वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 75
From जैनकोष
पापोपदेश हिंसादानापध्यानदुःश्रुतीपंच ।
प्राहु: प्रमादचर्यामनर्थदंडानदंडधरा: ।। 75 ।।
अनर्थदंड के पंच प्रकारों का निर्देश―पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुश्रुति और प्रमादचर्या ये 5 अनर्थ दंड हैं । इनका लक्षण आगे स्वयं आचार्यदेव छंदों में कह रहे फिर भी थोड़ा संकेत समझना । (1) पापोपदेश―जिस उपदेश में पापों की बात आये उसका नाम है पापोपदेश । जैसे भैंसे पंजाब से खरीदे और मध्य प्रदेश में ले जाकर अच्छी कीमत में तो यह तो तिर्यंचों को क्लेश कराने वाली बात है । यह अनर्थ दंड हैं, अथवा कोई हिंसा करने की बोलें वह पापोपदेश है । (2) हिंसादान जिन चीजों से हिंसा होती है उसका दान करना हिंसा दान कहलाता है । (3) अपध्यान―खोटा ध्यान, दूसरे का बुरा विचार करना यह अपध्यान है । (4) दुश्रुत―खोटा सुनना जिसमें स्त्रीराग बड़े या रौद्र परिणाम होवे वे सब दुश्रुतियां है । (5) प्रमार्दचर्या―आलस्य में प्रमाद से या कषाय से ऐसी प्रवृति करना कि जिसमें जीब का वध हो ये 5 अनर्थदंड कहलाते हैं । अनर्थ कहते हैं निष्प्रयोजन, जिनमें धर्म का या आजीविका का कुछ प्रयोजन ही नहीं है और उनका विचार कर रहे हैं, वचन से यहां वहां बोल रहे हैं या शरीर की चेष्टायें कर रहे हैं ये सब अनर्थ के काम कहलाते है । और दंड का अर्थ क्या है? मन, वचन, काय की प्रवृति करना । जहाँ प्रतिक्रमण आदिक में ये शब्द आते हैं कि तीन दंडों को छोड़ों मायने मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति को छोड़ो । इसका नाम दंड क्यों रख दिया? यह स्वयं दंड है । जिस समय कोई जीव अशुभ सोचता है, बोलता है, चेष्टा करता है, तत्काल वह दु:खी होता है । वह दु:ख नहीं सहा गया कषाय का इसीलिए तो अशुभ चेष्टायें करता है, फिर अशुभ चेष्टावों के करने से जो पाप का बंध होता है उसको आगे दंड भोगना पड़ता है । इस कारण अशुभ मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का नाम दंड रखा गया है । इन 5 अनर्थदंडों से जो विरक्त रहे, वह अनर्थदंड व्रत है । अब पापोपदेश नामक अनर्थदंड स्वरूप कहते है ।