वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-11
From जैनकोष
दु:खशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनांयात्मपरोभ्यस्थांयसद्वेद्यस्य ।। 6-11 ।।
(50) दुःख शोक ताप की असातावेदनीयास्रवकारणता―स्वयं दुःख करना, शोक करना, ताप करना, आक्रंदन, वध और परिदेवन तथा दूसरों को दुःख कराना, शोक कराना, संताप कराना, रोना, वध करना, ये सब असातावेदनीथ कर्म के आस्रव के कारण हैं । जब कोई विरोधी पदार्थ मिल जाये या इष्ट का वियोग हो जाये या अनिष्ट का संयोग हो जाये अथवा कठोर वचन आदिक का प्रयोग बने तो बाह्य कारणों की अपेक्षा तथा अंतरंग में असाता वेदनीय कर्म का उदय होने से जो जीवों में पीड़ा पहुंचती है उस पीड़ा के परिणाम को दु:ख कहते हैं । दुःख का संबंध आर्तध्यानसे विशेष है । सो इष्ट वियोग होने पर, अनिष्टसंयोग होने पर, शरीर वेदना होने पर, दूसरों के निष्ठुर कठोर वचन सुनने पर असाता वेदनीय के उदय से जो क्लेश होता है वह दुःख है । सो स्वयं दुःख करना, दूसरे को दुःखी कराना या स्वपर दोनों ही दुःख करना ये सब असातावेदनीय का आस्रव कराते हैं, शोक―जैसे जो पुरुष उपकारक है, बंधु है, बड़ा ध्यान रखने वाला हैं उसका वियोग हो जानेपर बार-बार उसका विचार आने के कारण जो चिंता होती है, खेद होता है, विह्वलता होती है वह सब शोक कहलाता है । शोक होने में बाह्य कारण तो बंधुवियोग आदिक है और अंतरंग कारण मोहनीय कर्मका जो शोक प्रकृति नामक भेद है उसका उदय है, ताप―निंदा करने वाले, अपमान करने वाले कठोर वचन सुनने पर कलुषित हृदय के कारण जो भीतर में तीव्र जलन होता है उसे ताप कहते हैं । ताप परिणाम में भीतर ही भीतर विकलता जगती है । भीतर ही भीतर अत्यंत शोक रहता है । मानो हृदय जलता सा रहता है तो यह परिणाम ताप कहलाता है । सो खुद ताप करना, दूसरे का कराना और स्वपर दोनों ही करना, ये असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं ।
(51) आक्रंदन वध परिदेवन की असद्वेद्यास्रवकारणता―आक्रंदन―बड़े संताप दुःख शोक आदिक के कारण आंसू गिरने लगे, अंगवियोग होने लगें, माथा धुनने लगे, छाती कूटने लगे, ऐसी क्रियावों पूर्वक जो वृत्ति है ' उसे आक्रंदन कहते हैं । जैसे किसी इष्ट पति पुत्रादिक का वियोग होने पर रोना, आंसू गिराना, माथा, फोड़ना, कुछ सूझना भी नहीं, विह्वल होकर रोना यह सब आक्रंदन कहलाता है, सो ऐसा आक्रंदन खुद करे, दूसरे से कराये या दोनों करने लगे, उससे असाता वेदनीय का आस्रव होता है । वध―आयु, इंद्रिय बल और प्राण आदिक का विघात करना वध कहलाता है । सो परिदेवन―अत्यंत संक्लेश के कारण ऐसा रोना पीटना जिसको सुनकर अपने को या दूसरे को दया आ जाये सो परिदेवन है । ऐसा रोना पीटना खुद करे, दूसरे को कराये या दोनो करने लगे उससे असाता वेदनीय का आस्रव होता है ।
(52) दुःख की विशेषतावों से असद्वेद्यास्रवकी विशेषतायें―यहाँ एक शंकाकार कहता है कि दुःख शोक आदिक जितने भी यहाँ शब्द बताये गए हैं वे सब दुःख जाति के ही तो हैं याने सब दुःख रूप हैं । जब सर्व दुःख रूप हैं तो केवल एक दुःख ही शब्द कहते । उनको अलगसे कहने की क्या आवश्यकता थी? वे सब दु:ख में ही आ जाते हैं । शोक, ताप ये सब दुःख के ही भेद हैं । इस कारण केवल दुःख शब्द ही कहना चाहिये था, अन्य शब्द न कहना चाहिये था । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यद्यपि ये सब दुःख ही दुःख हैं मगर उन दुःखों
में भी तो विशेषतायें होती हैं । तो कुछ विशेषतावों के संबंध से उनकी दुःख जाति होने पर भी उनको बताना पड़ा है । जैसे कोई गाय इतना ही कहे और गाय से कुछ अधिक प्रयोजन न बने, जिसने उसका कुछ विशेष रूप नहीं जाना तो उसको समझाने के लिए यह मुंडीगाय, सफेदगाय, काली गाय ऐसी बहुत सी बातें कहनी होती हैं तो ऐसे ही दुःख के कारणभूत असंख्यात प्रकार के आस्रव होते हैं और उन असंख्यात प्रकार के आस्रवों के कारण भी असंख्यात प्रकार के होते हैं । यों दुःख के विशेष तो बहुत हो गए । उन्हें कोई न जाने तो कुछ दुःख जाति के विशेषों को बताकर उनका विवेक कराया जाता है और इसीलिए शोकादिक शब्दों का यहां ग्रहण किया गया है । दूसरी बात यह भी है कि दुःख शोकादिक में परस्पर भेद भी पाया जाता है । जैसे घड़ा सकोरा आदिक मिट्टी से ही बने हुए हैं, उसकी दृष्टि से देखें तो सब मिट्टीरूप हैं, उनमें भिन्नपना नहीं है मगर उनका नियत आकार देखें, उनका उपयोग देखे तो उन पर्यायों की दृष्टि से उन मिट्टी के बर्तनों में परस्पर भिन्नता है । ऐसे ही जो दुःख, शोक, ताप आदिक इस सूत्र में कहे गए हैं सो एक अप्रीति सान्य की दृष्टि से देखें तो चूँकि इन सभी में प्रीति का अभाव है, हर्ष का अभाव है, इस दृष्टि से तो सब दुःख के परिणाम से अभिन्न हैं, किंतु अर्थ की दृष्टि से, उनके स्वरूप की दृष्टि से उन दुःखों में विशेषता है तो उन पर्यायों की दृष्टि से इन सबमें परस्पर भिन्नता पायी जाती है ।
(53) दुख शोक आदिका निरुक्त्यर्थ―अब इस सूत्र में जो दुःख आदिक पद दिए गए हैं उनकी निरुक्ति में अर्थ देखिये यहां सभी शब्द कर्तृसाधन में कर्मसाधन में और भावसाधन में बनते हैं । जैसे आत्मा को दुःखित करना सो दुःख है । आत्मा जिसके द्वारा दुःखी होता है सो दुःख है या दुःख न मात्र दुःख है । इन तीन साधनों में एक आशय के थोड़े भेद होते हैं । तो भी वहां ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं, केवल कर्तृसाधन का ही एकांत किया जाये तो भी नहीं बनता । अन्य साधनों का एकांत भी नहीं बनता । जब स्वातंत्र्य की विवक्षा है । पर्याय और पर्यायी का जब अभेद दृष्टि में है तो तपे हुए लोहे के पिंड की तरह तत्परिणाममय होने से आत्मा ही दुःख रूप होता । इसलिए तो कर्तुसाधन बनता है और जब पर्याय और पर्यायी के भेद की विवक्षा हो तब यह अर्थ बनता है कि जिसके द्वारा या जिसमें आत्मा दुःखी हुआ हो उसे दुःख कहते हैं । यह करणसाधन बन गया सो यह भी अन्य साधनों का निषेध होने पर नहीं बनेगा । और जब केवल वस्तुस्वरूप मात्र का कथन हो तो दुःख न होना दुःख है, इस प्रकार भावसाधन बनता है यह भी अन्य साधनों की अपेक्षा रखता है । जैसे एक दीपक शब्द को लिया―जो प्रकाश करे सो दीपक, यह कर्तृसाधन हो गया । प्रकाश किया जाता है जिसके द्वारा वह दीपक है, यह करण साधन हुआ और प्रकाशनमात्र को दीपक कहते हैं, यह भावसाधन हो गया । अर्थ एक ही है । पर आशय से तीन साधन बन गए । तो जैसे इसमें कोई यह एकांत कहे कि हम तो सर्वथा कर्तुसाधन रूप ही मानते हैं, मायने जो प्रकाश करे सो दीपक, तो उनमें जब करणपना न रहे कि किसके द्वारा प्रकाश करना और क्रिया की मुख्यता न रहना कि प्रकाशन हो रहा है तो कर्तृसाधन भी टिक नहीं सकता ऐसे ही कोई करण साधन का ही एकांत करे कि जिसके द्वारा प्रकाश किया जाता है वह दीपक है और कुछ है नहीं कर्ता वगैरह तो करनहार कोई नहीं है तो करणपना कैसे बन गया? तो इसमें किसी का भी एकांत करने पर यह साधन नहीं बनता है । हाँ जब जिस साधन का प्रयोग होता है वह मुख्य होता है, पर शेष दोनों बातें उसके हृदय में ज्ञात रहती है, क्योंकि वस्तु केवल पर्यायमात्र नहीं है, वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, नित्यानित्यात्मक है ।
(54) पर्यायमात्र या द्रव्यमात्र वस्तु मानने पर दु:खशोकादि परिणाम की अनुपपत्ति―अगर पर्याय मात्र ही वस्तु माना जाये जो एक समय में जानन बन रहा है वह उतना ही पूर्ण वस्तु है अन्वयीद्रव्य कोई नहीं है, ऐसा आत्मा का अभाव मानने पर कोईसा भी साधन नहीं बन सकता । करणसाधन तो यों न बनेगा कि कर्ता नहीं माना गया । कर्तृसाधन यों नहीं बनेगा कि कारण नहीं माना गया । जब तक स्वातंत्र्य शक्ति वाला अर्थ न माना जाये
तब तक शेष कारक कोई भी प्रयुक्त नहीं हो सकते । जब कोई एक स्वतंत्र वस्तु ही नहीं तो करण, संप्रदान किसके लिए लगाये जा रहे हैं । कोई यदि कर्तृसाधन का ही एकांत करे कि बस यही है, करने वाला है, इतना ही भर माने तो भी नहीं बन सकता, क्योंकि करण आदिक न मानने पर यह सब कुछ नहीं बन सकता । देखिये अहेतुक क्षायिक में विज्ञान आदिक जब एक साथ उत्पन्न होते हैं, जैसा कि क्षणिकवादियों के मत में माना गया है तो वे एक दूसरे के सहकारी कैसे बन सकते हैं? अतीत और अनागत तो असत् ही है वर्तमान में, तो उनका वर्तमान के प्रति सहयोग कैसे हो सकता? अर्थात् वस्तु को नित्यानित्यात्मक माने, स्वतंत्र सत्ता वाला माने, त्रैकालिक माने परिणामी माने नहीं तो ये सब परिणमन कैसे हो सकते हैं? यदि एक क्षणिक मात्र ही माना, विज्ञान मात्र ही माना कि बस यही दुःख है जो एक समय में जानन होता है, सो वहां दुःख शोकादिक कैसे हो सकते हैं? शोक तो तब होता है जब पहले किसी दुःख का अनुभव किया हो फिर उसका स्मरण आये । पर जहाँ समयमात्र ही आत्मा है, क्षणिक है वही स्मरण कैसे हो सकता? एक समय में आत्मा उत्पन्न हुआ, उसी में नष्ट हो गया तो वहाँ शोकादिक नहीं बन सकते और ये शोकादिक सब देखे ही जाते हैं । अर्थात् पर्यायवान के बिना पर्यायें नहीं बन सकतीं । जानना आदिक बातें तो मानता रहे और उनके आधारभूत कोई स्थायी आत्मा न माने तो पर्याय कैसे टिक सकता है? इसलिए वस्तु केवल पर्यायमात्र नहीं है । पर्यायमात्र मानने पर दुःख शोक आदिक ये कुछ भी नहीं हो सकते । यदि वस्तु को द्रव्यमात्र ही स्वीकार किया जाये कि वस्तु पूरे द्रव्य ही है, उसमें क्रिया नहीं, गुण नहीं सर्वथा निर्गुण है, निष्क्रिय है तो ऐसा कोई द्रव्य मानने पर, ऐसा आत्मा मानने पर कि जिसमें परिणमन नहीं होता, जिसमें ज्ञान भी नहीं है ऐसा कल्पित आत्मा दुःख सुख आदिक परिणतियों का कर्ता कैसे हो सकता है और जब ज्ञानादिक गुणरहित आत्मा को माना तो वह अचेतन कहलाया । कोई भी अचेतन जैसे प्रधान अचेतन है तो वह दुःख आदिक पर्यायों का कर्ता नहीं हो सकता । अचेतनमें भी अगर दुःख शोक आदिक होने लगे तो फिर चेतन और अचेतन का भेद किस बात से किया जा सकेगा?
(55) स्वपरोभयस्य दु:खादि का असद्वेद्यास्रवहेतुता―इस सूत्र में जो दुःख आदिक कहे गए हैं ये अपने में होते हैं, दूसरे में होते हैं, दोनों में होते हैं और ये सभी असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं । जब क्रोधादिक के आवेश में रहने वाला जीव अपने में दुःख आदिक उत्पन्न करता है तब वह आत्मस्थ दुःख कहलाता है और जब कोई समर्थ व्यक्ति दूसरे में दुःख आदिक उत्पन्न करता है तो वह परस्थ दुःख कहलाता है, और जब किसी घटना में दोनों ही दुःखी होते हैं तो वह उभयस्थ दुःख कहलाता है । जैसे किसी इष्ट के गुजरने पर कई दिन के बाद भी कोई रिस्तेदार बैठने आता है तो वह रिस्तेदार खुद भी रोने जैसी मुद्रा बनाता है और घर वालों को भी रोना पड़ता है, उस समय दोनों ही रोने लगे एक विषय को लेकर । यह उभयस्थ दुःख कहलाता है या जैसे कोई साहूकार कर्जदार से कर्ज वसूल करने गया तो वहां दोनों ही लड़ते बोलते या कहीं जा रहे हैं या भूख प्यास आदिक के दोनों दुःख सह रहे हैं तो ये उभयस्थ दुःख कहलाते हैं । तो चाहे दुःख आदिक स्व में हों चाहे पर में हों, चाहे दोनों में हों, सबसे असाता वेदनीय का आस्रव होता है ।
(56) दुःख शोकादि प्रकरण में स्फुट ज्ञातव्य―इस, सूत्र में तीन पद हैं―पूर्व पद में तो आस्रवों के कारणों के नाम दिए हैं, दूसरे पद में स्व पर और दोनों में रहने वाले दुःख आदि का संकेत किया है । तीसरे पद में असातावेदनीय का नाम दिया है कि ये सब असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं । यहाँ वेद्य का अर्थ है अनुभवना, वेदना, चेतना है । यद्यपि वेद्य या वेद्य शब्द चार प्रकार के अर्थ वाली धातु से बनते हैं, विद्ज्ञाने, विदलुट लाभे, विंतिविचारे और विद्य सद्भावे, पर यहाँ एक चेतन ज्ञान अनुभवन अर्थ को लिए ही धातु लेना है । इस सूत्र में सर्वप्रथम दुःख शब्द दिया है तो यह दुःख प्रधान है और सभी में दुःख है, उसके बाद जो शोकादिक कहे गए हैं वे सब दुःख के ही विशेष हैं, सो शोकादिक को ग्रहण करना उपलक्षण रूप है और इस दृष्टि से अनेक शब्द और भी ग्रहण किए जा सकते हैं जो कि असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं ।
(57) असातावेदनीय के अन्य आस्रवहेतुवों का ग्रहण―जैसे अशुभोपयोग करना, किसी व्यक्ति पर कुछ अशुभ आपत्ति लादना असातावेदनीय का आस्रव करना है । दूसरे की निंदा करना, चुगली करना यह सब असातावेदनीय का आस्रव है । एक दूसरे से संताप उत्पन्न कराना, अंगोपांग का छेदन करना जैसे कि बैलों के नाक आदिक छेदे जाते हैं ये सब असातावेदनीय के आस्रव करने वाले हैं । भेद करना, ताड़ना, किसी को त्रास देना, किसी को डांटना' ये सब असातावेदनीय के आस्रव करने वाले हैं । छीलना, पीटना, बाँधना, किसी को रोकना, मर्दन करना ये सब असातावेदनीय के आस्रव करने वाले हैं । किसी को दबाया, किसी पर बोझा लादा, लज्जित किया ये सब अंसातावेदनीय के आस्रव करते हैं । दूसरे की निंदा करना, अपनी प्रशंसा करना, संक्लेश उत्पन्न करना, जीवन यों ही गंवा देना, ये सब असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं । निर्दय होना, बहुत बड़ा आरंभ का काम लगा लेना बहुत बड़े परिग्रह का लगाव है, किसी का विश्वासघात करना, किसी को आश्वासन देना, विश्वास देना, पूर्ण रूप से वचन देना, फिर उसे धोखा देना, ये सब असातावेदनीय का आस्रव करते हैं । मायाचारी पाप के कामों से अपनी आजीविका बनाना, बिना प्रयोजन ही कुछ पाप करते रहना, वस्तुवों में विष मिला देना, हिंसा के साधनों को उत्पन्न करना, जैसे बाण बनाना, जाल बनाना, पिंजरा बनाना ये सब असातावेदनीय के आस्रव को किया करते हैं । किसी को जबरदस्ती शस्त्र देना, तुम यह बंदूक रखो ही, तुम यह तलवार सिर में लटकाओ ही आदिक अनेक ढंगों से किसी के परिणाम बिगाड़ना ये सब असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं ।
(58) दुःख आदि देने के आशय में असद्वेद्यास्रवहेतुता―अब यहां कोई शंका करता है कि यह बताया गया कि दुःख के कारणों से असातावेदनीय का आस्रव होता है तब आचार्य महाराज या अरहंतदेव ने ऐसा उपदेश क्यों दिया जिससे दुःख हो, जैसे कि नग्न रहना, केश-लोच करना, अनशन आदिक करना, तप आदिक करना, इनसे तो शरीर को कष्ट पहुंचता है, फिर तीर्थंकर महाराज को तो इन बातों का उपदेश न करना चाहिए था । तो इस शंका के समाधान में कहते हैं कि क्लेशभावपूर्वक यदि यह बात कही जाती है तब तो शंका ठीक थी, मगर संसार के दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए उसके उपायभूत रत्नत्रय की साधनों में चलना आवश्यक है और ऐसे जीवों को पूर्व संस्कारवश खोटे भावों के आने के प्रसंग आते हैं, तो उन अशुभ उपयोगों से बचने के लिए इन नग्न आदिक तपों का विधान किया गया है । तो यह तो एक दयावश किया गया है । उनको करुणा उपजी कि ये संसारी जीव संसार में दु:ख पा रहे हैं । इन दुःखों से सदा के लिए छुटकारा हो तो जैसे डाक्टर घोड़े का आपरेशन करे, कोई चिकित्सा करे तो देखने में यह लगता कि यह बड़े दुःख का काम है, पर उसके क्रोधादिक भाव न होने से डाक्टर को उस पाप का बंध तो नहीं होता । तो ऐसे ही अनादिकाल के सांसारिक जन्ममरण वेदना को नष्ट करने की इच्छा से तप आदिक उपायों में प्रवृत्ति करने वाले यति के कार्य में चाहे लोगों को दुःख दिखे मगर वे कार्य पाप के बंधक नहीं हैं, क्योंकि वे क्रोधादिक के कारण नहीं किए जाते । फिर एक बात यह है कि जो संसारी जीव दुःख से दबे हुए हैं उनके मन को जहाँ आराम मिले वही तो सुख कहलाता है । तो उन साधकजनों का अनशन आदिक करने में मन को सुख मिलता है, वह स्वेच्छा से करते हैं इस कारण भी कोई दुःख का प्रसंग नहीं है, अब यहाँ तक असातावेदनीय के आस्रव के कारण कहकर सातावेदनीय के आस्रव के कारण बतलाते हैं।