वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 10
From जैनकोष
चौराणां लउराणं य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्मेहिं ।
जंतेण दिव्वमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ।।10।।
(24) चौरप्रकृति वाले मुनिभेषियों का नरकवासगमन―जो मुनिभेष धारण करके चोर जैसा काम करे, लाउर अर्थात् झूठा बोलना जैसा काम करे, युद्धविवाद कराये, इन तीन कार्यों से पाप का बंध होता है । जिसमें अत्यंत पाप उपजे ऐसे कषाय के कार्य अथवा यंत्र, चौपड़, शतरंज आदिक क्रीड़ा करे ऐसा मुनिभेषधारी पुरुष नरक जाता है । कषाय के अनेक प्रकार हैं । किसी मुनिभेषी के ऐसे ही परिणाम हो जाते कि चोरी करने का भाव आ जाता और यदि वह ज्ञानी है और किसी कारण चोरी का भाव आया है तो वह बाद में अपने परिणाम सम्हाल लेगा, मगर अज्ञानी, कोई मुनिभेषी हो, उसके लिए उसमें कोई ग्लानि नहीं आती । पर जो चोरी जैसा कार्य करे अथवा कराये वह नरक का पात्र है । एक कथा आयी है प्रथमानुयोग में कि एक मुनिराज किसी सर्राफ के घर आहार के लिए पहुंच गए । वहाँ आहार किया । आहार करके आते समय कोई हार जैसा स्वर्ण की कीमती चीज रखी थी सो उसे उठा लिया और अपने कमंडल में रख कर ले आया । जब दूसरा दिन आया तो 24 घंटे बाद उस मुनि को अपने उस कुकृत्य पर बड़ी ग्लानि हुई कि मुझमें ऐसा भाव क्यों आया? तो उसने जाकर दूसरे दिन वह चीज दे दी और घर वालों से उस मुनि ने पूछा कि तुम्हारे घर मेरे भाव खराब क्यों हो गए? आप क्या कार्य करते हैं? तो घर वालों ने बताया कि मेरा कीमती जेवर बनाकर बेचना है ।....तो आप उस काम में कभी चोरी तो नहीं करते ।....अरे महाराज वह तो काम ही ऐसा है कि उसमें चोरी का भाव आ ही जाता है । तो उन्होंने समझा कि ऐसा चोरी से जुड़े हुए धन का आहार लिया इससे मेरे परिणाम बिगड़े ꠰ तो किसी के परिणाम बिगड़कर भी सम्हल जाते और किसी के बिगड़कर सम्हल नहीं पाते ꠰ तो चोरी वाला कृत्य करने वाले जो मुनिभेषी है वे नरक के पात्र होते हैं ।
(25) असत्यभाषण युद्धोत्साहन विवादकरण की प्रकृति वाले मुनिभेषियों का दुर्गमन―जो झूठ बोलने की प्रवृत्ति रखते हैं वे भी दुर्गति के पात्र हैं । झूठ भी अनेक प्रकार का होता है । जिसमें चित्त खुद गवाही दे देता कि यह झूठ कार्य है, पर विषयकषाय की आसक्ति में वह अपने कुकृत्य की उपेक्षा नहीं करता, झूठ बोलता । छोटा भी झूठ, बड़ा भी झूठ और झूठ बोलने की जिसकी प्रकृति बनी है चाहे वह बहुत हल्का झूठ बोलता है, पर झूठ बोलने का जो संस्कार बना उस संस्कार के कारण उसके पापबंध होता और यहाँ कह रहे कि वह भी नरकवास को प्राप्त होता है । युद्ध और विवाद इनमें जो प्रेरणा देता है अथवा कोई युद्ध की कला सिखाता है, कुछ ऐसे दृष्टांत मिले पुराणों में कि जहाँ गुरु ने या क्षुल्लक ने किसी शिष्य को अपनी सर्व विद्यायें सिखायी तो उसी में शस्त्रविद्या भी सिखायी और जब कोई विद्या सिखाता है तो वह युद्ध करने की नीति भी सिखाता है, यह तो सिखाने की बात है, पर कहीं प्रेमवश, किसी पर करुणावश, लगाववश उस युद्ध की दशायें भी बताता है । जैसे आजकल की सेना के जनरल लोग ये केवल बुद्धि से सोचकर कि कैसी व्यूहरचना, किस ओर से बनाना, कैसे धोखा देना, इस तरह की रण में नीति चलाते हैं और फिर विजय पाते हैं तो जैसे इन सैनिकों के जनरलों का काम केवल बुद्धि और वाणी है । स्वयं कुछ प्रयोग नहीं करते कि कहीं संग्राम में खुद भी युद्ध करने जायें ꠰ केवल वे महलों में बैठे रहते हैं, वहीं बैठे-बैठे आर्डर देते रहते हैं तो केवल बुद्धि से सोचने और बोलने का ही काम तो आजकल की सेना के जनरल लोग करते हैं । तो कोई साधु यदि उस जनरल जैसा ही काम करे, युद्ध का प्रयोग तो नहीं है, मगर युद्ध की बात सिखाने में, सर्व नीतियाँ बतानी पड़ती हैं । तो इस युद्ध की बात बताने में जिनको रुचि है वे मुनिभेषी श्रमण नरकगति के पात्र होते हैं । किन्हीं मुनिभेषी साधुवों को खेल भी प्रिय होते हैं ꠰ खेलते हुए लोगों के पास बैठ जाते, खेल देखते रहते या स्वयं भी खेलते हुए लोगों को इशारा करके बता देते, तो ये सब एक खेल की ही तो बातें हैं । इसमें जिनको तृप्ति होती है वे मुनिभेषी नरकगति के पात्र होते हैं । मुनिलिंग धारण कर ऐसा जो खोटा कार्य करेगा सो वह दुर्गति में ही उत्पन्न होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है ।