वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 18
From जैनकोष
सव्वे विय परिहीणा रूवविरूवा वि वदिदसुवया वि ।
सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं ।।18।।
(31) सुशील पुरुषों के मानुष्य की सुजीवितता―जो पुरुष सभी शास्त्रों के तो ज्ञाता है, लेकिन हों विषयकषायों के प्रेमी तो वे मोक्षमार्ग को नहीं निभा सकते । जो सर्व प्राणियों में हीन हैं, छोटे है और कुल आदिक में भी छोटे हैं और स्वयं कुरूप हैं याने सुंदर नहीं हैं, वृद्ध हो गए हैं और यदि उनकी शील पर दृष्टि है, आत्मस्वभाव की ओर उनका झुकाव है, स्वभाव उत्तम है, ऐसा जिनका निर्णय है और विषयकषायादिक की लीनता नहीं है तो उनका मनुष्यपना सुशील है अर्थात् ऐसे मनुष्य स्व और पर का हित करने वाले हैं ।