्रोध में निदान बांधा कि मेरी तपस्या का फल यह हो कि अन्य जन्म में मैं सगर के कुल को निर्मूल कर दूं अर्थात् इसके कुल का कोई न बचे, सबका संहार करूं ।
(75) भावलिंग बिना मधुपिंगल मुनि की बरबादी―वह मधुपिंगल मरकर महाकालासुर नाम का देव हुआ । तब उस असुर ने सगर का और मंत्री का सबका मरण का उपाय सोचा और उपाय यह मिला कि जिसके प्रयोग से उनकी बरबादी तो हुई मगर आगे परंपरा चलकर लोगों की भी बरबादी होती आ रही है । उस असुर ने क्षीर कदंब ब्राह्मण के पुत्र पर्वत को देखा कि यह पापी भी है और यह अर्थ भी ऐसा ही कर रहा है वेद मंत्र का कि बकरा आदिक से यज्ञ होमना चाहिए, तब उस यज्ञ का सहाई बन गया वह देव, जिस यज्ञ में पशु होमे जाते थे । उस यज्ञ में सहाई किस तरह बना कि पहले तो सगर राजा को यज्ञ का उपदेश दिया और देख राजन् तेरे यज्ञ का मैं सहाई होऊंगा, फिर पर्वत सगर राजा के पास गया और वहाँ यज्ञ होम करवाया और उस यज्ञ में इस असुरदेव ने अपनी माया से उन पशुओं को स्वर्ग में जाते हुए दिखाया । यह सब षड्यंत्र ही था । उससे सगर का उस पशु हिंसा के काम में बड़ा मन रमा । तीव्र रौद्रध्यान बनाया जिस पाप के कारण सगर 7वें नरक गया और इसी तरह उसके कुटुंब का भी विध्वंस हुआ । तो तात्पर्य कहने का यह है कि मधुपिंगल नामक मुनि ने निदान करके महाकालासुर कुदेव बनकर महापाप उत्पन्न किया । मुनि हो गया, पहले ढंग से मुनि हुआ था किंतु पीछे भाव बिगड़े और वह खोटी लाइन में पड़ गया । उसने सिद्धि प्राप्त न की । तो द्रव्यलिंग धारण करने से क्या होता यदि भावलिंग न हो तो । मोक्षमार्ग में भावलिंग की ही प्रधानता है और भावलिंग की सिद्धि संपूर्णतया द्रव्यलिंग पाये बिना होती नहीं है, इसलिए द्रव्यलिंग तो बाह्य साधन है और भावलिंग कर्मों के प्रक्षय करने का मूल साधन है ।