वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-10
From जैनकोष
तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्याऽंतरायाऽऽसादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो: ।।6-10।।
(42) ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के कारण―ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के ये आस्रव कहे गए हैं । वे कौनसे हैं? ज्ञान के विषय में (1) प्रदोष, (2) निह्नव, (3) मात्सर्य, (4) अंतराय, (5) आसादन और (6) उपघात । ज्ञान के विषय में ये परिणाम हों तो ज्ञानावरण का आस्रव होता है और दर्शन के विषय में परिणाम हों तो दर्शनावरण का आस्रव होता है । प्रदोष किसे कहते हैं? मोक्षमार्ग के कारणभूत ज्ञान का कीर्तन होने पर, उसकी प्रशंसा की जाने पर जिस किसी को बर्दास्त न हो उसके अंतरंग में जो बुरे लगने के परिणाम हैं पैशून्य अर्थात् चुगली आदिक के परिणाम हैं वे प्रदोष कहलाते हैं । याने उस ज्ञानकीर्तन के बारे में पीठ पीछे निंदा करना, उस ज्ञान के विषय में दोष बताने का यत्न करना ये सब प्रदोष कहलाते हैं । जो पुरुष ज्ञान के विषय में प्रदोष करता है उसके ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है । दूसरा है ज्ञाननिह्नव―ज्ञान का छुपा लेना । किसी बहाने से या किसी कार्य का बहाना करके यों कहना कि अभी फुरसत नहीं या हम नहीं जानते, किसी भी रूप से ज्ञान को छुपा लेना यह ज्ञाननिह्नव है । ऐसे प्रयोग से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है । तीसरा है ज्ञानमात्सर्य―जिसके पास ज्ञान है वह अन्य दूसरे को ज्ञान देवे यह बात युक्त है, किंतु कुछ ऐसा ख्याल करके कि हमने इसे भी सिखा दिया तब तो इसकी ख्याति प्रसिद्धि हो जायेगी तो उससे एक मात्सर्यभाव आया और उस मात्सर्य भाव के कारण कोई बहाना करके उसे ज्ञान न देना सो ज्ञानमात्सर्य है । ज्ञानमात्सर्यका भाव करने से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है जिसके फल में जब इन कर्मों का उदय आयगा तो यह मूर्ख रहेगा, खूब सिखाया जाने पर भी इसे विद्या न आयेगी । चौथा है ज्ञानांतराय―खोटे परिणाम होने से ज्ञान में अंतर डाल देना सो ज्ञानांतराय है, जैसे किसी विद्यार्थी को कोई छात्रवृत्ति देना चाहे और उसमें कोई विघ्न डाल दे कुछ कह कर या कोई किसी को शास्त्र देना चाह रहा है और उसमें कोई अंतराय डाल दे, किसी भी प्रकार से ज्ञान में अंतर पड़ जाये उसे ज्ञानांतराय कहते है । ऐसे कर्मों से ऐसी ज्ञानावरण प्रकृतियों का आस्रव होता है कि उसे भी भविष्य में अनेक विघ्न आते रहेंगे और वह ज्ञान न पा सकेगा । पांचवां है ज्ञानासादन―कोई दूसरा ज्ञान दे रहा हो या ज्ञान का प्रकाशन करना चाहे तो उस प्रकाशित ज्ञान को शरीर या वचन द्वारा उसको गिरा देना, हटा देना, टाल देना सो यह आसादन है छठा है उपघात―अभिप्राय मलिन होने से किसी दूसरे के ज्ञान में दूषण लगाना कि उसका ज्ञान किस काम का? वह इस तरह से बोलता ऐसी प्रवृत्ति होती इस तरह के दोष लगाना यह उपघात कहलाता है और ज्ञानविषयक उपघात करने से ऐसे ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है कि जिससे भविष्यकाल में उसके भी ज्ञान में कोई दूसरा दूषण लगायेगा और यह दुःख मानेगा । यह सब ज्ञानविषयक कारण ज्ञानावरण कर्म के आस्रव कराते हैं । यहां अंत में दो शब्द दिया है―1-आसादन और 2-उपघात, तो आसादन में तो किसी में विद्यमान ज्ञान हो तो उसका विनय प्रसिद्धि प्रशंसा न करके उसका अनादर किया जाता है जब कि उपघात में उसके ज्ञान को अज्ञान ही कह कर, काहे का ज्ञान, सब उल्टा बकबाद आदिक के शब्द से उसको अज्ञान कहकर उस ज्ञान का नाश ही किया जाता है, तो ऐसे कार्यों से, परिणामों से खोटे कर्मों का आस्रव होता है ।
(43) दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण व सूत्रोक्त तत् शब्द से ज्ञान दर्शन का ग्रहण―जैसे ज्ञान के विषय में कारण कहा गया है यह ही दर्शन के विषय में हो तो वहाँ दर्शनावरण का आस्रव होता है । जैसे कोई दर्शन करने की बात कहे तो उसके प्रति भीतर ही ईर्ष्या के परिणाम बनें, यह प्रदोष है । कोई दर्शन के लिए पूछे कि राजा साहब या महाराज जी वहां हैं क्या? तो नहीं हैं या मुझे नहीं मालूम, ऐसा ही कुछ कह कर उसके दर्शन का लोप कर देना, छुपा देना ऐसी बात सो दर्शननिह्नव है, किसी को कोई किसी बहाने दर्शन ही न दे, छुप जाये या कुछ बहाना कर दे, न मिलना चाहे तो वह दर्शन मात्सर्य है । किसी के दर्शन में अंतराय डाल दे, कोई दर्शन करना चाहता है तो कोई ऐसी अड़चन डाल दे कि दर्शन न कर सके यह अंतराय है । या कोई दूसरा दर्शन दे रहा हो तो उसे शरीर वचन आदिक की चेष्टावों से रोक देवे, मना कर देवे, यह आसादन दोष है । या किसी के विषय में दूषण लगाये, उसका क्या दर्शन करना, उसका तो यों आचरण है, यह उपघात है, तो ऐसा दर्शन के विषयमें प्रदोष आदिक करने से दर्शनावरण का आस्रव होता है जिससे भविष्य में यह भी किसी अच्छे पुरुष का, तत्त्व का दर्शन न कर सकेगा । इस सूत्र में जो तत् शब्द दिया है उससे ज्ञान और दर्शन का निर्देश होता है अर्थात् ज्ञान के और दर्शन के विषय में कारण प्रदोष निह्नव आदि होना ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव का कारण होता है । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि तत् शब्द से ज्ञान और दर्शन को ग्रहण कैसे कर लिया गया है? तो उत्तर यह है कि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण का आस्रव बताया गया है तो तत् शब्द से अन्य और कुछ ग्रहण कैसे हो सकता? ज्ञान और दर्शन के आवरण की बात है तो ज्ञान और दर्शन का ही विषय बनेगा ।
(44) ज्ञानावरण दर्शनावरण के आस्रवों के कारण एक होने से ज्ञानावरण व दर्शनावरण में एकत्व के प्रसंग की आशंका व उसका समाधान―अब यहाँ एक शंका होती है जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण के एक समान आस्रवकारण हैं याने प्रदोष निह्नव आदिक ये ही तो ज्ञानावरण कर्म के आस्रयभूत कारण हैं और ये ही दर्शनावरण के हैं । तो ज्ञानावरण और दर्शनावरण में एकता आ जायेगी, क्योंकि जिसके कारण एक होते हैं यह चीज भी एक हो जाती है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह कथन युक्त नहीं है, इसमें तो बड़ा विरोध बनता है । जैसे बताओ जितने भी शब्द निकलते हैं वे कंठ ओंठ आदिक से ही तो निकलते हैं, चाहे कोई बोले । तो जब वचनों का कारण एक ही रहा कंठ ओंठ आदिक सभी मनुष्यों के तो वे वचन यदि किसी पक्ष के साधक हैं तो सबके लिए साधक कहलाये, यदि बाधक हैं तो सबके लिए बाधक कहलायें । जब यह मान रहे हो कि एक समान कारण होवे तो कार्य एक समान होता है तो वचनों का कारण एक समान है, तो वचन भी एक समान हो जाना चाहिए जैसे कोई जीव का निषेध करता है तो शब्द तो वे ही हैं तो सब कोई निषेध मान लेंगे । ऐसे ही वचन अगर साधक हैं तो सबके लिए साधक बन जायेगे सबका साधक बन जाये फिर वादविवाद क्यों होता? एक समाधानकर्ता एक खंडनकर्ता, ऐसा क्यों होता, क्योंकि वचन तो एक हो गए क्योंकि उनका कारण एक है । यदि यह कहा जाये कि भले ही वचनों का कारण एक समान है तो भी कोई वचन अपने पक्ष के साधक ही होते और कोई वचन परपक्ष के निषेधक ही होते । उन वचनों में किसी में साधकपना है किसी में दूषकपना है, इसलिए वचन एक नहीं हो सकता । तब उत्तर यह है कि यह तो स्ववचन विरोध हो गया । अभी तो कह रहे थे कि जिसका एक समान कारण होता है वह कार्य सब एक हो जाता है और प्रकृत में ज्ञानावरण और दर्शनावरण के लिए कह रहे हैं, पर वह कुंजी अब गलत हो गईं ना, स्ववचन विरोध हो गया तो यह बात युक्त न रही कि जिसके कारण एक हैं वे कार्य एक समान कहलाते हैं, और फिर प्रत्यक्ष व आगम से भी बाधा आती है । जो लोग यह कहते हैं कि जिसका कारण एक समान है, वह कार्य भी एक समान है इस बात में प्रत्यक्ष से भी बाधा है और आगम से भी बाधा है, प्रत्यक्ष में देखते हैं कि घड़ा, सकोरा, गगरी, सुराही आदिक सब एक मृत्पिंड से बनते हैं, मिट्टी से बनते । वही कुम्हार बैठा है, चक्र दंड भी वही है तो जब एक समान कारण मिल गए तब तो ये घड़ा सकोरा, गगरी आदिक भिन्न-भिन्न कार्य क्यों बने? इन्हें न बनना चाहिए । तो प्रत्यक्ष में बाधा आती आगम की बाधा सभी के यहाँ है, सांख्य लोग महान् अहंकार शरीर विकार आदिक सबका प्रधान कारण एक मानते हैं, तो जब एक ही कारण प्रधान है तो उसके कार्य सब समान होने चाहिएँ, पर वे भी अनेक तरह के कार्य मानते । बौद्ध लोग पुण्य अपुण्य संसार आदिक का कारण एक मानते हैं अविद्या, तो जब कारण एक है अविद्या तो वे कार्य अनेक क्यों हो गए? वहाँ भी यह बात मानी गई कि भले ही कारण एक हो फिर भी कार्य अनेक प्रकार के होते हैं । नैयायिक लोग अर्थ नेत्र आदिक का सन्निकर्ष मानते हैं इसलिए सन्निकर्ष तो सन्निकर्ष ही है, एक प्रकार का कारण है, पर उससे भिन्न कार्य क्यों हुए? वे भिन्न कार्य मानते । रूप का ज्ञान, रस का ज्ञान, सुख होना, दुःख होना, अनेक प्रकार के कार्य होते, तो उनको भी वह इष्ट न रहा कि समान कारण हों तो कार्य समान ही होते हैं ।
(45) ज्ञानावरण व दर्शनावरण के आस्रवों के कारणों का एक समान कहे जाने का कारण―अब एक जिज्ञासा होती है कि तब फिर ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव समान ही क्यों कहे गए ? उसका उत्तर यह है कि जब इन दोनों आवरणों का पूर्ण क्षय हो जाता है तो केवली भगवान में एक साथ ही केवलज्ञान और केवलदर्शन का विकास हो जाता है । जैसे सूर्य में प्रताप और प्रकाश ये दोनों एक साथ रहते हैं इसी प्रकार ज्ञान और दर्शन का जब विकास होता है तो एक साथ ही विकास होता है । इस कारण पहिले याने सावरणदशा
में इनके आस्रव एक समान ही रहे, किंतु जो आवरणसहित ज्ञान है वहां ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति क्रम से होती है । जैसे जो जल गर्म हो गया है याने जल के साथ अग्नि का समवाय बनाते हैं तो जल में प्रताप तो है, गर्मी तो है, पर प्रकाश नहीं है । और जैसे दीपक के प्रकाश में प्रकाश तो है, किंतु प्रताप नहीं है ऐसे ही जो साधारण लोग होते हैं छद्मस्थ जीव होते हैं उनके जिस समय ज्ञानोपयोग होता है उस समय दर्शनोपयोग नहीं और जिस समय दर्शनोपयोग होता है उस समय ज्ञानोपयोग नहीं ।
(46) प्रभु की त्रिकालदर्शिता की मीमांसा―यहां एक आशंका होती है कि जो पदार्थ अतीत हो चुके याने जो पर्याय गुजर चुकी और जो पर्याय अनागत है आगामी काल में होगी उनके विषय में दर्शन किस तरह से हो जायेगा? दर्शन तो सामने वर्तमान रहने वाले पदार्थ का हुआ करता । जो घटना गुजर चुकी, जो घटनायें अभी नहीं आयीं, भविष्य में आयेगी उनके विषय में दर्शन कैसे बनेगा, क्योंकि दर्शन का लक्षण घटित नहीं होता । दर्शन का दर्शन तो छुवे हुए विषय से हुआ करता है और ज्ञान बिना छुवे अविषय में हुआ करता है, पर जो अतीत है वह तो नष्ट हो चुका, जो अनागत है, भविष्य का है । वह अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ तो यों दोनों ही असत् हैं, न अतीत की अब सत्ता है और न भविष्य की अब सत्ता है । तो उनका छूना और उनका विषय होना यह कैसे बन सकता है? और जब अतीत और भविष्य का स्पर्श व विषय न हुआ तो यों ही कह लीजिए कि ज्ञान ही दर्शन कहलाया, फिर केवली भगवान को त्रिकालदर्शी कैसे कहा गया है? यदि दर्शन की बात कहना है तो उन्हें वर्तमानदर्शी कहना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि जो यह बताया गया है कि दर्शन छुवे हुए पदार्थ का होता है यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रभु का ज्ञान निरावरण होता है और निरावरण होने पर वहां ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं । जैसे कोई सूर्य मेघपटल के बीच आया है तो उसका प्रकाश और प्रताप कम हो जाता है और जब मेघपटल हट गए तब सूर्य का प्रकाश और प्रताप दोनों एक जगह हो जाते हैं । जहां प्रताप है वहां ही प्रकाश है । तो इसी तरह से केवलज्ञानरूपी सूर्य जब तक आवरण में था तब तक अनेक दशायें चलती थीं, किंतु जब आवरण हट गया तो प्रभु के अचिंत्य माहात्म्य और विभूतिविशेष प्रकट हो गया फिर उनका जहां ज्ञान है वहां दर्शन अवश्य है । और जहां दर्शन है वहां ज्ञान भी अवश्य है । और भी सुनो यह तो माना ही जा रहा है शंकाकार के द्वारा कि केवली भगवान असद्भूत को जानते हैं याने जो पर्याय गुजर गई है, जो पर्याय आगे होगी उसको जान लेते हैं और बिना उपदेश किए हुए को जान लेते हैं, तो ऐसे ही हम पूछते हैं कि असद्भूत को और अनुपदिष्ट को भगवान देख लें तो इसमें कौन सी बाधा आती है? और भी सुनो जैसे न छुवे हुए अविषयभूत पदार्थ में बिना उपदेशके छद्मस्थ को ज्ञान नहीं हो पाता, जिसके ज्ञानावरण लगा है, दर्शनावरण भी लगा है वह बिना छुवे को बिना उपदेश के नहीं जान सकता । क्या इसी तरह केवली के बारे में भी आपकी मान्यता है कि वे भी अस्पृष्ट को नहीं जान सकते? यदि कहो कि केवली भगवान के विषय में ऐसी मान्यता नहीं है अर्थात् वह सबको जान लेता है तो जैसे आवरण सहित जीव को छुए और विषय में दर्शन होता है उस तरह केवली के नहीं माना जा सकता । केवली भगवान तीन काल के पदार्थों को जानने वाले हैं और देखने वाले हैं, हाँ अवधिज्ञान की बात और तरह है । अवधिज्ञानी पुरुष के आवरण हैं तो भी अवधिदर्शनावरण का क्षयोपशम तो निरंतर निरपेक्ष है सो केवलदर्शन की तरह बिना उपदेश के ही अतीत और भविष्य के पदार्थों के छुवे बिना भी अवधिदर्शन होता है ।
(47) मन:पर्ययदर्शन का उल्लेख न होने का कारण―यहां एक शंकाकार कहता है कि एक दर्शन मन:पर्ययदर्शन भी, मान लीजिए । जैसे अवधिज्ञानावरण की जोड़ी में अवधिदर्शनावरण माना है ऐसे ही मनःपर्ययज्ञानावरण की जोड़ी में मन:पर्ययदर्शन भी मान लेना चाहिए याने उसी तरह मन:पर्ययज्ञानावरण के साथ मन:पर्ययदर्शनावरण भी बन जाना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि मनःपर्ययदर्शन मानने का कोई कारण नहीं है । मन:पर्ययदर्शनावरण तो है ही, क्योंकि चार ही दर्शनावरण बताये गए हैं । तो जब मनःपर्ययदर्शनावरण नहीं तो उसका क्षयोपशम भी कहां से होगा? फिर क्षयोपशम निमित्तक मनःपर्ययदर्शन होना चाहिए, सो वह कैसे होगा? प्रधान बात यह है कि मनःपर्यपज्ञान अवधिज्ञान की तरह अपने आप स्वतंत्रतया अपने आप विषय में नहीं लगता याने अवधिज्ञान तो अपने आप अपनी ही शक्ति से, अपने क्षेत्र के अंदर सब कुछ जान लेता है, पर मनःपर्ययज्ञान जब अपने विषय में अपने मुख से नहीं प्रवर्तता है । तो फिर कैसे बनता है मनःपर्ययज्ञान? दूसरे के मन की प्रणाली से मन:पर्ययज्ञान बनता है । जैसे मन अतीत और भविष्य के पदार्थों का चिंतन करता है, पर देखता नहीं है, ऐसे ही मनःपर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्य के पदार्थों को जानता है, पर देखता नहीं है । वर्तमान मन भी विषय विशेष के आकार से जानता है इस कारण मनःपर्ययवृत्ति सामान्यपूर्वक नहीं है । वह दूसरे के मन की प्रणाली से जानता है याने दूसरा पुरुष अपने मनमें क्या-क्या सोच रहा है, क्या सोचेगा उस मनकी प्रणाली जैसी है उसरूप से मनःपर्ययज्ञान जगता है । वह स्वमुख से नहीं जगता । अवधिज्ञान स्वमुख से जगता है । सो वहां अवधिज्ञान स्वमुख से जगता है, तो उसके साथ अवधिदर्शन भी बनता है, पर मन:पर्ययज्ञान अपने आपके मुख से नहीं जगता, इस कारण वहां मन:पर्ययदर्शन नहीं है ।
(48) ज्ञानावरण व दर्शनावरण के आस्रव कारणों का विषयभेद से भेद―एक शंकाकार ने यह कहा था कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव एक ही समान प्रदोष निह्नव आदिक हैं सो ज्ञानावरण दर्शनावरण को एक हो जाना चाहिए । ये भिन्न-भिन्न दो क्यों है? उसके विषय में काफी उत्तर दिया गया है । तो भी यहाँ यह और समझ लीजिए कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण भिन्न-भिन्न भी विदित होते हैं और वह भिन्नता विषयभेद से बनी याने ज्ञान के संबंध में प्रदोष निह्नव हों और दर्शनावरण के विषय में प्रदोष निह्नव हो तो विषयभेद से इसमें भी भेद बन गया, तो कारण भी अभी जुदे-सुदे कहलाने लगे । इसलिए ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनोंका एक साथ कहना युक्त बन गया ।
(49) ज्ञानावरण व दर्शनावरण के आस्रव के कुछ अन्य विशेष कारणों का प्रतिपादन―जो ज्ञानावरण दर्शनावरण के आस्रव कहा है सो वह संक्षिप्त है । विशेषता में कुछ ऐसा समझिये कि आचार्य व उपाध्याय के प्रतिकुल चलना यह ज्ञानावरण के आस्रव का कारण है, और भी ज्ञानावरण आस्रव के कारण निरखिये । अकाल में अध्ययन करना, जैसे जब सूर्य चंद्र ग्रहण हों, सबमें खलबली मच रही है और ऐसे काल में अध्ययन करे तो वह अकाल अध्य्यन हे अथवा जैसे अपने संघके नायक प्रमुख जा रहे हैं बाहर, अथवा कोई बड़े तेजस्वी मुनिराज पधार रहे हैं तो उस समय अध्ययन न करना चाहिए वह उनके प्रति विनयादि का समय है । यदि कोई उस समय अध्ययन करता है तो वह ज्ञानावरण के आस्रव का कारण है । श्रद्धा न रखते हुए अध्ययन करना, श्रद्धा न रहना यह भी ज्ञानावरण के आस्रव का कारण है । अभ्यास करने में आलस्य रखना, कुछ शिक्षा किसी से ले, पढ़े मगर अम्यास करने में आलस्य किया तो उससे ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है । अनादर से अर्थ सुनना यह ज्ञानावरण के आस्रव का कारण है । समवशरण में दिव्यध्वनि तो खिर रही है और उस समय में कोई मुनि खुद उपदेश करने लगे, व्याख्या करने लगे तो उसकी इस क्रिया से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है । जो बहुत ज्ञानी जीव हैं वे अपने ज्ञान का गर्व करने लगे तो उनके ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है । मिथ्या उपदेश देना, बहुश्रुत विद्वान् का अपमान करना, अपने पक्ष का कठिन आग्रह रखना, सूत्रविरुद्ध चलना, असिद्ध से ज्ञान की प्राप्ति सोचना, शास्त्र बेचना, हिंसा आदिक करना ये सब ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं । दर्शनावरण के आस्रव के कारण की बात देखिये―दर्शन में मात्सर्य होना, दर्शन में अंतराय डालना, किसी की आँख फोड़ना, इंद्रिय के विपरीत प्रवृत्ति करना, दृष्टि का गर्व करते रहना, दीर्घकाल तक सोते रहना, दिन में सोना, आलस्य रखना, नास्तिक बनना, सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना, खोटे तीर्थ की प्रशंसा करना, हिंसा करना और मुनिजनों के प्रति ग्लानिभाव आदिक करना, ये दर्शनावरण के आस्रव के कारण है।